चिंगारी एप ने कंपनी की महिला कर्मचारियों के प्रति माह 2 दिन के पीरियड्स अवकाश की घोषणा की है। कंपनी ने कहा नई नीति तत्काक प्रभाव से लागू होगी।
बीते दिनों देश के सर्वोच्च अदालत ने पीरियड लीव पर दायर जनहित याचिका सुनने से इंकार कर दिया है। एक बार फिर महिलाओं के बुनियादी हक का सवाल सच के आइने के सामने खड़ा हो गया। सर्वोच्च अदालत में याचिका खारिज़ होने के कुछ दिन बाद ही, चिंगारी एप ने कंपनी की महिला कर्मचारियों के प्रति माह 2 दिन के पीरियड्स अवकाश की घोषणा की है। कंपनी ने कहा नई नीति तत्काक प्रभाव से लागू होगी। महिला दिवस के दो दिन पहले इस खबर का आना पीरियड्स लीव अवकाश के लिए संघर्ष करने वाले लोगों को, जो सर्वोच्च अदालत के फैसले से थोड़े हतोत्साहित हो गए थे, फिर से संघर्ष करने की नई ऊर्जा देगा।
सर्वोच्च अदालत मे यातिक दाखिल होने के बाद सार्वजनिक मंचों पर महिलाओं के लिए संवेदनशील विषयों पर पुर्नविचार और पुर्नपरिभाषित होते दिख रहे थे। जाहिर है भारतीय समाज में पीरियड लीव की मांग अप्राकृतिक, गैरजरूरी और समाज विभाजनकारी कहकर खारिज़ किए जाते रहे है। फिर चिंगारी जैसी कंपनियां किस संवेदनशीलता के जमीन पर महिलाओं को पीरियड लीव का अधिकार देते रहे, इस संवेदनशीलता पर विचार जरूर करना चाहिए। समाज, सरकार और अब न्यायसंस्था ने देश के आधी-आबादी को निराश किया है।
सर्वोच्च अदालत में छात्राओं और महिला कामगारों के लिए पीरियड लीव को सभी राज्यों को नियम बनाने के आदेश वाली एक जनहित याचिका के रूप में डाली गई थी। सर्वोच्च अदालत का मानना है कि पीरियड लीव की महिलाओं के लिए अनिवार्यता महिलाओं के लिए लाभकारी हो सकती है। परंतु, इससे महिलाओं को निजी क्षेत्र में रोजगार मिलने में समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। यह बात हैरान नहीं माथे पर शिकन के रेखाएं खीचने वाली तो है। परंतु क्या यह भी सच्चाई नहीं है कि पीरियड के दौरन महिलाओं और छात्राओं को कई तरह के शारीरिक और मानसिक तनाव-कठिनाईयों से गुजरना पड़ता है। फिर यदि कानूनी धाराओं में 1961 का अधिनियम महिलाओं से जुड़ी समस्याओं के लिए विस्तार से प्रावधान करता है, तब महिलाओं को यह अधिकार क्यों नहीं मिलना चाहिए।
यह बहुत ही अजीब बिडवना के तरह है कि सरकार का मातृत्व अवकाश अधिनियम के तहत कानून कामकाजी महिलाओं के मातृत्व का सम्मान करता है। परंतु, उस मातृत्व को लेकर जो नैचुरल समस्याएं है उससे राहत देने से मुंह चुराता है। जबकि मूल सत्य तो यह भी है कि देश में महिलाओं के मातृत्व लाभ का कानून समान तरीके से हर महिलाओं के लिए लाभकारी सिद्ध नहीं हो पा रही है।
बेशक, बिहार राज्य इस मामले मे किसी मिसाल से कम नहीं है, जहां दशकों से महिलाओं को पीरियड लीव का अधिकार मिला हुआ है और धीरे-धीरे महिलाओं की भागीदारी पंचायत से लेकर हर सार्वजनिक क्षेत्र में बढ़ रही है। बिहार के तरह, अन्य राज्य भी पीरियड लीव के विषय पर मिसाल पेश करे तो महिलाएं एक इकाई के तरह राष्ट्र के लिए श्रम में महत्वपूर्ण भागीदारी कर सकती है। बेशक महिलाओं को उनके तकलीफ के दिनों में राहत मिलनी चाहिए जिससे उनकी उत्पादन क्षमता प्रभावित न हो। महिलाओं को पीरियड लीव के अधिकार के लिए सरकार और सर्वोच्च अदालत के साथ लंबे संघर्ष की आवश्यकता है क्योंकि मंजिल अभी दूर है। इस रात की सुबह के लिए संघर्ष के पथ को मजबूत करने की आवश्यकता है। साथ ही साथ जनसमान्य को इस विषय पर संवेदनशील और जागरूक बनाने की आवश्यकता है।यही नहीं, सेनटरी पैड के इस्तेमाल या अन्य विकल्प जो उपलब्ध है उसके बारे में भी लोगों को जागरुक बनाए जाने की जरूरत है, हम सब जानते है भारत में सेनटरी पैड या अन्य विकल्प तक महिलाओं की पहुंच बहुत सीमित तो है ही, इस विषय पर एक नहीं कई तरह के टैबूज़ महिलाओं की गतिशीलता को बाधित करते है।