हिंदू, मुसलमान, ईसाई और पारसियों में महिलाओं से जुड़े हर पारंपरिक प्रावधान एक-दूसरे से ख़ासे अगल हैं। इस आधार पर कोई समान कानून बनाया ही नहीं जा सकता है। इसका एक संभव विकल्प यही है कि इन भिन्नताओं से परे जाकर, जेंडर-समानता के संवैधानिक सिद्धांतों के आधार पर एक स्वतंत्र और सेकुलर कानून बनाया जाए जो मौजूदा पारंपरिक या सामुदायिक प्रावधान से परे हो। चूंकि समान नागरिक संहिता का सवाल देश के हर सम्प्रदायों के महिलाओं से जुड़ा हुआ है इसलिए वही एक दिन इस किले को भेद सकती है। जिसके लिए महिलाओं को व्यापक आंदोलन की आवश्यकता है वह बदलाव न ही सुप्रीम कोर्ट के फैसले से संभव है न ही संसद के किसी कानून से, न ही किसी भी राजनीतिक दल के घोषणा-पत्र के वादों से।
भारतीय राजनीति में समान नागरिक संहिता का प्रश्न अपने शुरुआत से ही ज्चलंत रहा हैं। मौजूदा सरकार के मुस्लिम समुदाय के प्रचलित तीन तलाक पर कानून बन जाने के बाद से, समान नागरिक संहिता सार्वजनिक जीवन में तीखी बहसों का केंद्र फिर से बना हुआ है। समान नागरिक संहिता का इतिहास यही बताता है कि एक खास तरह के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मकसद से या फिर चुनावी राजनीति के समीकरणों के हिसाब से इसका दोहन हमेशा से होता रहा है। माना यहीं जाता है कि मुस्लिम समुदाय इसे अपने धार्मिक स्वतंत्रता में दखल मानता है, जबकि समान नागरिक संहिता का संसदीय इतिहास बताता है कि इसका विरोध हर धार्मिक समुदाय अपने धार्मिक स्वतंत्रता में दखल मानकर करती रही है।
संविधान सभा में समान नागरिक संहिता का इतिहास
संविधान सभा में हंसा मेहता जैसी महिला प्रतिनिधि और भीमराब आम्बेडकर जैसी हस्तियां इस बात के पक्ष में थे कि राज्य को पारिवारिक कानूनों में सक्रिय तरीके से संशोधन करना चाहिए।[i] यहां यह बात भी गौर करने लायक है कि समान नागरिक संहिता पर बहस आजादी के पहले के दशकों से ही शुरू हो चुकी थी। अक्सर, समान नागरिक संहिता के बहसों में मुस्लिम प्रतिरोध को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है। इसका कारण यह है कि समान संहिता के मुद्दे पर संविधान सभा के मुस्लिम सदस्यों का औसत तर्क यह था कि प्रस्तावित संहिता अनुच्छेद 19 के अंतर्गत प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करती है। समुदाय के निजी कानून उसने धर्म का अविभाज्य अंग रहे हैं, इसलिए समान नागरिक संहिता का प्रस्ताव अल्पसंख्यकों के अधिकारों और सामुदायिक सामंजस्य के लिहाज़ से नुकसानदेह होगा। उस दौर में प्रस्तावित कानून के शंकाओं को दूर करने के लिए कमेटी का गठन किया था, पर देश विभाजन के कारण अधिकांश मुस्लिम सदस्य पाकिस्तान चले गए और समान नागरिक संहिता के विरोध की घंटी मुस्लिम समुदाय के साथ चस्पा हो गई।
धर्म और निजी कानूनों पर विविध राय पर बाबा साहेब का नज़रिया सबसे अधिक स्पष्ट और महत्वपूर्ण था। उनका कहना था कि धर्म का न्यायिक अधिकार इतना व्यापक नहीं होना चाहिए कि वह सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र पर हावी हो जाए और विधायिका के कामकाज पर ही रास्ते का रोड़ा बन जाए। धर्म पर एक स्पष्ट मत होने के बाद भी आम्बेडकर हर समुदायों को आश्वस्त करना चाहते थे कि प्रस्तावित नागरिक संहिता किसी पर भी थोपी नहीं जाएगी।[ii]
