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आदतें बदली हैं, हम नहीं: डिजिटल युग में भी ज़िंदा है किताबों का प्रेम

“किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से,
बड़ी हसरत से तकती हैं।
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं,
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं,
अक्सर गुजर जाती हैं अब कंप्यूटर की स्क्रीन पर।”

गुलज़ार साहब ने इस नज़्म में किताबों की बेबसी को बेहद सटीकता और भावुकता के साथ व्यक्त किया है। हालांकि, उनका यह अंदाज़-ए-बयां वर्ल्ड कल्चर स्कोर इंडेक्स की रिपोर्ट से मेल नहीं खाता। इस इंडेक्स के अनुसार, भारत दुनिया में सबसे ज़्यादा किताबें पढ़ने वाले देशों में अग्रणी है।

एक औसत भारतीय हर हफ्ते 10 घंटे 24 मिनट पढ़ने में बिताता है, जबकि थाईलैंड में यह आंकड़ा 9 घंटे, चीन में 8 घंटे, फिलीपींस में 7 घंटे और अमेरिका में मात्र 5 घंटे है। डिजिटल युग में भी हमने पढ़ने के सुख को अपनाए रखा है — यह हमारी एक सांस्कृतिक उपलब्धि है।

किताबें अब भी बड़े पैमाने पर छप रही हैं; जनसंख्या और साक्षरता दर दोनों में वृद्धि हुई है। हालांकि, पढ़ने का माध्यम ज़रूर बदला है। ई-बुक्स और पीडीएफ़ जैसी डिजिटल फॉर्मेट ने पारंपरिक पढ़ने के अनुभव को बदल दिया है।

पहले जहाँ किताबें माँगकर पढ़ी जाती थीं और लौटाई जाती थीं, अब उन्हें व्हाट्सऐप, मेल या लिंक के ज़रिए साझा किया जाता है। भले ही किताबें मांगने के बहाने मिलने-मिलाने का दौर भी अब सोशल मीडिया पर आभासी सा बन गया है।  डिजिटल संस्कृति ने कागज़ की सोंधी ख़ुशबू को स्क्रीन की ठंडी रोशनी में बदल दिया है।

छपी हुई किताबों का जो स्पर्श एक खास भावनात्मक अनुभव देता था, वह अब धीरे-धीरे खोता जा रहा है। पसंदीदा किताबों को सहेजने और संजोने की परंपरा भी कमज़ोर पड़ गई है। अब जानकारी के लिए लोग किताबों की बजाय गूगल, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ऐप्स और डिजिटल टूल्स पर निर्भर हो गए हैं।

कहना उचित होगा कि पढ़ने का परिवेश बदल गया है — लेकिन पढ़ने की आदत नहीं। क्योंकि किताबें केवल इस दुनिया का हिस्सा नहीं, बल्कि वह उस कल्पनालोक का निर्माण भी करती हैं, जिसमें यथार्थ से कहीं ज़्यादा रंग भरे होते हैं।23 अप्रैल को विश्व पुस्तक एवं कॉपीराइट दिवस के अवसर पर यह विचार करना जरूरी है कि कैसे किताबों की यह अनूठी दुनिया समय के साथ बदलते हुए भी, हमारे मन में स्थायी स्थान बनाए हुए है।

किताबें जिनके अंदर झांकता है सपना

किताबें वो खिड़कियाँ हैं, जिनसे हम सपनों में झाँकते हैं। वे अतीत से सीख लेकर हमें भविष्य की राह दिखाती हैं और हमारे भीतर रचना, सोच और कल्पना की एक पूरी दुनिया गढ़ती हैं। डिजिटल युग की तमाम तकनीकी आँधियों के बावजूद, किताबों ने अब भी अपने पाठकों के दिल में एक खास जगह बनाए रखी है।

