अहंकार मुक्त प्रेम सफल होता है
प्रेम न जाति देखता है, न धर्म देखता है, न कोई ऊंच-नीच देखता है, न कोई भेदभाव करता है और न ही किसी परंपरा से इसका कोई लेना-देना होता है। प्रेम जब होता है, तो यह सारी दीवारें तोड़ देता है, न कोई नियम मानता है, न ही कोई बंधन, न ही इसमें कोई उपदेश का स्वागत होता है और न दूसरों के अनुभव कोई काम आते हैं। प्रेम प्रवाह के तरह होता है जिसे बाधित करना पर्वतों के वश में भी नहीं है। प्रेम के बारे में ये सभी बारें तब तक सही हैं, जब तक प्रेम एक किशोर के मन में जैविक कारणों से अंकुरित हो रहा है, परंतु एक व्यस्क मनुष्य के प्रेम आवेग से अधिक वह स्थित मन: स्थिति है, जिसमें उसे मानसिक, सामाजिक और व्यक्तिगत संतोष की प्राप्ति होती है। स्थाई रूप से संतोष की प्राप्ति एक जटिल चुनौती है। इसके लिए व्यक्ति को अपने सभी पूर्वाग्रहों से जूझना पड़ता है और अपने मन को अहंकार से मुक्त करने के लिए सतत प्रयत्न करना पड़ता है। अहंकार से मुक्त मन ही वास्तविक प्रेम की समग्र अनुभूति पा सकता है।
क्रांतिकारी होता है प्रेम
किशोरों में प्रेम को लेकर जो उमंग रहती है, उसे परिपक्व नहीं माना जाता, क्योंकि इस उम्र में अनुभव और मानवीय संबंधों की समझदारी के बनिस्बत संबंध उन पूर्वाग्रहों से उपजे आकर्षण के कारण बनते हैं, जिसका बीजारोपन व्यक्ति में पारवरिक संस्कारों और एक ख़ास तरह के समाजीकरण के कारण होता है। समाज हमेशा से एक परंपरा के अनुरूप चलता रहा है। लोकस्मृति में प्रेम को लेकर जितनी भी कहानियां प्रचलित हैं, उनमें व्यवस्था के विरुद्ध जाकर नायक और नायिका अपने प्रेम को दुनिया के सामने साबित करते हैं। हालांकि प्रेम का मूलचरित्र हमेशा समता स्थापित करने में है, जो असल में सामाजिक व्यवस्था के प्रतिकूल परिस्थिति को जन्म देता है, अत: होता यह है कि प्रेम क्रांतिकारी चरित्र हमेशा ही व्यवस्था के विरुद्ध खड़ा दिखता रहा है। लेकिन अगर समाज के नियम प्रेमपूर्ण अर्थात समतामूलक हो जाएं, तो प्रेम का क्रांतिकारी चरित्र भी जाता रहेगा।
समतामूलक समाज बनाता है प्रेम
यह भी पाया गया है कि अमूमन जो व्यक्ति जैसा स्वयं नहीं होता, वैसा दूसरों को देखकर वह उससे आकर्षित होता है। यह विपरीत ध्रुवों के बीच होने वाले आकर्षण जैसा है। यही कारण है कि जाति और धर्म के दायरे से परे जाकर ज्यादातर कोई व्यक्ति अपने साथी की तलाश करता है। यह अकारण नहीं होता, इसके पीछे विपरीत के प्रति आकर्षण और लोकस्मृति में प्रेम के रास्ते में सामाजिक नियमों के उल्लंघन की सशक्त सुषुष्त इच्छा का उभार है, ताकि आगे चलकर प्रेम-कहानी का महिमामंडन हो सके और प्रेमी युगल नायक-नायिका बन सकें। यही कारण है कि ज्यादातर प्रेम-कहानियां अंतर्जातीय होती हैं, भले ही इन सबकी परिणति अंतर्जातीय विवाह में न हो सके। अंतर्जातीय संबंधों के कई फायदे हैं, यह समतामूलक समाज के निमार्ण में सबसे ठोस कदम है, बशर्ते इसमें शामिल लोग अपनी जातिगत रूढ़ियों से मुक्त होकर एक बेहतर और मुक्त समाज के निर्माण के लिए दृढ़संकल्प हों। परंतु, जो लोग सामाजिक ताने-बाने में, व्यक्तिगत और पारिवारिक रिश्तों में रूढ़ियों से जमी बर्फ़ को नहीं तोड़ना चाहते और केवल दूसरी जाति-समुदाय के साथी के साथ दांपत्य का निर्वाह करना चाहते हैं, उनका जीवन मुसीबतों से भरा होता है। संस्कार से उपजी विषमताएं और अलग-अलग परिवेश व जीवन के मूल्यबोध दोनों व्यक्तियो का जीवन दूभर कर देता है। दो अलग-अलग लोग मिककर अगर एक जो जाएं, अच्छे नए परिवेश का निमार्ण करें तो बेहतर, लेकिन दोनों एक-दूसरों को अपने अनुरूप ढालने का संघर्ष करें, तो बड़ी समस्या है।
समग्र जीवन का प्रतिबिंब है प्रेम
साथियों के चुनाव के वक़्त किशोर युगल यह भूल जाते हैं कि वह किसी उपन्यास का पात्र नहीं हैं, जिनमें नायकत्व के भाव होने ही चाहिए। न ही प्रेम ऐसी चुनौति है, जिसके लिए दुनिया भर की दूसरी चीजों को दोयम ठहराया जाए। प्रेम, जीवन से अलग कोई परिघटना नहीं है, बल्कि यह समग्र जीवन का प्रतिबिंब है। जैसा जीवन होगा, वैसा ही प्रेम होगा और प्रेम को लेकर जैसा आपका नज़रिया होगा, आपका जीवन भी वैसा हो जाएगा, इसमें घालमेल आपके जीवन को अस्त-व्यस्त कर सकता है। आप क्रांतिकारी तरह से प्रेम का चुनाव करना चाहें और आपका जीवन परंपरा के अनुरूप हो, तो संभव नहीं है। आपको एक राह चुननी होगी या तो आप क्रातिकारी हो सकते है या परंपराओं के पोषक। दोनों का आनंद लेने की कोशिशें आपके जीवन का सुख-चैन छीन सकती है।
(नोट: यह लेख अहा जिंदगी पत्रिका के जिंदगी का प्रेमराग कालम में प्रकाशित हो चुकी है, आभार अहा जिदंगी।)