Thursday, November 14
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लघु-कथा

मन का मनका फेर

बनारस के किसी मोहल्ले में एक पंडित जी और एक मुल्ला जी रहा करते थे। दोनों में बड़ी गहरी मित्रता थी। दोनों अपने-अपने धर्म के महान विद्वान भी थे। अक्सर दोनों एक-दूसरे से धर्म पर चर्चा करते थे, जिसको आस-पड़ोस के लोग मोहल्ले वाले ध्यान से सुनते और सराहा करते। अक्सर दोनों एक-दूसरे से सहमत हुआ करते थे। परंतु, एक बार माला फेरने को लेकर दोनों के विवाद हो गया। पंडितजी, अपने धर्मग्रंथो के अनुसार सीधी माला फेरते थे और मुल्लाजी इस्लाम के अनुसार उल्टी माला फेरा करते थे। दोनों एक-दूसरे के माला फेरने के तरीके को गलत बताते और झगड़ पड़ते थे।

एक दिन इसीबात पर दोनों बहस कर रहे थे तभी कबीरदास वहां से टहलते हुए निकल रहे थे। थोड़ी देर ठहरकर उन्होंने दोनों का विवाद सुना और जोर से हंस पड़े। ”क्यों, कबीर मेरे बात पर क्यों हंस?“, पंडित बोला।

कबीर मुस्कुराए फिर बोले, ”माला फेरत जुग गया गया न मन का फेर। कर का मनका डाल दे, मन का मनका फेर“

जरा समाझाकर बताइए, कबीरदास जी

”अरे भाई“, कबीरदास जी ने समझाते हुए बोला, ”तुम दोनों के माला फेरने का दंग एक ही है। पंडित जी सीधी माला फेरते हैं, जिसका अर्थ है सारे सद्गुणों को अपने अंदर आत्मसात करना और उल्टी माला फेरने का अर्थ है अपने सारे अवगुणों का अपने घट रूपी शरीर से उलटकर बाहर निकाल देना। दोनों का उद्देश्य एक ही है पर ढ़ंग अलग-अलग है, इसलिए अभी तुम माला फेरने से पहले अपने मन को फेरों तभी विवाद मिटेगा।“ सुनकर दोनों कबीरदास जी के सामने नतमस्तक हो गये।

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