इसी अद्भुत शक्ति और महत्व को पहचानते हुए, हर साल 23 अप्रैल को विश्व पुस्तक दिवस मनाया जाता है। इस दिन का उद्देश्य केवल पढ़ने की आदत को प्रोत्साहित करना नहीं है, बल्कि इसके साथ-साथ लेखकों को श्रद्धांजलि देना, कॉपीराइट के माध्यम से बौद्धिक संपदा की सुरक्षा करना और पुस्तकों के सांस्कृतिक महत्व को प्रचारित करना भी है।

विश्व पुस्तक दिवस की शुरुआत पेरिस में, वर्ष 1995 में, यूनेस्को द्वारा की गई थी। तब से यह दिन विश्व भर में पुस्तकों और लेखन की दुनिया को सम्मान देने के रूप में मनाया जाता है।

आदतें बदली हैं हम नहीं

जैसे-जैसे समय बदला है, हमारी ज़रूरतें भी बदलती गई हैं। इंटरनेट और मोबाइल ने दुनिया को हमारी मुट्ठी में ला दिया है। यह परिवर्तन पुस्तक प्रेमियों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है, क्योंकि आज जब भी कुछ पढ़ना या खोजना होता है, तो हम सबसे पहले गूगल सर्च करते हैं या किसी वेबसाइट पर जाकर पढ़ते हैं। यह न केवल हमारा समय बचाता है, बल्कि हमें ज़रूरी जानकारी भी जल्दी मिल जाती है।

डिजिटल दुनिया ने हमारा ध्यान केंद्रित करने की क्षमता को ज़रूर प्रभावित किया है—जो पहले 12 सेकंड थी, अब घटकर 8 सेकंड रह गई है—फिर भी किताबों को अपनी ज़रूरत के अनुसार ढूंढना, पढ़ना और पढ़ी हुई जानकारी को उपयोग बस में लाना कम नहीं हुआ है।

इससे यह स्पष्ट होता है कि हमने पढ़ने के तरीकों को बदला है, पर पढ़ने के शौक को नहीं। वह आज भी जीवित है। हम अब भी पढ़ने के आनंद से खुद को पूरी तरह वंचित नहीं कर पाए हैं। क्योंकि पढ़ना सिर्फ एक आदत नहीं, बल्कि आत्मा का भोजन है। चाहे माध्यम बदल जाए, लेकिन यह भूख आज भी उतनी ही प्रबल है जितनी पहले कभी थी।

खोया नहीं है पढ़ने का सुख

पढ़ने वालों की अपनी एक अलग ही जमात होती है। कुछ लोग किताबें खरीदकर पढ़ते हैं, तो कुछ लाइब्रेरी की सदस्यता लेकर अपने शौक को जिंदा रखते हैं।

कई बार दोस्त की लाइब्रेरी से यह कहकर किताब निकाल लेते हैं कि “पढ़कर लौटा दूँगा।” कुछ लोग सफर के दौरान पढ़ना पसंद करते हैं, जबकि कुछ सिर्फ समय काटने के लिए किताब उठाते हैं—जितनी देर खाली हैं, उतनी देर पढ़ लेते हैं। कुछ के पास पढ़ने का समय नहीं होता, फिर भी किताबें खरीदते हैं—इस सोच के साथ कि “कभी तो पढ़ लेंगे।” कुछ अपने विचारों की पुष्टि के लिए पढ़ते हैं, तो कुछ बस हड़बड़ी में पढ़ जाते हैं—पढ़ तो लेते हैं, लेकिन उस आनंद तक नहीं पहुँच पाते, जो पढ़ने के मूल में होता है।

असल में, पढ़ने का सुख भाषा का सुख है। यह तब ही महसूस होता है जब हम भाषा के प्रति संवेदनशील हों—या फिर जब हम खुद को पूरी तरह भाषा के हवाले कर दें। इन तमाम प्रकार के पाठकों में एक बात समान है: पढ़ने का सुख आज भी ज़िंदा है, डिजिटल दौर में भी वह कहीं खोया नहीं है। यह सबसे ज़रूरी बात है—कि किताबों को पढ़ने का आनंद आज भी मौजूद है।

