Thursday, November 14
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क्यों महिला खिलाडियों को देश की बेटी बनना पड़ता है?

बीते दिनों घर के दहलीज़ से बाहर निकलकर अंडर-19 टी ट्वेंटी वर्ल्ड कप विमेंस क्रिकेट खेलने वाली महिला खिलाड़ीयों ने नया इतिहास रच दिया। अपने कंधे पर तिरंगा रखकर जब वह क्रिकेट स्टेडियम के चक्कर काट रही थी, तब न केवल उनका जज़्बा दिख रहा था, बल्कि वह एक तरह से उस समाज के खिलाफ अपना हौंसला भी बुलंद करना था जो कभी उनके रास्ते में गरीबी, तो कभी कुंठित ख्यालों का रोड़ा डाल रहा था। कुछ कर दिखाने का जज़्बे इनके हौंसले को कुंद नहीं कर पाया। वह खेली और बेहतरीन खेलते हुए दुनिया भर में छा गई।

महिला खिलाड़ियों को उपलब्धियों के आधार पर आँका जाए

महिला क्रिकेटरों के हक में कई चीज़ें बदल रही है जो लैंगिक संवेदनशीलता के क्षेत्र में एक बड़ा कदम है। बीते दिनों वुमन क्रिकेटरों को पुरुष क्रिकेटरों के बराबर मैच फीस देने का फैसला, विमेंस टी-20 आइपीएल का फैसला के बाद, विमेंस क्रिकेट अंदर-19 टी20 वर्ल्ड कप जीतना एक बड़ी उपलब्धि है और एक एतिहासिक घटना भी। राज्य स्तर पर क्रिकेट, फुटबाल, हांकी जैसे कई खेलों के माध्यम से गांव-कस्बों और छोटे शहरों में पितृसत्तात्मक मानसिकता को तोड़ने का काम हो रहा है और समाज को लैंगिक रूप से संवेदनशील बनाने का प्रयास हो रहा है। यह ज़रूर देश के अन्य महिला एथलिटों के लिए नए दरवाजे खोलेगा। फिर महिला क्रिकेट खिड़ालियों के साथ मुख्यधारा मीडिया परायापन जैसा व्यवहार क्यों कर रहा है? क्या यह विमेंस एथलिट के तमाम उपलब्धियों पर पानी फेरने जैसा नहीं है। जाहिर है विमेंस एथलिट आगे बढ़ रही है, पर मुख्यधारा मीडिया उनके उपलब्धियों का जश्न तो मना रहा है पर अपनी मानसिकता के कारण पिछड़ रहा है।

विमेंस एथलिट के साथ भेदभाव क्यों

किक्रेट मैच खेलने के दौरान या अन्य किसी भी खेल के मैदान पर तो वह सिर्फ एक एथलीट होती है। कामयाबी का परचम लहराने के बाद समाचार के दुनिया में देश की बेटी-बहन बनने के साथ-साथ वह प्रेरणा बन जाती है। नहीं बन सकी तो बस विमेन एथलिट, जिसके लिए मेहनत किया, खून जलाया-पसीना बहाया और अपने खेल में प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला। क्या यह अजीब नहीं है, जिस खेल क्रिकेट ने समय के साथ लैंगिग भेदभाव को बढ़ावा देने वाले शब्दों से पहरेज़ कर लिया। जहां मैन आफ द मैच या सीरिज़ या बैट्समैन अब प्लेयर आंफ द मैच और बैटर हो गया, उस खेल का समाचार लिखने में हम जेंडर संवेदनशील नहीं हो पा रहे है। हम महिला क्रिकेट खिलाड़ियों से उसके बेहतरीन एथलीट होने का हक लगातार छीन रहे है।

किसी भाई की बहन और किसी पिता की बेटी तो वो है ही फिर देश की बहन-बेटी बनाने की मानसिकता क्यों है? पुरुष खिलाड़ियों के कामयाबी पर तो हम नहीं कहते देश के भाई-बेटों ने कामयाबी के परचम दुनिया में लहरा दिए। उनके लिए मुलतान का सुल्तान, नेशन हीरो और नए-नए विशेषण दिए जाते हैं। परंतु, महिला खिलाड़ियों के लिए शब्दों या विशेषणों का अभाव क्यों?

