
एक दौर था जब बाज़ार की कल्पना पुरुष उपभोक्ताओं के इर्द-गिर्द रची जाती थी। विज्ञापनों में पुरुषों की पसंद, आवश्यकताओं और पहचान को केंद्र में रखा जाता था। महिलाएं अगर दृश्य में होती भी थीं, तो प्रायः वे गृहिणी या सजावटी वस्तु की भूमिका में होतीं—खुद उपभोक्ता के रूप में नहीं, बल्कि एक माध्यम के रूप में। परंतु 21वीं सदी में यह तस्वीर तेजी से बदल रही है।
‘She-Economy’—एक ऐसा शब्द जो अब केवल एक मार्केटिंग टर्म नहीं, बल्कि एक सामाजिक और आर्थिक बदलाव का संकेत बन गया है। यह शब्द उस आर्थिक परिदृश्य को दर्शाता है जिसमें महिलाएं एक प्रमुख उपभोक्ता, निर्णायक और निर्माता के रूप में उभर रही हैं।
बदलती भूमिका: “उपभोक्ता नहीं, निर्णयकर्ता”
शहरी और अर्ध-शहरी भारत में महिलाएं अब केवल खरीददारी करने वाली नहीं हैं, वे पूरे परिवार की खरीद प्राथमिकताओं को तय करने वाली प्रमुख निर्णयकर्ता बन चुकी हैं। यह बदलाव केवल आर्थिक स्वतंत्रता से नहीं आया, बल्कि शिक्षा, तकनीक, और सामाजिक संरचनाओं में हो रहे परिवर्तन से भी उपजा है।
महिलाएं अब केवल घर के लिए डिटर्जेंट या राशन नहीं खरीद रही हैं, बल्कि वे कार, बीमा, रियल एस्टेट और इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों की खरीद में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।
सर्वेक्षणों के अनुसार, भारत में लगभग 85% घरेलू खरीद निर्णयों में महिलाएं शामिल होती हैं। यह भूमिका किसी एक वर्ग तक सीमित नहीं है; ग्रामीण भारत की महिलाओं में भी मोबाइल इंटरनेट, ई-कॉमर्स और माइक्रो-क्रेडिट स्कीम्स के ज़रिए खरीददारी की आदतें तेजी से बढ़ी हैं।
डिजिटल टेक्नोलॉजी और महिला उपभोक्ता
इंटरनेट और स्मार्टफोन की बढ़ती पहुंच ने महिलाओं को खरीददारी के नए मंच प्रदान किए हैं। पहले जो महिलाएं अपने घरों से बाहर खरीदारी करने से हिचकती थीं, वे अब ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर आत्मविश्वास के साथ ब्राउज़ करती हैं, तुलना करती हैं और निर्णय लेती हैं।
यह तकनीकी सशक्तिकरण दोहरापन लिए हुए है—एक ओर यह महिलाओं को विकल्प और सूचना की शक्ति देता है, वहीं दूसरी ओर यह उन्हें उपभोक्तावाद की एक नई दौड़ में धकेलता है।
“इंस्टाग्राम इन्फ्लुएंसर” संस्कृति ने फैशन, स्किनकेयर और जीवनशैली उत्पादों के प्रति महिलाओं की रुचि और आकांक्षा को बढ़ाया है, लेकिन इसके साथ ही आत्म-छवि और सामाजिक मानकों का बोझ भी डाला है।
बाज़ार की रणनीति: सशक्तिकरण या “पिंकवॉशिंग”?
