सैनिटरी पैड को बनाएं हर घर की जरूरत

सैनिटरी पैड महिलाओं की मासिक जरूरतों का एक अनिवार्य हिस्सा हैं। यूनिसेफ के अनुसार, हर महीने दुनियाभर में लगभग 1.8 अरब महिलाएं माहवारी के दौर से गुजरती हैं। इसके बावजूद, बड़ी संख्या में महिलाएं आज भी अस्वच्छ विकल्पों का इस्तेमाल कर रही हैं। इसका एक प्रमुख कारण है—
सैनिटरी पैड की लगातार बढ़ती कीमतें, जिसके कारण यह अब भी गरीब और वंचित तबके की महिलाओं की पहुंच से बाहर है।
स्वच्छता उत्पादों के उपयोग में वृद्धि
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) के अनुसार, भारत में अब 78% महिलाएं पीरियड्स के दौरान स्वच्छ साधनों (जैसे घरेलू नैपकिन, सैनिटरी पैड, टैंपोन या मेंस्ट्रुअल कप) का उपयोग करती हैं। 15–24 आयु वर्ग की 64.4% महिलाएं सैनिटरी पैड का उपयोग करती हैं, जबकि 49.6% महिलाएं अब भी कपड़े, 15% महिलाएं स्थानीय रूप से बने नैपकिन, और केवल 0.3% महिलाएं मेंस्ट्रुअल कप का उपयोग कर रही हैं।
माहवारी स्वच्छता अभियान को सफल बनाने के लिए महिलाओं को स्वच्छ विकल्प अपनाने के लिए प्रेरित करना आवश्यक है। इसके लिए निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान देना होगा:
मांग और आपूर्ति का संतुलन जरूरी
सैनिटरी पैड की कीमतें कम करने के लिए उसकी मांग में वृद्धि आवश्यक है, जिससे उत्पादन बढ़ेगा और कीमतें स्वाभाविक रूप से घटेंगी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय की पूर्व अर्थशास्त्री और मानव विकास संस्थान, दिल्ली की विजिटिंग प्रोफेसर डॉ. निशा श्रीवास्तव के अनुसार:
“जब किसी वस्तु की मांग बढ़ती है, तो आमतौर पर उसकी कीमतें भी बढ़ती हैं। लेकिन यदि आपूर्ति भी उसी अनुपात में सुनिश्चित की जाए, तो कीमतों में गिरावट संभव है। सरकार निजी कंपनियों को सब्सिडी देकर और गैर-सरकारी संगठनों को फंड प्रदान कर इस संतुलन को स्थापित कर सकती है। इसके लिए सार्वजनिक फंड का इस्तेमाल किया जा सकता है।”
राशन योजनाओं में सैनिटरी पैड को करें शामिल

वुमेन स्टडीज़ के शोधकर्ता प्रत्यूष प्रशांत का मानना है कि हर स्त्री की इस बुनियादी आवश्यकता को राशन कार्ड योजनाओं से जोड़ा जाना चाहिए।
“राज्य सरकारों के पास जनगणना के आधार पर विस्तृत जनसांख्यिकीय डेटा उपलब्ध है। यदि परिवार के मासिक बजट की अन्य आवश्यक वस्तुओं के साथ सैनिटरी पैड को भी शामिल किया जाए, तो इसकी मांग और उत्पादन दोनों बढ़ेंगे और कीमतें कम होंगी।”
स्थानीय उत्पादन को बढ़ावा दें
‘मुहिम’ संस्था की प्रमुख स्वाति सिंह कहती हैं:
“केवल निजी कंपनियों के सहारे राष्ट्रीय स्तर पर मांग और आपूर्ति का संतुलन बनाना संभव नहीं है। सरकार को स्व-सहायता समूहों और स्टार्टअप्स को प्रोत्साहित करना चाहिए। साथ ही, महिलाओं को इस मासिक आवश्यकता के लिए स्वयं आर्थिक तैयारी करनी चाहिए। जब तक महिलाएं स्वयं आगे नहीं आएंगी, तब तक परिवर्तन मुश्किल होगा।”
पुरुषों की भागीदारी हो सुनिश्चित
जेएनयू में महिला अधिकारों पर शोधरत अंशु कुमार बताती हैं:
“माहवारी को लेकर सामाजिक और धार्मिक भ्रांतियों को दूर करना पहली आवश्यकता है। इस विषय को घर की सामान्य बातचीत का हिस्सा बनाना चाहिए। सैनिटरी पैड को घर में खुलकर रखें, ताकि परिवार के सभी सदस्य सहजता से इसे स्वीकार करना सीखें। पुरुषों की भागीदारी विशेष रूप से आवश्यक है, क्योंकि समाज में निर्णय लेने में उनकी भूमिका अधिक होती है।”