मीडिया में भी मौजूद है पूर्वाग्रह

विमेन एथलिटों को बेटी-बहन बोलकर उनके बेहरीन प्रर्दशन के बारीक बातों को तो कोई स्पेस ही नहीं मिलता। उनकी खेल क्षमता का मूल्यांकन करते हुए एथलिट क्षमता और उनकी निपुणता पर ध्यान केंद्रित करना तो दूर की कौड़ी लाने के बराबर है। न ही उनके सफलता के खबर लिखते समय उनके बनाए गए रिकार्ड या पहले के उपलब्धियों पर कोई बात दिखती है। अगर कैरियर के एक पड़ाव पर है तो शादी कब कर रही है और अगर गर्भवती है तो उनका कैरियर खत्म।

कपड़ों पर हमेशा होती है बहस

विमेंन एथलिटों के कपड़े तो हमेशा से ही पुरुषवादी मीडिया के निशाने पर रहता है। शायद ही कोई महिला एथलीट हो जिसकी सुंदरता उनके लिए परेशानी का कारण नहीं बना हो। उनके चेहरे-मोहरे और रंग को प्राथमिकता देने के लिए चक्कर में उनकी खेल प्रतिभा को पीछे धकेल दिया जाता है। समाज में महिला सौंदर्य को लेकर गढ़ी गई परिभाषाएं हमेशा उनके खेल प्रतिभा के सामने बाधा बन जाती है। बीते दिनों द गार्जियन अखबार ने स्पोर्ट इंग्लैड की रिपोर्ट के आधार पर लिखा कि कुछ महिलाओं पर किए गए सर्वेक्षण में 75% महिलाओं ने बताया कि वे खेलों में भाग लेना चाहती थीं। लेकिन समाज और मीडिया द्वारा उनके रूप-रंग और शारीरिक गठन के कारण उनके बारे में राय न बना ले, इस डर से उन्होंने अपने कदम पीछे हटा लिए।

पहले तो हम यह मानने को तैयार न थे कि कोई भी खेल महिलाओं के लिए भी है। महिला एथलिटों ने यह साबित किया कोई भी खेल लड़के-लड़कियों का नहीं, स्टामिना का होता है। फिर कहने लगे, चूल्हा-चौका करने वाली छोरियां देश के लिए कैसे खेलेगी? छोरियों ने मेडल अपने नाम किए तो कहने लगे, मारी छोरि, छोड़ो से कम है की। फिर कहा, इतने छोटे-छोटे कपड़े पहनकर टांगे दिखा रही है। यह सही तो न है। महिला एथलिटों ने अपने खेल पर ध्यान दिया, कपड़ों पर नहीं और कामयाब होती चली गई।

क्या महिला एथलिटों पर सिर्फ बायोग्राफी बनाना काफी है

हाल के दिनों में हिंदी सिनेमा में भी महिला खिलाड़ियों की कहानी कहती हुई कई बायोग्राफी पर्दे पर आ चुकी है। इनमें महिला खिलाड़ियों के साथ सामाजिक भेदभाव, खेल संघों का लैंगिक पूर्वाग्रह और आर्थिक चुनौतियों के साथ-साथ कई भेदभाव को सतह पर लाने की कोशिशें हुई है। इसके बाद भी भारतीय समाज और मुख्यधारा मीडिया जेंडर संवेदनशील नहीं हो पा रहा है। यह बताता है भारत में लैंगिक असमानता की जड़े कितनी व्यापक और मजबूत है।

जाहिर है भारतीय महिला एथलीट को अभी लंबा सफर तय करना है। महिला एथलिटों को देश-दुनिया के लड़कियों के लिए मिसाल ही नहीं बनना है, बल्कि उन्हें पितृसत्तात्मक समाज के मानसिकता को भी पीछे छोड़ना है। भारतीय मुख्यधारा मीडिया और समाज जिस तरह से पितृसत्तात्मक विचारों के साथ चिपका बैठा है, खेल के दुनिया में महिला एथलिट कामयाब तो होती रहेगी परंतु खेल में लैंगिक समानता का लक्ष्य कोसों पीछे चलेगा। अपने घर के आंगन से निकलीं और मैदान मार लेने वाली महिला एथलिटों के पक्ष में आज हमें खड़े होने की जरूरत है। 

मूल चित्र : gawrav from Getty Images Signature, Canva Pro

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