क्योंकि होमियोपैथी असर रखती है

होमियोपैथी एक विवादास्पद लेकिन प्रभावी चिकित्सा पद्धति है। डॉ. हैनिमैन द्वारा विकसित इस चिकित्सा पद्धति के सिद्धांत, निर्माण प्रक्रिया और लाभों को विस्तार से जानें।
होमियोपैथी चिकित्सा को आमतौर पर एक घरेलू उपचार पद्धति के रूप में जाना जाता है। इसके जनक जर्मनी के प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. सैमुएल हैनिमैन थे। उन्होंने विभिन्न औषधियों के निर्माण की प्रक्रिया का गहन निरीक्षण कर इस पद्धति की नींव रखी।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान होमियोपैथी को पूर्णतः वैज्ञानिक नहीं मानता, फिर भी यह तथ्य अनदेखा नहीं किया जा सकता कि इस पद्धति की अपनी विशिष्ट कार्यप्रणाली है, जिससे करोड़ों रोगियों को लाभ हुआ है।
विषस्य विषमौषधम् — विष से विष का उपचार

रसायनों में अल्कोहल की उपस्थिति से उनकी औषधीय शक्ति को बढ़ाने की प्रक्रिया को “आसव निर्माण” कहा जाता है। डॉ. हैनिमैन ने इस प्रक्रिया का सूक्ष्म अध्ययन किया और पाया कि आसव में मूल पदार्थ के सभी गुण विद्यमान रहते हैं। इनका प्रयोग करने पर रोगियों को शीघ्र लाभ मिलता है।
डॉ. हैनिमैन ने आयुर्वेदिक भोज्य तत्वों का भी गहन अध्ययन कर उनके गुण-दोषों को समझा और ‘विषस्य विषमौषधम्’ के सिद्धांत पर आधारित होमियोपैथी को विकसित किया।
उदाहरण के रूप में जब हम प्याज छीलते हैं, तो उसकी तीव्र गंध से आंखों और नाक से पानी आने लगता है—यह लक्षण सर्दी-जुकाम के समान होते हैं। इसी सिद्धांत के अनुसार, प्याज का शक्तिकृत अर्क सर्दी-जुकाम की औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है।
इसी तरह सांप काटने पर, उसी प्रजाति के सर्पविष को नियंत्रित मात्रा में देकर इलाज किया जाता है। जब कांटा चुभता है, तो उसे किसी नुकीले औजार से ही निकाला जाता है। इससे सिद्ध होता है कि विष का इलाज विष से, कांटे का इलाज कांटे से, और जुकाम का इलाज प्याज के अर्क से संभव है।
सोरा, साइकोसिस और सिफिलिस — रोग की तीन श्रेणियां
मानव शरीर की रचना अत्यंत जटिल है। शरीर के सभी अंग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, जैसे कि मकड़ी का जाल। जब अंतःस्रावी ग्रंथियों के स्राव में असंतुलन उत्पन्न होता है, तो विभिन्न रोग जन्म लेते हैं।
डॉ. हैनिमैन ने सभी रोगों को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया—सोरा, साइकोसिस और सिफिलिस।उन्होंने रोग की पहचान में लक्षणों को प्रमुखता दी।
न केवल शारीरिक बल्कि आनुवंशिक, मानसिक और भावनात्मक लक्षणों को भी ध्यान में रखा जाता है—जैसे व्यक्ति का स्वभाव, रंग, रूचि, बुद्धिमत्ता, भय, आहार की पसंद और दिमाग की प्रवृत्तियां (पढ़ाई, नृत्य, चित्रकला आदि)। रोग की केस हिस्ट्री का विश्लेषण कर औषधि चयन किया जाता है, जिसमें उत्प्रेरक औषधि, प्रतिरोधी दवा, एंटीडोट, और औषधि की सक्रियता की अवधि को ध्यान में रखा जाता है।
औषधि निर्माण की पद्धति

डॉ. हैनिमैन ने यह निष्कर्ष निकाला कि किसी औषधि के मूल अर्क में अल्कोहल की मात्रा बढ़ाकर, उसे शक्तिकृत किया जा सकता है। उन्होंने मूल अर्क के एक ड्राम में 9 ड्राम अल्कोहल मिलाकर उसे सौ बार झटका—जिससे वह ‘1C’ शक्ति की औषधि बनी। इसी क्रम में 2C, 3C, 4C, 30C, 200C आदि शक्तियों की औषधियों का निर्माण हुआ।
शुरुआत में होमियोपैथिक चिकित्सक स्वयं दवाइयां बनाते थे और रोगी की केस हिस्ट्री के आधार पर दवाएं देते थे। तीव्र रोगों (Acute) में निम्न शक्तियों, जबकि पुरानी बीमारियों (Chronic) में उच्च शक्तियों जैसे 30C और 200C का उपयोग किया जाता था।
होमियोपैथी के विशेषज्ञों ने न केवल पौधों के जड़, तना, फूल, फल, बीजों से दवाएं बनाई, बल्कि 12 प्रकार के धात्विक लवणों और जीव-जंतुओं के ग्रंथियों से प्राप्त औषधियों को भी अपनाया।
इस चिकित्सा पद्धति के अद्भुत प्रभाव को देखते हुए डॉ. विलियम बोरिक, केंट, मिलर, ऐलेन, नैश, और हैरिंग जैसे चिकित्सकों ने इसे आगे बढ़ाने में अपना जीवन समर्पित कर दिया।
डॉ. हैनिमैन की लिखी पुस्तक “ऑर्गेनन” को होमियोपैथी का धर्मग्रंथ माना गया है। इसके अध्ययन से इस पद्धति की मूल अवधारणा स्पष्ट होती है और बाद में कई विशेषज्ञों ने इसका अनुवाद विभिन्न भाषाओं में किया।

लेखक वनस्पति विज्ञान के प्राध्यापक रह चुके है। संप्रति होम्योपैथी चिकित्सा-पद्धति के जरिए लोगों की सेवा। नई दिल्ली और मुबंई निवास