समान नागरिक संहिता का मुद्धा केवल मुस्लिम महिलाओं के संदर्भ में जुड़ना, वास्तव में उन पूर्वाग्रहों पर मुक्केबाजी करता है जो जनसमान्य में सामान्य-बोध की तरह बैठ गया है। क्या यह संहिता सिर्फ मुसलमानों पर ही लागू होगी? क्या बहुसंख्यक हिंदू और बाकी अल्पसंख्यक समुदाय में इस मामले में अपनी सहमति प्रदान कर दी है? आखिर क्या कारण है कि इतने दशकों से चली आ रही बहस के बाद भी कोई स्पष्ट रूपरेखा नहीं है? जबकि इसके प्रति हिंदू संगठनों का रवैया भी विरोधपूर्ण था इस कानून के एकांगीपन को लेकर। हिंदू धर्म के रूढ़िवादी तत्वों को यह महिला अधिकारों की सुगबुगाहट के तौर पर लगी थी।[iii]
संविधान सभा से संसदीय राजनीति के सफर में समान नागरिक संहिता का क्रियान्वयन केवल इसलिए स्थगित रहा क्योंकि राष्ट्रीय नेतृत्व कई धार्मिक भावनाओं का ख्याल रखना चाहती थी। इसका एक अन्य पहलू यह भी है कि तत्कालिन राजनीतिक नेतृत्व हिंदू समुदाय की प्रतिक्रिया से ज्यादा भयभीत था, पर ठीकरा मुस्लिम समुदाय के माथे पर फोंड़ा गया।
कौन क्या चाहता है?
संविधान सभा के बहसों से निकलकर, जब आज के मौजूदा समय में समान नागरिक संहिता के बहसों को देखते है तो एक साथ कई सवाल यक्ष प्रश्न के तरह खड़े हो रहे है, जिसके जवाब खोजना जरूरी हो जाता है। पहला, क्या एक बहु-धार्मिक आस्था रखने वाले समाज को किसी सर्वमान्य कानून के लिए तैयार किया जा सकता है? दूसरा, क्या समान नागरिक संहिता के विभिन्न समुदाओं के प्रचलित मान्यताओं का सतरंगा कानून होगा या उसे एक ही कानून से परिभाषित किया जाएगा? तीसरा, सदियों से अपने परंपरागत कानून में आस्था रखने वाला समाज, उसे छोड़ने के लिए राजी हो जाएगा? चौथा, इतनी बड़ी जनसंख्या के आस्था के सवाल को एक सही कानून देश के विविधताओं को बचाए रखेगा? पांचवा, क्या भारतीय समाज जो रूढ़ियों, रिवाजों और विभिन्न परंपराओं में बंधा हुआ है, एक कानून बनाए जाने के बहसों के लिए तैयार है? छठा, क्या समान नागरिक संहिता, महिला अधिकारों के मामले में सामुदायिक कानूनों से ज्यादा समावेशी और न्यायपूर्ण रहेगी, यह सवाल पूरे देश के आधी आबादी के अस्तित्व से भी जुड़ा हुआ है? इस सवाल के साथ यह संदर्भ भी जुड़ा हुआ है कि भारत में विभिन्न धार्मिक समुदायों के कानून जेंडर से संबंधित प्रश्नों का हल किस तरह से करते रहे है? और अन्य कई।
जाहिर है एक साथ कई उठ रहे सवालों ने समान नागरिक संहिता कानून से उसके प्रगतिशील का प्रतीक समझी जाने वाली दलील को धुंधला कर उसे सांम्प्रदायिक कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया। मौजूदा दौर में समान नागरिक संहिता अल्पसंख्यकों को चिढ़ाने और उनके मन में धर्म-परिवर्तन की दहशत पैदा करने का औजार बनकर रह गया है। अब प्रगतिशील संगठन, पार्टियों और नागरिकों ने भी इस कानून को करीब-करीब छोड़ दिया है। भले ही संविधान के अनुच्छेद 44 में यह दर्ज है कि राज्य के सामने एक धर्मनिरपेक्ष व समाजवादी समाज का लक्ष्य था। यहीं नहीं राज्य के सामने आधुनिक व समतामूलक आदर्श भी कभी रखा गया था।