बदला है माध्यम, न कि संदेश

किताबें आज भी सोचने, समझने, संवेदना और सृजन का ज़रिया हैं। पढ़ना भले ही एक निजी अनुभव हो, लेकिन उसके प्रभाव सामाजिक होते हैं—विचार जन्म लेते हैं, और समाज बदलता है।

डिजिटल युग में वेब और स्क्रीन-रीडिंग ने पढ़ने और स्वयं को अभिव्यक्त करने के तरीकों को नया रूप दिया है। अब लेखक डिजिटल मंचों से जुड़े हैं, उनका पाठक वर्ग व्यापक हुआ है, और लेखक-पाठक के बीच संवाद की प्रक्रिया पहले से कहीं अधिक गतिशील और पारदर्शी हो गई है।

डिजिटल माध्यम ने सिर्फ लेखन के स्वरूप को नहीं बदला, बल्कि पाठकों की सोच, पसंद और आदतों को भी रूपांतरित किया है। नए दौर के पाठक डिजिटल टेक्स्ट को अधिक ‘कूल’ मानते हैं—उन्हें स्क्रीन पर पढ़ना सुविधाजनक, त्वरित और आकर्षक लगता है। लेकिन अगर ध्यान से देखा जाए, तो स्पष्ट होता है कि बदलाव केवल माध्यम में आया है, संदेश अब भी वही है। विचार अब भी वही ऊर्जा, वही गहराई लिए हुए हैं—बस उनकी प्रस्तुति का तरीका बदला है

डिजिटल नवाचार खोल रहे हैं नए अवसर

डिजिटल नवाचार के इस दौर में, डिजिटल टेक्स्ट ने पाठकों और लेखकों के रिश्ते को एक नए तरीके से परिभाषित किया है। आज लेखक की मौजूदगी प्रिंट और डिजिटल दोनों माध्यमों में बढ़ रही है।

किताबों के पाठकों की संख्या भी बढ़ी है। जहाँ एक ओर पारंपरिक पाठक छपी हुई किताब को सहेजकर पढ़ने में आनंद महसूस करते हैं, वहीं नई पीढ़ी के लिए डिजिटल टेक्स्ट को पढ़ना, उसे मार्क करना और सोशल मीडिया पर साझा करना एक आधुनिक अनुभव है।

डिजिटल माध्यम ने पाठकों और लेखकों के बीच संवाद को आसान बना दिया है, जिससे दोनों के बीच एक भावनात्मक संबंध विकसित हो रहा है। हालांकि, डिजिटल कॉपीराइट को लेकर प्रकाशन जगत में कुछ अनिश्चितता और अव्यवस्था है, लेकिन लेखकों को अपने पाठकों से त्वरित प्रतिक्रिया मिलना एक बड़ी उपलब्धि है। डिजिटल टेक्स्ट का सोसल मीडिया पर उपलब्ध होना और पाठकों का पुस्तक पढ़ने में रुचि विकसित होना, कहीं न कहीं विश्व पुस्तक दिवस के उद्देश्यों को भी नये तरह से परिभाषित कर रहा है।

Pratyush Prashant

किसी भी व्यक्ति का परिचय शब्दों में ढले, समय के साथ संघर्षों से तपे-तपाये विचार ही दे देते है, जो उसके लिखने से ही अभिव्यक्त हो जाते है। सम्मान से जियो और लोगों को सम्मान के साथ जीने दो, स्वतंत्रता, समानता और बधुत्व, मानवता का सबसे बड़ा और जहीन धर्म है, मुझे पूरी उम्मीद है कि मैं अपने वर्तमान और भविष्य में भी इन चंद उसूलों के जीवन जी सकूंगा और मानवता के इस धर्म से कभी मुंह नहीं मोड़ पाऊगा।

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