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बिहार में घटता लिंगानुपात: जब बेटियाँ आंकड़ों से भी गायब होने लगीं

बिहार में बेटियों के जन्म की दर लगातार घट रही है। यह समस्या न सिर्फ सामाजिक चेतना की कमी को दिखाती है, बल्कि राज्य की नीतिगत विफलताओं और सांस्कृतिक भेदभाव को भी उजागर करती है।

2023 में नागरिक पंजीकरण प्रणाली (CRS) की रिपोर्ट ने एक बार फिर देश के सामाजिक तानेबाने में छिपे लैंगिक भेदभाव को उजागर कर दिया। इस रिपोर्ट के अनुसार बिहार में प्रति 1000 लड़कों पर केवल 891 लड़कियाँ पैदा हुईं। यह आंकड़ा राष्ट्रीय औसत 943 से भी नीचे है।

इसका अर्थ सीधा-सा है — बिहार में बेटियाँ सिर्फ गिनती में नहीं घट रही हैं, वे समाज की स्मृति, गरिमा और भविष्य से भी ग़ायब होती जा रही हैं।

एक संख्या नहीं, एक सामाजिक त्रासदी

पहली नज़र में यह आंकड़ा एक तकनीकी विवरण भर लगता है — 13.8 लाख बेटियों की तुलना में 16.7 लाख बेटों का जन्म। लेकिन इन संख्याओं के पीछे छुपा हुआ है एक भयावह संदेश: बेटियाँ इस समाज में अब भी अवांछनीय हैं।

2020 में बिहार में लिंगानुपात 964 था, जो 2021 में 908, फिर 2022 में 893 और अब 2023 में 891 पर आ गिरा। यह कोई आकस्मिक गिरावट नहीं, बल्कि सांस्थानिक पितृसत्ता का प्रमाण है — वह व्यवस्था जो जन्म से पहले ही बेटी को मिटा देती है।

पितृसत्ता का गहरा डिजाइन

यह गिरावट केवल भ्रूण-हत्या की वजह से नहीं हो रही। यह उस गहरे पितृसत्तात्मक ढांचे की देन है जो लड़कियों को ‘पराया धन’, ‘दहेज का बोझ’, और ‘कमाऊ बेटे के विपरीत खर्चीला शरीर’ मानता है।

बिहार जैसे राज्यों में यह सोच महज़ निजी विचार नहीं, बल्कि एक सामाजिक ढांचा है। यह अस्पतालों, ग्राम पंचायतों, नर्सिंग होम्स और यहाँ तक कि स्कूल की किताबों में मौजूद है, जहाँ लड़के ‘उत्तराधिकारी’ और लड़कियाँ ‘पालनहार’ के रूप में प्रस्तुत की जाती हैं।

स्वास्थ्य संस्थान: व्यवस्था के भागीदार

देश में भ्रूण लिंग परीक्षण कानूनन अपराध है, फिर भी निजी क्लिनिकों में यह आज भी सक्रिय रूप से होता है। अफ़सोस की बात है कि स्वास्थ्य पेशेवर, जिन्हें जीवन रक्षक माना जाता है, वे खुद इस जन्म आधारित भेदभाव की साजिश में शामिल हैं।

बिहार में कई क्षेत्रों में यह परीक्षण ‘पैकेज डील’ की तरह पेश किया जाता है — लड़का हो तो रखें, लड़की हो तो गर्भपात करवा लें। यह वह जगह है जहाँ राज्य की जवाबदेही सबसे अधिक बनती है, लेकिन कार्रवाई सबसे कम दिखती है।

नीतियों की हकीकत: ‘बेटी बचाओ’ स्लोगन भर?

‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे अभियानों ने उम्मीदें जगाईं थीं, लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि ये नीतियाँ स्लोगन से आगे नहीं जा सकीं। पंचायत स्तर पर इन योजनाओं का कोई ठोस क्रियान्वयन नहीं दिखता। कुछ जिलों में यह योजना केवल सरकारी बैनर तक सीमित रही।

बिहार जैसे राज्य में, जहाँ ग्रामीण क्षेत्रों की संख्या अधिक है और स्त्री शिक्षा का स्तर कम है, वहाँ योजना की असफलता का सीधा असर लिंगानुपात पर दिख रहा है।

लोक संस्कृति में लड़कियों की अनुपस्थिति

बिहार की लोक परंपराओं, गीतों और कहावतों में लड़कों की प्रशंसा और लड़कियों की उपेक्षा गहरे बसी है।

  • शादी के गीतों में बेटा ‘बाँस का लाठी’ और बेटी ‘खर-पात’ बन जाती है।

  • जन्मोत्सवों में लड़के के जन्म पर उत्सव, और लड़की के जन्म पर चुप्पी होती है।

यह वह सांस्कृतिक हिंसा है जिसे कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं करती, लेकिन यही समाज की चेतना को आकार देती है। यही सोच एक गर्भवती माँ को, बेटी होने पर दुखी कर देती है।

क्या हो सकते हैं समाधान?

  1. नीति में पारदर्शिता और निगरानी: योजनाओं की वास्तविक निगरानी हो। पंचायत स्तर पर महिला प्रतिनिधियों को योजना कार्यान्वयन की ज़िम्मेदारी दी जाए।

  2. प्राइवेट हेल्थ सिस्टम की जवाबदेही: निजी क्लीनिकों में हो रहे भ्रूण परीक्षण पर डिजिटल निगरानी और कठोर दंड आवश्यक है।

  3. स्त्री शिक्षा और स्वायत्तता: जब बेटियाँ पढ़ेंगी, आत्मनिर्भर बनेंगी, तभी समाज उनकी गरिमा को समझेगा। उन्हें केवल ‘बचाना’ नहीं, ‘सशक्त करना’ ज़रूरी है।

  4. सांस्कृतिक हस्तक्षेप: लोकगीतों, फिल्मों, और स्कूली पाठ्यक्रमों में लड़कियों की सकारात्मक छवि गढ़नी होगी। समाज को ‘बेटी होना’ गर्व का कारण बनाना होगा।

  5. सांख्यिकी की आलोचना: सिर्फ संख्या की चिंता नहीं, बल्कि उस सोच को बदलना ज़रूरी है जो बेटियों को जन्म लेने से रोक रही है।

संख्या नहीं, सवाल है पहचान का

बिहार में घटता लिंगानुपात एक चेतावनी है — यह उस समाज का आईना है जहाँ आधी आबादी को जन्म लेने का भी अधिकार सहज नहीं है। यह सिर्फ लड़कियों की गिनती का मामला नहीं, बल्कि उनके अस्तित्व, पहचान और गरिमा का सवाल है।

यह समय है जब समाज को यह निर्णय लेना होगा कि क्या हम एक ऐसा भविष्य चाहते हैं जिसमें बेटियाँ केवल आंकड़ों में गुम हो जाएँ — या फिर एक ऐसा समाज रचेंगे जहाँ हर जन्म स्वागत के योग्य हो, चाहे वह लड़की हो या लड़का।


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saumya jyotsna

मेरी कलम मेरे जज़्बात लिखती है, जो अपनी आवाज़ नहीं उठा पाते, उनके अल्फाज़ लिखती है। Received UNFPA-Laadli Media and Advertising Award For Gender Senstivity -2020 Presently associated with THIP- The Healthy Indian Project.

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