Thursday, November 14
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Women'swomen's Property Rights

“देवियों को पूजने वाला समाज बेटियों को सम्पत्ति में  हक देने से डरता क्यों है?”

प्रतीतात्मक तस्वीर।

नवरात्र के दिनों में घंट-घड़ियाल-शंख की आवाज़, धूपबत्ती-हवन-हौमाद, फूलों की महक, ” या देवी सर्वभूतेषू…लक्ष्मी रूपेण संस्थिता…शक्ति रूपेण संस्थिता….”आदि कई मंत्रोच्चार के ध्वनियों के साथ बदलती हुई सामाजिक मान्यताओं के वज़ह से अपनी लाड़लियों को देवी-दूर्गा का शक्ति-स्वरूप मानते है परंतु, आज भी लक्ष्मी-शक्ति रूपेण संस्थिता मानने वाले लाड़लियों को संपत्ति में जो अधिकार दिया है, वह त्यागने जैसा ही है।

क्या है महिलाओं का हक?

हमारे समाज में हर महिला को इतना ही हक मिला हुआ है कि वह अपने हर हक कुर्बान कर दे। जहां उसके अपने हक को अपने पास रखने की बात कही या इसकी थोड़ी सी भी मांग रख ली, तो उसके इस व्यवहार को मर्यादा से बाहर या फिर अमर्यादित मान कर महिला को सामाजिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है। इस नवरात्र और डार्टस डे वीक को हम घर की लाड़लियों के आर्थिक अधिकारों के बारे में जाने-समझें जो उनको सामाजिक जीवन में नई गतिशीलता दे सकते है।

भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में नवरात्र का पर्व महिला के सम्मान को प्रतिष्ठित करने का महापर्व है और आधुनिक जीवन बोध में ‘डार्टस डे’ का उद्देश्य हर घर के लाड़लियों के सम्मान और अस्तिस्व के विकास के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक सशक्तिकरण के लक्ष्य तक पहुंचाना है। महिला सम्मान या लाड़लियों की प्रतिष्ठा तभी कायम हो पाएगी, जब वह उसमें मौजूद शक्ति स्वरूप का सम्मान हो और उसे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भरता मिले।

बेटी हुई है, घर में लक्ष्मी आई है, बहू तो साक्षात लक्ष्मी स्वरूप है यह मूलबोध हमारे सामाजिक जीवन में है परंतु, हम सब जानते हैं पैतृक संपत्ति में बराबरी का अधिकार महिलाओं को हमेशा हक त्यागने के लिए मिला है। पूरी ज़िंदगी परिवार के लिए त्याग करने वाली बेटी-बहू के हाथ भावनात्मक पूंजी के अतिरिक्त कुछ भी नहीं लगता है।

सपंत्ति की रजिस्ट्री में छूट मिलने के वजह से संपत्ति महिला के नाम से कर दी जाती है लेकिन कभी उस संपत्ति के बारे में फैसला लेने का हक नहीं मिल पाता, यहां तक उसकी राय भी कोई मायने नहीं रखती है।

क्या है हक त्याग?

हक त्याग करना एक तरह का संपत्ति हस्तांतरण है, जिसमें किसी भी संपत्ति का बंटवारा कराए बिना अपना हिस्सा किसी दूसरे हिस्सेदार के पक्ष में हक त्याग विलेख के माध्यम से हस्तांतरित किया जाता है। हक त्याग बाद के लंबित रहने के दौरान किया जा सकता है और वैध है।

पहले एक शपथ पत्र के माध्यम से हक त्याग हो जाता था लेकिन महिलाओं को जबरन संपत्ति के स्वामित्व से वंचित कर देने के मामले सामने आने के बाद इसके साथ स्टांप ड्यूटी भी चुकानी होती है। बेटियों को पैतृक संपत्ति में हिस्सा मिलने के कानून बेटियों के लिए गलफांस बन गया है। हक त्याग न करे तो मायके वाले नाराज़ होते हैं और करें तो पति और ससुराल वाले।

संपत्ति के अधिकार को लेकर महिलाएं दोराहे पर खड़ी है और जगह तो यह परिवार टूटने के कगार पर आ रहे हैं, मायके से संबंध बिगड़ने और कुसंस्कारी और अमर्यादित होने का दवाब उनको अपने अधिकार छोड़ने को मजबूर करता है।

संबंध बिगड़ने और बुरी बेटी बनने का डर

प्रतीतात्मक तस्वीर।

हक त्याग का डीड साइन करने वाली अधिकांश महिलाओं को मायके से संबंध खराब होने का डर बना रहता है। अक्सर पैतृक संपत्ति में अधिकार की मांग बेटियों को कुसंस्कारी और अर्मयादित होने का ठप्पा चस्पा कर देता है। तमाम तरह के लांछन से बचने के लिए अधिकांश महिलाएं संपत्ति के अपने अधिकार से वंचित रहना चाहती हैं। अधिकांश परिवार में पितृसत्ता का यह रूप महिलाओं को आर्थिक गतिशीलता वाली आत्मनिर्भरता नहीं दे पाता।

लाड़लियां भी हो समान उत्तराधिकारी

भले ही घर के आंगन के दहलीज़ को पार कर लड़कियों ने बेमिसाल उपलब्धियां दर्ज की है, परंतु,आज भी कई कानूनी अधिकार मिलने के बाद भी बेटियों को परिवार में बेटों के सामने समान उत्तराधिकारी नहीं माना जाता है। बदलते हुए समय के बाद बेटियों को सम्मान तो मिलता है पर परिवार का उत्तराधिकारी घोषित करने में आज भी संकोच की स्थिति बरकरार है। इस असमानता के कारण परिवार के समाजीकरण में छुपा हुआ है। घर के बड़े ही इस यथास्थिति में बदलाव के लिए पहल कर सकते हैं, बेटे की तरह बेटियों के जीवन में गतिशीलता लाने के लिए ज़रूरी है कि उनको आर्थिक आत्मनिर्भरता वाली ठोस ज़मीन मिले।

नवरात्र के सप्ताह में गृहलक्ष्मीयों और डाटर्स डे वीक में घर की लाड़लियों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और शक्ति रूपेन का वास्तविक दर्जा देने के लिए सही दिशा में सोचने की आवश्यकता पूरे समाज को है।

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