प्यासे होते जा रहे हैं महानगर
जल संकट की बढ़ती त्रासदी के बीच बेंगलुरु की कहानी, और क्यों हमें अब भी चेतने की आवश्यकता है।

हमें पूरे देश में समग्रता के साथ, दूरगामी लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए, सुनियोजित ढंग से नगरों, महानगरों और गांवों में जल आपूर्ति और प्रबंधन की व्यापक व्यवस्था के लिए अभी से तैयार हो जाना चाहिए। ताकि जल संकट का भयावह रूप हमें न देखना पड़े। अगर हमने केप टाउन से सबक नहीं लिया, तो कम से कम बेंगलुरु से ही कुछ सीख लें और मानवता के भविष्य की रक्षा करें।
महानगर केवल लोगों का जमावड़ा नहीं होते, न ही वे सिर्फ व्यापार, उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य और आधुनिकता के सूचकों का मात्र प्रदर्शन हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक महानगर, राष्ट्र की सामूहिक आकांक्षाओं और सपनों का सजीव प्रतिबिंब होता है, जो समय के साथ आकार और महत्व में बढ़ता है।
जितनी अपेक्षाएं इन महानगरों से समृद्धि की होती हैं, उतनी ही यह अपेक्षा भी होती है कि वे अपने नागरिकों के जीवन को सरल, सुविधाजनक और संतोषजनक बनाए रखें।
बेंगलुरु से सीखने की ज़रूरत
बेंगलुरु, कर्नाटक की राजधानी और दक्षिण भारत का सबसे बड़ा महानगर है। यह देश की तीसरी सबसे बड़ी आबादी वाला शहर भी है। इसकी रफ्तार में एक करोड़ से अधिक लोगों की धड़कनें शामिल हैं। व्यापारिक, वाणिज्यिक और आवासीय इमारतों से घिरा यह नगर विविध बाज़ारों और सुंदर उद्यानों से सजा हुआ है।
चौड़ी सड़कों और सेतुओं का जाल, आधुनिक परिवहन की उपलब्धता, वैश्विक व्यावसायिक संपर्क और तकनीकी वैभव के साथ यह शहर आज जल संकट के कारण त्रस्त है। भौतिक प्रगति भी इसे इस त्रासदी से नहीं बचा पा रही है।
देश के अन्य हिस्सों की तरह, बेंगलुरु में भी वर्षा की मात्रा लगातार घटती जा रही है। इसका प्रमुख कारण है—वनों की निरंतर कटाई और हरित क्षेत्र का सिकुड़ना। सभी इसे जानते हैं, पर रोकने के लिए कुछ नहीं किया जाता। पिछले मानसून में बारिश बेहद कम हुई थी और आगामी वर्षा के लिए भी अभी कम से कम तीन महीने का इंतजार करना पड़ेगा। यह भी निश्चित नहीं कि वह बारिश होगी भी या नहीं, और यदि होगी, तो धरती की प्यास बुझा पाएगी या नहीं।
यह प्राकृतिक नहीं मानचीय आपदा है
मानव ने प्रकृति के साथ जो खिलवाड़ किया है, वही आज का भविष्य बन गया है। भूजल के नवीनीकरण की सभी संभावनाओं पर सीमेंट बिछा दिया गया है और जंगलों को नष्ट कर दिया गया है। और जब जल संकट आता है, तो यह कहकर पल्ला झाड़ लिया जाता है कि “यह तो प्राकृतिक आपदा है।”
हकीकत यह है कि बेंगलुरु के समीपवर्ती नदियां—अरकेवती और वृषभावती—अब जलधारा नहीं, बल्कि कचरा-वाहक बन चुकी हैं। दूर स्थित कावेरी ही अब इस महानगर की अंतिम जल-संभावना बची हुई है।
स्थिति इतनी गंभीर है कि बेंगलुरु के कई क्षेत्रों में रोजाना नहीं, बल्कि एक दिन छोड़कर जल आपूर्ति हो रही है। जल के असंयमित उपयोग को अवैध घोषित कर दिया गया है ताकि बर्बादी को रोका जा सके।
बेंगलुरु जल आपूर्ति और सीवरेज बोर्ड के अनुसार, महानगर को प्रतिदिन लगभग 210 करोड़ लीटर पानी की आवश्यकता होती है, लेकिन कावेरी से केवल 145 करोड़ लीटर की ही आपूर्ति हो पा रही है। नगर निकाय इसे “प्राकृतिक आपदा” मानता है, जबकि यह दीर्घकालिक कुप्रबंधन और जल निकायों के विनाश का परिणाम है।
एक समय था जब बेंगलुरु में 262 झीलें थीं, लेकिन अब केवल 81 झीलें ही बची हैं। शेष को रियल एस्टेट के नाम पर पाटकर उन पर इमारतें बना दी गई हैं। सरकारी नीतियां ‘विकास’ की आड़ में सबसे जरूरी संसाधन—जल—को ही भूल गईं, जिसका परिणाम अब हमारे सामने है। बची हुई झीलें भी सूखने की कगार पर हैं। जैसे-जैसे कंक्रीट का जंगल बढ़ता जा रहा है, नदियों को नालों में बदला जा रहा है, भूजल पुनर्भरण के सभी साधनों का अंत किया जा रहा है। वह दिन दूर नहीं जब पूरी मानवता आर्थिक समृद्धि के बावजूद अकाल की चपेट में आ जाएगी।
दक्षिण अफ्रीका का केप टाउन इसका स्पष्ट उदाहरण है। 2014 से वहां जल संकट शुरू हुआ, पर लोगों ने दीर्घकालिक समाधान नहीं ढूंढ़े। तात्कालिक उपायों से काम चलाते रहे, और 2021 तक केप टाउन पूरी तरह जलविहीन हो गया। तमाम समृद्धि व्यर्थ साबित हुई और जनजीवन त्राहिमाम कर उठा।
बेंगलुरु उसी राह पर अग्रसर है। अब समय है कि हम तात्कालिक नहीं, बल्कि स्थायी और समग्र रणनीतियों पर ध्यान दें। पूरे देश में जल की योजनाबद्ध आपूर्ति और पुनर्भरण के लिए सुदृढ़ योजना बनानी होगी। अभी चेतने का समय है—बेंगलुरु की पुकार को सुनना ही होगा।
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देवाशीष प्रसून महिला एवं बाल विकास मंत्रालय में कंसल्टेंट के तौर पर अपनी भूमिका निभाई। ‘अहा! ज़िंदगी’ में असिसटेंट एडिटर रहे हैं। फिलहाल दरंभगा में रहते हैं और स्वतंत्र व्यवसाय कर रहे हैं