
भारत में चाय केवल एक पेय नहीं, बल्कि एक संस्कृति है। सुबह की शुरुआत हो, ऑफिस की थकान हो, या मेहमानों की आवभगत — हर मौके पर चाय का नाम पहले आता है। लेकिन इस स्वाद के पीछे जो मेहनत छुपी होती है, खासकर महिलाओं की, वह अक्सर अनदेखी रह जाती है।
चाय बनाना एक ऐसा कार्य है जिसे समाज ने ‘स्वाभाविक महिला कर्तव्य’ मान लिया है — न इसे श्रम समझा जाता है, न उसका मूल्य आँका जाता है। यह लेख इसी अदृश्य श्रम की परतें खोलने का प्रयास है।
घरेलू काम और श्रम की अस्वीकृति
घर के भीतर किया गया अधिकांश कार्य महिलाओं द्वारा किया जाता है। चाय बनाना, नाश्ता तैयार करना, बर्तन धोना — इन सबको ‘काम’ नहीं, बल्कि ‘जिम्मेदारी’ या ‘प्रेम का प्रदर्शन’ मान लिया गया है। यही कारण है कि घरेलू श्रम को जीडीपी में शामिल नहीं किया जाता, और महिलाओं की मेहनत को ‘अवैतनिक सेवा’ मान लिया जाता है।
चाय बनाना इसका सबसे छोटा लेकिन सटीक उदाहरण है — दिन में कई बार चाय बनाना, अलग-अलग स्वाद और ज़ायके का ध्यान रखना, मेहमानों को परोसना, और फिर बर्तन धोना — ये सब श्रम की श्रेणी में आते हैं, लेकिन किसी ने इन्हें कभी गिना ही नहीं।
एक कप चाय = कई परतों वाला श्रम
1. शारीरिक श्रम:
चूल्हे पर खड़ा होकर दूध, पत्ती, चीनी, अदरक, मसाले का संतुलन बनाना।
2. मानसिक श्रम:
स्मरण शक्ति — किसे शक्कर कम चाहिए, किसे मसालेदार चाय पसंद है, कौन ब्लैक टी पीता है — यह याद रखना और उसी के अनुसार बनाना।
3. भावनात्मक श्रम:
चाय से घर के माहौल को आरामदायक बनाना, थके हुए पति, ऑफिस से लौटे बेटे, या परेशान सहेली के लिए चाय लाकर देना — यह ‘सेवा भाव’ भी एक प्रकार का भावनात्मक श्रम है।
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चाय और महिलाओं की सामाजिक भूमिका
चाय बनाना महिलाओं की ‘संस्कारी’ और ‘सेवाभावी’ छवि को और पुख्ता करता है। कई बार आपने सुना होगा — “इनके हाथ की चाय बड़ी स्वादिष्ट है”, “भाभी ने चाय पिलाई” — ये वाक्य स्त्रियों को सिर्फ परोसने और संवारने वाली भूमिका तक सीमित कर देते हैं।
यह भूमिका पीढ़ी दर पीढ़ी दोहराई जाती है, बच्चियों को जल्दी चाय बनाना सिखाया जाता है। लड़कियों की शादी के रिश्तों में ‘चाय कैसे बनाती है?’ यह पूछना सामान्य बात है। कामकाजी महिलाओं से भी अपेक्षा होती है कि वे ‘सबसे पहले चाय बना दें’।
चाय उत्पादन से विज्ञापन में भी महिला
भारत के असम, दार्जिलिंग, और तमिलनाडु जैसे चाय उत्पादक क्षेत्रों में भी महिलाएं चाय की पत्तियां तोड़ने से लेकर प्रोसेसिंग तक के कामों में लगी हैं। पर उन्हें कम वेतन, असुरक्षित कार्यस्थल और स्वास्थ्य जोखिमों से जूझना पड़ता है।
भारतीय चाय उद्योग में लगभग 50% से अधिक श्रम महिलाएं करती हैं, परंतु उनके पास निर्णय लेने की शक्ति या अधिकार नहीं होते। यानी चाय के हर स्तर पर महिलाएं हैं, परंतु पहचान और सम्मान नहीं।
विज्ञापन जगत ने भी इस सोच को बढ़ावा दिया है। ज्यादातर चाय के विज्ञापनों में महिला को रसोई में, ट्रे में चाय लेकर आती हुई, या पति को आराम देती हुई दिखाया गया है। इससे यह धारणा और गहराती है कि चाय परोसना महिलाओं का ही काम है।
मानसिकता में बदलाव की आवश्यकता
अगर हमें समाज में लैंगिक समानता लानी है, तो हमें घरेलू श्रम को मान्यता देनी होगी। चाय बनाना कोई स्वाभाविक स्त्री गुण नहीं, बल्कि एक समय, मेहनत और मानसिक श्रम से जुड़ा कार्य है।
हमें यह समझना होगा, एक कप चाय ‘प्यार’ का प्रतीक हो सकता है, पर उसमें श्रम भी छुपा है।पुरुषों को भी घरेलू कामों — खासकर चाय जैसे ‘रोज़मर्रा के छोटे कामों’ — में भागीदारी करनी चाहिए। सरकार और समाज को घरेलू महिला श्रमिकों को औपचारिक रूप से श्रमिक मानने की दिशा में कदम उठाना चाहिए।
आज जब हम हर सुबह एक कप चाय के साथ दिन की शुरुआत करते हैं, तो क्या हम उस स्त्री को याद करते हैं जिसने वह चाय बनाई? क्या हम उसकी मेहनत, उसकी भावनात्मक थकावट, और उसकी दिनचर्या की गिनती करते हैं?
हर बार जब कोई महिला बिना थके चाय परोसती है, वह केवल स्वाद नहीं दे रही — वह अपना समय, ऊर्जा, भावनाएं और अस्मिता दे रही है।

लेखक वनस्पति विज्ञान के प्राध्यापक रह चुके है। संप्रति होम्योपैथी चिकित्सा-पद्धति के जरिए लोगों की सेवा। नई दिल्ली और मुबंई निवास