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फुले’ फिल्म रिव्यू: महात्मा ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले के संघर्ष की एक प्रेरणादायक कहानी

महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले केवल वंचित समाज ही नहीं, पूरे भारतीय समाज के लिए प्रेरणादायक व्यक्तित्व हैं — इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता। महात्मा फुले और सावित्रीबाई फुले के जीवन संघर्ष पर काफी कुछ लिखा और पढ़ा गया है।

हालांकि, उनके समग्र जीवन संघर्ष और चरित्र को दृश्य माध्यमों में पिरोने के प्रयास न के बराबर देखने को मिलते हैं। मेरे जेहन में केवल ‘भारत की खोज’ धारावाहिक के एक-दो एपिसोड ही हैं, जहां उनके संघर्ष और जीवन चरित्र को दूरदर्शन पर दिखाया गया था।

‘फुले’ फिल्म में अनंत महादेवन ने महात्मा फुले और सावित्रीबाई फुले के संपूर्ण जीवन को दो घंटे में प्रस्तुत करने का कार्य किया है, जिसके लिए उन्हें बधाई दी जानी चाहिए।बॉलीवुड में दलित संघर्षों की कहानियां अभी भी कम ही दिखाई जाती हैं। अधिकांश फिल्मों में हाशिये पर पड़े समुदायों को पीड़ित के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जिन्हें उच्च जातियों के ‘रक्षकों’ की दया और सुरक्षा की आवश्यकता होती है।

‘फुले’ फिल्म एक ऐतिहासिक संघर्षों से भरी कहानी है। लेकिन जब महात्मा फुले अपने एक संवाद में कहते हैं — “हमारा देश एक भावुक देश है, जहां धर्म और जाति के नाम पर लोगों को लड़ाना बहुत सरल है, और यह भविष्य में भी जारी रहेगा,” — तब पूरी फिल्म आज के सामाजिक यथार्थ से जुड़ जाती है।

यह संवाद तब और भी प्रासंगिक हो जाता है जब हम देश के पहले गर्ल्स स्कूल के संस्थापक को याद करते हैं और महसूस करते हैं कि आज भी ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’ जैसी मुहिम चलानी पड़ती है।

फिल्म का सबसे दिल छू लेने वाला दृश्य वह है, जब मृत्यु से कुछ दिन पहले ज्योतिराव फुले आकाश की ओर देखते हुए भगवान से पूछते हैं कि क्या उनके दरवाजे निचली जातियों के लिए खुलेंगे। वे बताते हैं कि कैसे उन्होंने अपने जीवन भर मंदिरों के दरवाजे अपने और अपने समुदाय के लिए बंद पाए।

‘फुले’ फिल्म केवल एक फिल्म नहीं, बल्कि हमारे इतिहास का दर्पण है, जहां फुले दंपत्ति ने महिलाओं तक शिक्षा, स्वतंत्रता और समानता जैसे अधिकार पहुंचाने के लिए संघर्ष ही नहीं किया, बल्कि अपमान और अनेक प्रकार की प्रताड़नाएं भी झेली थीं।

फुले’ की कहानी

1848 से 1897 के कालखंड में फैली यह फिल्म ज्योतिराव फुले (प्रतीक गांधी) और उनकी जीवनसंगिनी सावित्रीबाई फुले (पत्रलेखा) को श्रद्धांजलि है। फिल्म दर्शाती है कि कैसे फूलों की खेती करने वाले एक शूद्र परिवार में जन्मे ज्योतिराव फुले ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई के साथ मिलकर समाज की वर्ण व्यवस्था की जड़ें हिला दीं।

जहां उस समय 13 वर्ष की आयु में लड़कियों का विवाह कर उन्हें दूसरे घर भेजने की प्रथा थी, वहीं इस दंपत्ति ने बेटियों को शिक्षित करने का संकल्प लिया। इस मार्ग में उन्हें घरवालों और बाहरी समाज दोनों का विरोध सहना पड़ा—लाठियां खानी पड़ीं, अपमान झेलना पड़ा—फिर भी वे अपने उद्देश्य पर अडिग रहे।

फ्रांस की क्रांति से प्रेरित ज्योतिराव फुले ने समानता आधारित समाज के अपने सपने को साकार करने के लिए आजीवन संघर्ष किया, जिसमें उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले—देश की पहली महिला शिक्षिका—ने पूरी मजबूती से उनका साथ दिया।
फिल्म क्यों देखे

’फुले’ फिल्म क्यों देखे

‘फुले’ का जीवन सफर निश्चित रूप से अत्यंत प्रेरणादायक है, जिसे सह-लेखक और निर्देशक अनंत महादेवन ने सिलसिलेवार ढंग से पर्दे पर उतारने का प्रयास किया है। फुले की कहानी के बहाने वे कभी सामाजिक समरसता की पैरवी करते हैं, तो कभी पितृसत्तात्मक सोच पर प्रहार करते हैं।

हालांकि, वे उस स्तर की धार नहीं ला सके जो दर्शकों को भीतर तक झकझोर सके। कहानी कहने और प्रस्तुति के मामले में महादेवन निराश करते हैं। इसके बावजूद, प्रतीक गांधी संघर्ष की गंभीरता को इस रचनात्मक सपाटपन में भी गहराई के साथ उभारने में सफल रहे हैं।

अपने ऐतिहासिक महत्व के बावजूद, फिल्म व्यापक दर्शक वर्ग को आकर्षित करने में असफल रही। प्रतीक गांधी, ज्योतिराव फुले की भूमिका में पूरी सहजता और प्रामाणिकता से ढल गए हैं। संवाद अदायगी, हाव-भाव और शक्तिशाली भावनाओं के संप्रेषण में वे पूरी तरह खरे उतरते हैं।

निर्माताओं ने सावित्रीबाई फुले के आंदोलन में योगदान को प्रमुखता से दिखाया है, जिससे पत्रलेखा को भी एक मजबूत किरदार निभाने का अवसर मिला। फिल्म में उन्हें एक बेहद प्रभावशाली मोनोलॉग भी दिया गया है, जहां वे ब्राह्मणों से अंग्रेजों की भांति पदानुक्रम की मांग पर सवाल करती हैं, और इस प्रकार सत्ता में बैठे लोगों की राजनीति को उजागर करती हैं।

Pratyush Prashant

किसी भी व्यक्ति का परिचय शब्दों में ढले, समय के साथ संघर्षों से तपे-तपाये विचार ही दे देते है, जो उसके लिखने से ही अभिव्यक्त हो जाते है। सम्मान से जियो और लोगों को सम्मान के साथ जीने दो, स्वतंत्रता, समानता और बधुत्व, मानवता का सबसे बड़ा और जहीन धर्म है, मुझे पूरी उम्मीद है कि मैं अपने वर्तमान और भविष्य में भी इन चंद उसूलों के जीवन जी सकूंगा और मानवता के इस धर्म से कभी मुंह नहीं मोड़ पाऊगा।

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