‘ग्राम चिकित्सालय’: एक झोलाछाप सिस्टम से टकराती उम्मीद की कहानी
‘पंचायत’ के निर्देशक की नई पेशकश — हास्य, यथार्थ और सामाजिक चेतना का गहरा मिश्रण

आमोल पाराशर की वेब सीरीज़ ‘ग्राम चिकित्सालय’ अब प्राइम वीडियो पर स्ट्रीम हो रही है। इसका निर्देशन ‘पंचायत’ के प्रसिद्ध निर्देशक दीपक कुमार मिश्रा ने किया है।
हालांकि ‘ग्राम चिकित्सालय’ और ‘पंचायत’ दोनों ही ग्रामीण भारत की पृष्ठभूमि पर आधारित हैं और दोनों का निर्देशन दीपक कुमार मिश्रा ने किया है, फिर भी इनकी कहानी और प्रस्तुति एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं।
‘ग्राम चिकित्सालय’ ग्रामीण चिकित्सा व्यवस्था की जटिलताओं और समस्याओं की परतें खोलती है—जैसे कि ग्रामीण अस्पतालों में भरोसे की कमी, दवाइयों की कालाबाज़ारी, इलाज से परहेज़, और झोलाछाप डॉक्टरों पर जनता का विश्वास।
यह सीरीज़ दिखाती है कि कैसे बिना योग्यता वाले चिकित्सक गांव में अपनी जगह बना लेते हैं, जबकि मानसिक बीमारियों से जूझ रहे लोग, जागरूकता की कमी के कारण इलाज तक नहीं पहुंच पाते।
आज जब हम बीमार पड़ते हैं, तो गूगल पर एमडी या एमबीबीएस डॉक्टर सर्च करते हैं और हेल्थ इंश्योरेंस के सहारे बड़े अस्पतालों में इलाज करवाते हैं। लेकिन देश के कई गांवों में आज भी ऐसे झोलाछाप डॉक्टर हैं जो अब गूगल से इलाज की जानकारी लेकर दवाएं देते हैं।
टीवीएफ एक बार फिर ऐसी कहानी लेकर आया है, जो पूरी तरह सच्ची लगती है। उनकी अन्य सीरीज़ की तरह इसमें भी न तो कोई लंबा भाषण है, न ही उपदेश देने की कोशिश।
फिर भी, हास्य के माध्यम से यह सीरीज़ गंभीर और गहरी बातें कह जाती है। इसे देखते हुए कभी हम हँसते हैं, तो कभी भावुक होकर आंखें नम हो जाती हैं—और यह सब इतनी सहजता से होता है कि पता ही नहीं चलता।
क्या है ‘ग्राम चिकित्सालय’ की कहानी?
यह कहानी झारखंड के एक काल्पनिक गांव भटकंडी की है, जहां झोलाछाप डॉक्टर चेतक (विनय पाठक) गांववालों का इलाज कर रहा है। इसी गांव में दिल्ली से आए गोल्ड मेडलिस्ट डॉक्टर प्रभात सिन्हा (आमोल पाराशर) की एंट्री होती है। प्रभात के पिता दिल्ली में एक बड़े अस्पताल के मालिक हैं, लेकिन प्रभात सबकुछ छोड़कर गांव में बदलाव लाना चाहता है।
हालांकि यह बदलाव आसान नहीं है — अस्पताल तो है, लेकिन वहां तक जाने के लिए सड़क ही नहीं है। प्रभात किसी तरह थाने की मदद से सड़क बनवाता है, लेकिन इसके बाद पता चलता है कि अस्पताल से दवाइयां और ज़रूरी उपकरण भी गायब हैं।
इन समस्याओं का समाधान करने के बाद, जब वह अस्पताल शुरू करता है, तब भी वहां कोई मरीज़ नहीं आता। गांववाले अब भी डॉक्टर चेतक पर ही भरोसा करते हैं।
अब सवाल उठता है: क्या प्रभात अपने फैसले पर पछताएगा, या गांववालों का भरोसा जीत पाएगा? ‘ग्राम चिकित्सालय’ की पहली बोहनी किसके नाम होगी—डॉक्टर चेतक की या डॉक्टर प्रभात की? यही इस सीरीज़ की मूल कहानी है।
निर्देशन और प्रस्तुति
निर्देशक दीपक कुमार मिश्रा ने गांव के परिवेश को बेहद वास्तविकता के साथ पेश किया है। उन्होंने इसे ‘पंचायत’ से अलग बनाने की कोशिश की है और इसमें काफी हद तक सफल भी रहे हैं। हालांकि भाषा और कुछ किरदारों की वजह से ‘पंचायत’ की झलक जरूर मिलती है।
लेखन की बात करें तो कुछ एपिसोड थोड़े खिंचे हुए लगते हैं, लेकिन कहानी से जुड़ाव बना रहता है।
क्यों देखें ‘ग्राम चिकित्सालय’?
‘ग्राम चिकित्सालय’ एक संवेदनशील, मनोरंजक और ज़रूरी सीरीज़ है। यदि आप ‘पंचायत’ जैसी कहानी की उम्मीद कर रहे हैं, तो यह थोड़ी अलग है। इसमें हास्य के साथ व्यंग्य की गहराई और सामाजिक यथार्थ की तीव्रता ज़्यादा है।
यह सीरीज़ दिखाती है कि आज भी गांवों में लोग डॉक्टर के बजाय नर्स, कंपाउंडर या केमिस्ट से दवाएं मांगते हैं। बीमार होने पर पहले नजर उतारते हैं, फिर इलाज की सोचते हैं। शहरी जीवन से दूर लोगों के लिए यह सीरीज़ आंखें खोलने वाली है।
यह कहानी सिर्फ ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था की खामियां नहीं दिखाती, बल्कि डॉक्टर प्रभात सिन्हा जैसे युवाओं को भी सामने लाती है—जो गोल्ड मेडलिस्ट होकर भी गांव में सेवा का सपना देखते हैं। यह उम्मीद जगाती है कि बदलाव संभव है।
सबसे असरदार पहलू
यह सीरीज़ एक डॉक्टर के पहले मरीज़ की कहानी है—जो पूरी सीरीज़ का सबसे भावुक और प्रभावशाली हिस्सा है। यह न केवल ग्रामीण मानसिक स्वास्थ्य की उपेक्षा को उजागर करती है, बल्कि सामाजिक चेतना की कमी को भी सतह पर लाती है।
ग्रामीण भारत को मानसिक बीमारियों से लड़ने के लिए अब भी लंबा सफर तय करना है, जिसकी शुरुआत तक नहीं हो पाई है।

किसी भी व्यक्ति का परिचय शब्दों में ढले, समय के साथ संघर्षों से तपे-तपाये विचार ही दे देते है, जो उसके लिखने से ही अभिव्यक्त हो जाते है। सम्मान से जियो और लोगों को सम्मान के साथ जीने दो, स्वतंत्रता, समानता और बधुत्व, मानवता का सबसे बड़ा और जहीन धर्म है, मुझे पूरी उम्मीद है कि मैं अपने वर्तमान और भविष्य में भी इन चंद उसूलों के जीवन जी सकूंगा और मानवता के इस धर्म से कभी मुंह नहीं मोड़ पाऊगा।