“जनसंख्या की ज़िम्मेदारी भी दी, पर हक़ नहीं!”

जनसंख्या नीति के तमाम नीतिगत फैसले महिलाओं के गर्भ से होकर जाते हैं और उनको ही जनसंख्या नियंत्रण के फैसलों में शामिल नहीं किया जाता है।
बढ़ती हुई जनसंख्या को हमेशा से ही सरकारों ने संसाधनों पर ज्यादा बोझ की चुनौति के रूप में समझा हैं। “हम दो, हमारे दो”, “छोटा परिवार, सुखी परिवार” और आपातकाल के दौर में “हम दो, हमारा एक” का नारा चर्चित तो हुआ। परंतु, परिवार में महिलाओं को गर्भनिरोधन चुनने का अधिकार नहीं मिलने के कारण परिवार नियोजन जैसे कार्यक्रम सेमिनार और क्रान्फेंस का विषय बनकर रह गए।
अब तक की अधिकांश सरकारों को यह लगता है कि अगर वे परिवार नियोजन के साथ सख्त हुई तो लोगों के नाराज़गी का सामना करना पड़ेगा। हम जल्द ही जनसंख्या में पहले नम्बर के देश हो जाए, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
भारत में अब तक के सरकारों ने इस सच से हमेशा मुंह फेरने का काम किया है कि जनसंख्या नीति के तमाम नीतिगत फैसले महिलाओं के गर्भ से होकर जाते हैं और उनको ही जनसंख्या नियंत्रण के फैसलों में शामिल नहीं किया जाता है।
क्या है जनसंख्या नियंत्रण नीति?
जनसंख्या नियंत्रण को लेकर नई नीति में हमेशा की तरह पूरे बहस में महिलाओं के गर्भ का अधिकार बहस के बाहर खड़ा है।
जनसंख्या नियंत्रण नीति के अनुसार दो संतान से अधिक वाले परिवार को सरकारी योजनाओं और नौकरियों का लाभ नहीं मिलेगा। केंद्र सरकार ने इस तरह के कानून के बारे मे केद्र स्तर पर कोई सूचना जारी नहीं है पर जनसंख्या नियंत्रण नीति पर बहस जारी है।
मूल बहस यही है कि अधिक जनसंख्या के कारण तमाम संसाधनों का दोहन बढ़ गया है। जाहिर है बढ़ती जनसंख्या को मानव संसाधन के बतौर नहीं बल्कि संसाधनों पर संकट के तौर पर देखा जा रहा है।
तमाम राजनीतिक दलों से सबसे पहला सवाल तो यहीं पूछा जाना चाहिए कि जब बढ़ती जनसंख्या प्राकृतिक संसाधनों के लिए संकट है तो फिर आज तक राजनीतिक दल और धार्मिक प्रवक्त्ता महिलाओं को अधिक बच्चा पैदा करते देख चुप क्यों रहे? हमेशा इस तरह के बयान क्यों सुनने को मिलते हैं कि महिलाओं को अधिक बच्चे पैदा करने चाहिए?
जनसंख्या नियंत्रण नीति का महिला पक्ष
चाहे एक बच्चा पैदा करना हो या एक से अधिक, उसके लिए पहली अनिवार्यता तो किसी भी महिला का गर्भ ही है। फिर जनसंख्या नियंत्रण नीति के बहस पर महिलाओं के गर्भ के अधिकार पर बहस क्यों नहीं की जाती है?
यह घोर आश्चर्य में डालने वाला विषय है। किसी भी परिवार में संतान के रूप में पुत्र ही प्राप्त करने की चाह समाज में आज से नहीं वर्षों से चली आ रही है यह बात किसी से छुपी नहीं है। पुत्र-प्राप्ति की यहीं चाहत महिलाओं को उसके गर्भ पर कभी कोई अधिकार रखने कहां देती है?
औरत कोई भी हो, उसकी स्थिति कैसी भी क्यों हो। वह भले ही नौ माह बच्चे को गर्भ में पालती हो, पर उसे यह हक नहीं है कि वह बच्चा पैदा करे, इसका निर्णय वह स्वयं करे सके। पति और ससुराल के वंश के खातिर न जाने उसे अपने शरीर से कौन-कौन सी परीक्षाएं देनी पड़ती हैं।
वंश चलाने वाला न पैदा होकर लड़की पैदा हो गई तो खैर नहीं। लड़के की तमन्ना के साथ-साथ सामाजिक मान्यताओं का, जहां एक नहीं कई फिकरे चलते हैं, मसलन “बेटी मरे सुभागे की”, “दूधो नहाओ, पूतो फलो”, “हे ईश्वर मेरे यहां पुत्र और मेरे शत्रु के यहां पुत्रियां पैदा हों…”
जनसंख्या नियंत्रण के लिए शिक्षा है जरूरी

