नज़ीर हुसैन: जिसे इतिहास ने भुला दिया,जिसने भोजपुरी सिनेमा को पहचान दी
ब्रिटिश सेना से बगावत, फांसी की सजा, फिर बॉलीवुड में पहचान—यह कहानी है उस कलाकार की, जिसे आज भी 'भोजपुरी का पितामह' कहा जाता है, लेकिन जिसने अपने योगदान का कभी उचित सम्मान नहीं पाया।

भोजपुरी सिनेमा की नींव रखने वाले नज़ीर हुसैन को एक समय अंग्रेजों ने फांसी की सजा सुनाई थी। लेकिन किस्मत और चतुराई के बल पर वह उनकी पकड़ से निकल गए, और आगे चलकर ‘भोजपुरी सिनेमा के पितामह’ के नाम से विख्यात हुए।
नज़ीर हुसैन का जन्म 15 मई 1922 को उत्तर प्रदेश के गाज़ीपुर ज़िले के उसिया गांव में हुआ था। उनके पिता, शहबज़ाद खान, रेलवे में गार्ड की नौकरी करते थे। पिता की सिफारिश पर नज़ीर को रेलवे में फायरमैन की सरकारी नौकरी मिल गई, लेकिन जल्द ही उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी और ब्रिटिश इंडियन आर्मी में भर्ती हो गए। तभी द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ गया।
अंग्रेजों ने भारतीय सैनिकों को भी युद्ध में झोंक दिया, और नज़ीर हुसैन को मलेशिया और सिंगापुर में तैनात किया गया। वहां भारतीय सैनिकों में ब्रिटिश अधिकारियों के प्रति असंतोष बढ़ने लगा। इस विरोध में नज़ीर भी शामिल हो गए। अंग्रेजों ने उन्हें और उनके साथियों को मलेशिया में बंदी बना लिया, लेकिन बाद में उन्हें रिहा कर दिया गया।
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आजाद हिंद फौज में भी शामिल हुए
भारत लौटने पर नज़ीर अंग्रेजी शासन से पूरी तरह निराश हो चुके थे। उन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में आज़ाद हिंद फौज जॉइन कर ली। चूंकि वे पढ़े-लिखे थे, नेताजी ने उन्हें प्रचार संबंधी लेखन का कार्य सौंपा। यह भूमिका निभाने के कारण वे अंग्रेजों की निगाह में खटकने लगे।
अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और दिल्ली के लाल किले में फांसी देने का फैसला किया। जब उन्हें दिल्ली ले जाया जा रहा था, उनके साथियों ने उस ट्रेन पर हमला कर दिया और उन्हें छुड़ा लिया। इस दौरान गाज़ीपुर में अफवाह फैल गई कि अंग्रेजों ने उनका एनकाउंटर कर दिया है। गांव में शोक छा गया और लोगों ने उन्हें शहीद मान लिया।
वास्तव में नज़ीर हुसैन हावड़ा जेल में बंद थे। एक बार जब उन्हें ट्रेन से दिल्ली ले जाया जा रहा था, उन्होंने चालाकी से एक अंग्रेज अफसर से कागज़ और पेन लिया, और अपने गांव वालों के नाम एक चिट्ठी लिखी। जब ट्रेन दिलदारनगर स्टेशन पर पहुंची, उन्होंने वह चिट्ठी स्टेशन पर फेंक दी। सौभाग्य से वह चिट्ठी उसी गांव के एक व्यक्ति को मिल गई, जिसने गांव पहुंचकर सभी को बताया कि नज़ीर जीवित हैं।
उन दिनों मीटर गेज की भाप से चलने वाली ट्रेनें हुआ करती थीं। जैसे ही गांव वालों को खबर मिली कि नज़ीर को दिल्ली ले जाया जा रहा है, कुछ लोग उन्हें छुड़ाने के लिए ट्रेन के पीछे भागे, लेकिन वे सफल नहीं हो सके।
राजेन्द्र प्रसाद के सलाह पर भोजपुरी सिनेमा की नींव रखी
कुछ महीनों बाद देश आज़ाद हुआ और सभी स्वतंत्रता सेनानियों को रिहा कर दिया गया। नज़ीर हुसैन भी आज़ाद हुए।
उन्होंने बी.एन. सरकार के साथ मिलकर नाटक लिखने का कार्य शुरू किया और अभिनय भी किया। एक नाटक में उनका अभिनय देखकर बिमल रॉय इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने 1950 में सुभाष चंद्र बोस पर बनी फिल्म पहला आदमी की कहानी लिखने का जिम्मा नज़ीर को सौंपा। इसके बाद नज़ीर ने अभिनय की दुनिया में कदम रखा और कई फिल्मों में सहायक भूमिकाएं निभाईं।
नज़ीर हुसैन भोजपुरी भाषा के अच्छे जानकार थे। जब वे भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद से मिले, तो राष्ट्रपति ने उनकी तारीफ की और भोजपुरी में फिल्म बनाने का सुझाव दिया। इस प्रेरणा से 1963 में उन्होंने पहली भोजपुरी फिल्म गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ाइबो बनाई। यही से भोजपुरी सिनेमा की यात्रा शुरू हुई और नज़ीर ने कई भोजपुरी फिल्मों का निर्माण व अभिनय किया। इस योगदान के चलते उन्हें ‘भोजपुरी सिनेमा का पितामह’ कहा गया।
लेकिन अफसोस की बात यह है कि 44 साल के फिल्मी करियर में 500 से अधिक हिंदी फिल्मों में अभिनय करने और भोजपुरी सिनेमा की नींव रखने वाले नज़ीर हुसैन को आज तक कोई बड़ा सम्मान या पुरस्कार नहीं मिला।
उनकी लोकप्रिय फिल्मों में ज्वेल थीफ, चरस, दो बीघा जमीन, देवदास, कश्मीर की कली, और राम और श्याम शामिल हैं। बावजूद इसके, वह धीरे-धीरे गुमनामी में खो गए।
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लेखक वनस्पति विज्ञान के प्राध्यापक रह चुके है। संप्रति होम्योपैथी चिकित्सा-पद्धति के जरिए लोगों की सेवा। नई दिल्ली और मुबंई निवास