यह बात अब इतिहास के किताबों में ही अच्छी लगती है कि महात्मा गांधी और बाबा साहेब छुआछूत और सामाजिक बुराईयों के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे। तब मुस्लिम समाज में कायदे-आजम जैसे लोग भी सुधार की पहल कर रहे थे। भौतिकवादी दर्शन वाले कम्युनिस्ट भी कबीर की खंझड़ी बजाना भी युग अनुरुप था। हर समाज के नायकों के विचारों में अंतर जरूर था परंतु एक दौर में समाज की दिशा एक तरह की थी। जो बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद से लगातार दिशा विमुख हो चुकी है। फिर सबसे बड़ा सवाल यही है कि किसके लिए समान नागरिक संहिता……
किसके लिए समान नागरिक संहिता
आज इस बात पर विचार करना अधिक जरूरी है कि समान नागरिक संहिता की जरूरत क्यों महसूस की जा रही है। हमारे संविधान निर्माताओं के सामने समान नागरिक संहिता का लक्ष्य विभिन्न सम्प्रदायों में उठने वाली सुधार आंदोलनों की उपलब्धियों को एक समझौते का रूप देना था। स्वाधीनता संघर्ष की समतावादी लहर पर सवार संविधान निर्माताओं को विश्वास था कि हर सम्प्रदाय के भीतर से स्त्री-पुरुषों की बराबर के लिए वे अन्यायपूण समाजिक संस्थाओं को खत्म करने के खातिर सुधारवादी आंदोलन निकलेंगे और उनकी उपलब्धियों के स्मारक बनाने के लिए समान नागरिक संहिता की जरूरत होगी। लेकिन धीरे-धीरे इस व्यवस्था में व्यापक समाज के लिए विकास की सम्भावनाएं समाप्त हो चुकी है। आज हमें यह भी समझने की आवश्यकता है कि किसी भी पारंपरिक समाज में बदलाव न तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले से संभव है न ही संसद के कानून से, इसके लिए समाज में व्यापक आंदोलन की आवश्यकता है। गौर करनेवाली बात यह है कि समाज में स्त्री-पुरुष असमानता से न केवल बहुसंख्यक हिंदू समाज के साथ मुस्लिम और अन्य अल्पसंख्यक समाज भी ग्रस्त है। हर समाज में महिला के सम्पति का अधिकार पिता और पति के सम्पति अधिकार में महज एक कानूनी कल्पना बनकर रह गई है। व्यापक समाज स्त्री-पुरुष में समानता के कानून बनने के बाद भी इस अधिकार को स्वीकार्य करने को तैयार नहीं है। क्या व्यापक समाज संविधान में वर्णित स्वतंत्रता और समानता के सिद्धांतों को अंगीकार करता है, जाहिर है जबाब नहीं होगा। इस स्थिति में बहुसंख्यक समाज के पास अल्पसंख्यक समाज के सामने प्रेरणा देने के लिए क्या है? सिर्फ कानून को प्रेरक तत्व मानना गलत होगा, क्योंकि प्रेरणा हमेशा ही मानव के गतिशील आवरण से मिलती है, जड़ चीजों से नहीं। अगर अलपसंख्यक समाज में के भीतर से बिना किसी मांग के स्त्री-पुरुष संबंधों को नया आयाम देने वाले कानून पास भी कर दिया जाए, तो होगा यहीं वह बेअसर सिद्ध होगा साथ ही साथ साम्प्रदायिक तनाव बढ़ेगा।
मौजूदा समय में समान नागरिक संहिता वह शिगूफ़ा है जिसका फायदा रूढ़िवादी ताकतों को मिलता है। इसे हमेशा विशेष मैरेज एक्ट जैसे नागरिक कानून को मज़बूर और लोकप्रिय करने का काम किया जाता है जबकि वह भी सही तरीके से लागू नहीं हो पाता है। सिर्फ मुस्लिम समुदाय से जोड़कर देखना उस विचार को धराशाह कर देता है कि समान नागरिक सांहिता का विचार धर्म से कोई वास्ता नहीं रखता।
[i] क्रिस्तांफ़ जैफ्रलां (2003), “आम्बेडकर एंड द यूनिफार्म सिविल कोड” आउटलुक 14 अगस्त
[ii] अमूल्य गोपालकृष्णन(2017), “व्हाय इंडिया नीड्स अ सेकुलर कोड” टाइम्स न्यूज़ नेटवर्क, 4 सितंबर
[iii] नूरजहां साफ़िया और जाकिया सोमाण(2017), “लांज फांर वुमेन, नांट फांर मुस्लिम” द टाइम्स आंफ इंडिया, 9 सितंबर