संदेश को सुदूर क्षेत्रों तक पहुंचाएं
25 वर्षों का अनुभव रखने वाले मार्केटिंग विशेषज्ञ आनंद माधव के अनुसार:
“नीतियों की सफलता के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति जरूरी है। इसके साथ ही, राज्य स्तर पर महिला केंद्रित विभागों की भी आवश्यकता है। जागरूकता बढ़ाने के लिए अभिनव प्रचार-प्रसार की रणनीतियां अपनानी होंगी। जैसे 2009-10 में बिहार में कंडोम को लेकर चलाए गए अभियान की तरह, सैनिटरी नैपकिन के प्रचार के लिए भी रचनात्मक आइडिया जरूरी हैं।”
प्रशांत का सुझाव है कि:
“गर्भनिरोधक या गर्भ जांच उत्पादों की तरह, सैनिटरी पैड के लिए भी होर्डिंग्स, पोस्टर, बैनर और रेडियो जिंगल्स का प्रयोग किया जाना चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में रेडियो आज भी एक सशक्त सूचना माध्यम है।”
क्या टीवी धारावाहिक महिलाओं की आवाज़ बन पाए हैं?
पूर्वाग्रह मुक्त नीति निर्माण की आवश्यकता
अब तक कई सरकारी योजनाएं और नीतियां बनाई गई हैं, लेकिन व्यावहारिक स्तर पर ये प्रभावी नहीं हो सकीं। इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि नीति-निर्माताओं की सोच अब भी पूरी तरह से पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं है, जिसके कारण योजनाएं लागू होकर भी अपेक्षित परिणाम नहीं दे पातीं।
कुछ महत्वपूर्ण आंकड़े
- राज्यवार अस्वच्छ साधनों का उपयोग: यूपी और असम में 69% महिलाएं अब भी कपड़े का उपयोग करती हैं, इसके बाद छत्तीसगढ़ व बिहार (68%), मध्य प्रदेश (65%) और मणिपुर (64%) का स्थान है।
- 2018 की पहल: अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर केंद्र सरकार ने ₹10 में 4 बायोडिग्रेडेबल पैड्स वाला पैक लॉन्च किया, लेकिन यह योजना अभी तक सही रूप से लागू नहीं हो पाई।
- शिक्षा और स्वच्छता का संबंध: 15–24 आयु वर्ग की 43.5% अशिक्षित महिलाएं स्वच्छ विकल्प अपनाती हैं, जबकि स्कूल जाने वाली 90.3% शिक्षित महिलाएं ऐसा करती हैं।
- आय और स्वच्छता का संबंध: उच्च आय वर्ग की 95.1% महिलाएं स्वच्छ विकल्प चुनती हैं, जबकि निम्न आय वर्ग की केवल 53.6%।
- कपड़े का उपयोग: निम्न आय वर्ग की महिलाएं तीन गुना अधिक कपड़े का उपयोग करती हैं (75% बनाम 23%)।
इससे स्पष्ट है कि शिक्षा और आर्थिक सशक्तिकरण के साथ ही सामाजिक टैबू को दूर करना माहवारी स्वच्छता की दिशा में ठोस कदम हो सकता है।
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16 वर्षों से लेखन एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय. देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लेखन का अनुभव; लाडली मीडिया अवॉर्ड, NFI फेलोशिप, REACH मीडिया फेलोशिप सहित कई अन्य सम्मान प्राप्त; अरिहंत, रत्ना सागर, पुस्तक महल आदि कई महत्वपूर्ण प्रकाशन संस्थानों सहित आठ वर्षों तक प्रभात खबर अखबार में बतौर सीनियर कॉपी राइटर कार्य अनुभव प्राप्त करने के बाद वर्तमान में फ्रीलांसर कार्यरत.