जब बाज़ार ने महिला उपभोक्ताओं की बढ़ती शक्ति को पहचाना, तो विज्ञापन अभियानों की भाषा, छवियाँ और भावनाएँ भी बदलने लगीं। “Empowered Woman”, “Boss Lady” और “Strong is Beautiful” जैसे नारे सुनाई देने लगे। विज्ञापन अब महिलाओं को सिर्फ गृहिणी नहीं, बल्कि स्वतंत्र विचारों वाली, महत्वाकांक्षी और आत्मनिर्भर महिला के रूप में दिखाने लगे।
लेकिन इस बदलाव में कितना सच्चा सशक्तिकरण है और कितना बाज़ार का चालाकीपूर्ण “पिंकवॉशिंग”? यह सवाल महत्वपूर्ण है। अक्सर देखा गया है कि कंपनियां महिला सशक्तिकरण का नारा लगाकर अपने उत्पाद बेचती हैं, लेकिन उनके आंतरिक ढांचे में महिलाओं को समान वेतन, नेतृत्व में अवसर या कार्यस्थल की सुरक्षा नहीं दी जाती।
उदाहरण के लिए, एक कॉस्मेटिक ब्रांड “ब्यूटी विद ब्रेवरी” का दावा करता है, लेकिन उसी ब्रांड में महिला श्रमिकों को न्यूनतम वेतन और बुनियादी सुविधाओं से वंचित रखा जाता है। इस विरोधाभास को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
प्राथमिकताओं में बदलाव: सौंदर्य से परे
महिलाओं की खरीद प्राथमिकताओं को सिर्फ फैशन या सौंदर्य उत्पादों तक सीमित समझना अब भ्रामक है।
आज की महिलाएं स्वास्थ्य बीमा, निवेश योजनाएं, यात्रा पैकेज, ऑनलाइन शिक्षा और फिटनेस से जुड़ी सेवाओं में निवेश कर रही हैं। उनके लिए ‘ब्रांड वैल्यू’ से अधिक ‘ब्रांड एथिक्स’ मायने रखने लगे हैं।
वहीं, पर्यावरण और सामाजिक उत्तरदायित्व की जागरूकता ने महिलाओं को “सस्टेनेबल कंज़म्प्शन” की दिशा में प्रेरित किया है। यह देखा गया है कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक पर्यावरण-जागरूक खरीद निर्णय लेती हैं, चाहे वह प्लास्टिक मुक्त उत्पाद हों या लोकल वेंडर्स को प्राथमिकता देना हो।
हालांकि ‘She-Economy’ की चर्चा में अधिकतर ध्यान शहरी, उच्च शिक्षित और मध्यम वर्गीय महिलाओं पर केंद्रित है। ग्रामीण, दलित, आदिवासी, मुस्लिम और निम्न-आयवर्ग की महिलाओं के उपभोक्ता व्यवहार की सम्यक समझ अक्सर उपेक्षित रह जाती है।
बाज़ार अभी भी उन्हीं वर्गों की प्राथमिकताओं को ‘प्रोजेक्ट’ करता है जिनकी आर्थिक ताकत तुलनात्मक रूप से अधिक है। इससे यह भ्रम उत्पन्न होता है कि ‘महिला’ एक समान श्रेणी है, जबकि जमीनी सच्चाई कहीं अधिक विविधतापूर्ण है।
‘She-Economy’ का पुनर्पाठ
‘She-Economy’ का उत्सव मनाने से पहले एक नारीवादी विश्लेषण आवश्यक है। क्या एक महिला की स्वतंत्रता को अब केवल उसकी क्रय शक्ति से मापा जा रहा है? क्या बाज़ार महिलाओं को सिर्फ उपभोक्ता के रूप में देखता है, नागरिक या विचारशील मानव के रूप में नहीं?
जब महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होती हैं, तो यह निश्चित रूप से सकारात्मक है, लेकिन यदि यह आत्मनिर्भरता सिर्फ खर्च करने की क्षमता तक सीमित कर दी जाती है, तो यह सशक्तिकरण नहीं, बल्कि बाज़ार का नया शिकंजा है। एक और चिंता यह है कि बाज़ार के इस फोकस ने कई बार महिलाओं की वास्तविक जरूरतों — जैसे मातृत्व सुविधाएं, यौन हिंसा से सुरक्षा, समान वेतन और कार्यस्थल पर गरिमा — को नेपथ्य में डाल दिया है।
‘She-Economy’ को केवल एक आर्थिक प्रवृत्ति के रूप में नहीं, बल्कि एक सामाजिक परिवर्तन के रूप में देखना चाहिए। यह महिला उपभोक्ता की शक्ति का उत्सव है, परंतु यह भी स्वीकार करना होगा कि बाज़ार इस शक्ति को नियंत्रित करने और उससे लाभ उठाने की रणनीति भी बना रहा है।
हमें आवश्यकता है एक संतुलित दृष्टिकोण की—जो यह समझे कि महिला की भूमिका उपभोक्ता से परे भी है, और जो बाज़ार को जवाबदेह बनाए, न कि केवल “Empowerment” के आकर्षक नारे से संतुष्ट हो जाए।
अंततः, महिलाओं की आर्थिक भागीदारी तभी सार्थक होगी जब वह केवल वस्तुओं की खरीद तक सीमित न रहे, बल्कि नीतियों, उत्पादन और बाज़ार की संरचना को पुनर्परिभाषित करने में भी उनकी निर्णायक भूमिका हो।

किसी भी व्यक्ति का परिचय शब्दों में ढले, समय के साथ संघर्षों से तपे-तपाये विचार ही दे देते है, जो उसके लिखने से ही अभिव्यक्त हो जाते है। सम्मान से जियो और लोगों को सम्मान के साथ जीने दो, स्वतंत्रता, समानता और बधुत्व, मानवता का सबसे बड़ा और जहीन धर्म है, मुझे पूरी उम्मीद है कि मैं अपने वर्तमान और भविष्य में भी इन चंद उसूलों के जीवन जी सकूंगा और मानवता के इस धर्म से कभी मुंह नहीं मोड़ पाऊगा।