जनसंख्या नियंत्रण के लिए कोई भी नीति शिक्षित समाज में ही काम करती है। अशिक्षित समाज में इसके लिए समझदारी पैदा करना भैंस के आगे बीन बज़ाने सरीखा है। अशिक्षा के कारण समाज में फैले अंधविश्वास मसलन “बच्चे तो भगवान की देन हैं…”, जैसी मान्याताओं को अधिक बल देते हैं।
नेशनल फैमली हेल्थ सर्वे ने अशिक्षा और बच्चों के जन्म में गहरे संबंध को रेखांकित करते हुए बताया है कि अशिक्षा के कारण 52 प्रतिशत महिलाएं गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल तो दूर उसके बारे में जानती तक नहीं हैं। एक अध्ययन के अनुसार कमोबेश 60 फीसदी महिलाएं गर्भनिरोधकों के बारे में नहीं जानती हैं।
शिक्षित महिलाएं में एक बड़ी संख्या उन महिलाओं का है जो शर्मिंदगी के कारण गर्भनिरोधकों के बारे में न ही बात कर पाती हैं या फिर उनको सहज़ता से उपलब्ध नहीं हो पाता है। यह साबित करता है कि अगर महिलाएं शिक्षित हों और गर्भधारण के अधिकार के प्रति सज़ग हो तो जनसंख्या नियंत्रण के कार्यक्रम कारगर हो सकते हैं।
पुरुषों को भी निभानी होगी जिम्मेदारी
जनसंख्या नियंत्रण के किसी भी कार्यक्रम में चाहे वह नीतिगत स्तर पर हो या परिवार के स्तर पर, पुरुषों की समझदारी और भागीदारी के अभाव में इसको कभी पूरा ही नहीं किया जा सकता है।
अगर पुरुष नसबंदी, परिवार नियोजन या अपनी जीवन संगनी तक गर्भनिरोधक जैसी चीजों की पहुंच आसान कर दें, तब पति-पत्नी के साझी जिम्मेदारी से जनसंख्या नियंत्रण के कार्यक्रमों को प्रभावी किया जा सकता है।
जो भी संगठन या सरकार जनसंख्या नियंत्रण के नीतियों को लागू करना चाहती है अगर वह पुरुषों को जागरूक करे, यह समझाएं कि कैसे छोटा परिवार रखकर सही मायने में वह परिवार की भलाई कर सकते हैं, तब जनसंख्या नियंत्रण के नीतियों को कागजों से जमीन पर उतारा जा सकता है। यह इसलिए भी जरूरी है कि परिवार के निमार्ण में पत्नी के साथ-साथ पति की भूमिका और जिम्मेदारी दोनों ही महत्वपूर्ण हैं।

मेरी कलम मेरे जज़्बात लिखती है, जो अपनी आवाज़ नहीं उठा पाते, उनके अल्फाज़ लिखती है। Received UNFPA-Laadli Media and Advertising Award For Gender Senstivity -2020 Presently associated with THIP- The Healthy Indian Project.