मल्लिका-ए-तरन्नुम बेगम अख्तर: ग़ज़ल की रूहानी आवाज़ का सफर

मल्लिका-ए-तरन्नुम बेगम अख्तर, जिनका नाम उर्दू शायरी और भारतीय शास्त्रीय संगीत की दुनिया में बड़े अदब और सम्मान से लिया जाता है। उनकी खनकती आवाज़ और ग़ज़ल गायकी का जादू आज भी महफिलों की रूह बना हुआ है।
बचपन में जब दादाजी आर.पी.एम वाले काले रिकॉर्ड (जिसे हम “काली छेद वाली थाली” कहा करते थे) बजाते थे, तब एक गीत के समाप्त होते ही एक तेज़ और खनकती आवाज़ गूंजती, “मेरा नाम अख्तरी बाई फैजाबादी।”
ये आवाज़ मेरे बाल मन को चौंका देती।अक्षरों की पहचान से पहले ही यह खनकती आवाज़ मेरे ज़ेहन में घर कर चुकी थी।
बेगम अख्तर का संगीतमय सफर

फैज़ाबाद में 7 अक्टूबर 1914 को मशहूर गायिका मुश्तरी बाई के घर जन्मी अख्तरी को बचपन से ही संगीत में रुचि थी। मां ने इस प्रतिभा को पहचानकर उन्हें कोलकाता भेजा, जहां उन्होंने पटियाला घराने में मोहम्मद खान से संगीत की तालीम ली। हालांकि, कठिन रियाज़ उन्हें बहुत रास नहीं आया, और उन्होंने ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल को अपनी गायकी का माध्यम बनाया।
जल्द ही वह किराना घराने के उस्ताद अब्दुल वहीद खान से ख़याल गायन सीखने लगीं। उन्हें जल्दी समझ आ गया कि ख़याल उनकी आत्मा की आवाज़ नहीं है। उन्होंने लोकभाषाओं – अवधी, भोजपुरी, पुरबिया – को अपनी शैली में ढालकर एक नई परंपरा की शुरुआत की।
उनकी गायकी में लोक जीवन का दर्द और उत्सव दोनों समाए थे। वह जब गाती थीं, तो उनके सुरों में एक जिया हुआ अनुभव झलकता था, जो सुनने वालों को भीतर तक छू जाता था। यही था अख्तरी का जादू।
हैदराबाद, भोपाल, कश्मीर, और रामपुर जैसे रियासतों के नवाब उनके प्रशंसक बने और उन्हें राजकीय मान-सम्मान दिए। उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो से ग़ालिब की शायरी को जीवंत कर श्रोताओं के दिलों पर राज किया।
स्टेज पर पहला कदम
महज 15 वर्ष की उम्र में अख्तरी बाई ने कोलकाता के एक कार्यक्रम में पहली बार स्टेज पर ग़ज़ल गाई। यह कार्यक्रम अचानक मिले एक अवसर का परिणाम था, जब एक नामचीन कलाकार ने ऐन वक्त पर मना कर दिया।
उस्ताद अता मोहम्मद ख़ान के कहने पर कांपती टांगो से अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी स्टेज पर आई और आंख बंद करके उन्होंने अल्लाह को याद किया। फिर उन्होंने छेड़ा मुमताज़ बेग़म का मशहूर कलाम,“तूने बुत-ए-हरजाई, कुछ ऐसी अदा पाई। तकता है तेरी ओर हर एक तमाशाई।”
उस हॉल में बैठे लोग अख़्तरी बाई की आवाज़ की कशिश के दीवाने हो गए। एक के बाद एक अख़तरी बाई ने चार गज़लें सुना दी।
तालियों की गड़गड़ाहट के साथ जब वो प्रोग्राम खत्म हुआ तो एक महिला अख़्तरी बाई के पास आई और बोली,”मैं कुछ ही देर के लिए इस प्रोग्राम में आई थी। लेकिन जब तुम्हें सुना तो फिर जाने का मन ही नहीं किया। अब कल तुम मुझे सुनने आना।”उस महिला ने अख़्तरी बाई को खादी की एक साड़ी तोहफे में दी। वो महिला थी भारत की स्वर कोकिला सरोजिनी नायडू।
प्रेम, विवाह और संघर्ष
अख्तर का विवाह लखनऊ के काकोरी के ताल्लुकेदार इश्तियाक अहमद से हुआ, जो पेशे से बैरिस्टर और संगीत प्रेमी थे। हालांकि, यह प्रेम जल्दी ही पाबंदियों में बदल गया।
पति का अत्यधिक संरक्षण उनके संगीत सफर की बेड़ियां बन गया। मगर संगीत से उनका लगाव ऐसा था कि उन्होंने इन पाबंदियों को तोड़ते हुए फिर से महफिलों में लौटना शुरू किया।
सिगरेट और तन्हाई की कहानी
बेगम अख्तर को अकेलापन बहुत डराता था। इसी तन्हाई से लड़ने के लिए उन्होंने शराब और सिगरेट को अपना साथी बना लिया। उनकी सिगरेट की लत इतनी गहरी थी कि एक बार उन्होंने ट्रेन रोक दी थी, क्योंकि सिगरेट खत्म हो गई थी। स्टेशन पर कोई दुकान नहीं मिलने पर उन्होंने ट्रेन के गार्ड से उसका लालटेन और हरा झंडा छीन लिया और जब तक सिगरेट नहीं मिली, ट्रेन को आगे नहीं जाने दिया।
इसी तरह, फिल्म पाकीज़ा को उन्होंने छह बार देखा — हर बार सिगरेट पीने बाहर चली जातीं और फिल्म का हिस्सा छूट जाता, इसलिए पूरी फिल्म समझने के लिए उन्हें छह बार टिकट खरीदनी पड़ी।
मल्लिका-ए-तरन्नुम का प्रभाव

बेगम अख्तर की संगीत साधना और गायकी का योगदान इतना बड़ा है कि उस पर जितना भी लिखा जाए, कम है। उन्होंने ठुमरी, दादरा, कजरी, और चैती जैसे लोकसंगीत को मंच पर लाकर क्लासिकल फॉर्म का हिस्सा बना दिया। उन्होंने ग़ज़ल को उच्च वर्ग की महफिलों से निकाल कर आम लोगों के दिलों तक पहुंचाया।
उनकी अतिसंवेदनशीलता और शायरी को समझने की गहराई ने उन्हें एक बेमिसाल कलाकार बना दिया। आज भी, उनकी गायकी से हर वर्ग के लोग जुड़ाव महसूस करते हैं।
30 अक्टूबर 1974 को बेगम अख्तर इस दुनिया से रुखसत हो गईं। मगर आज भी उनके चाहने वाले उनकी याद में महफिलें सजाते हैं और “मल्लिका-ए-तरन्नुम” को श्रद्धांजलि देते हैं।

लेखक वनस्पति विज्ञान के प्राध्यापक रह चुके है। संप्रति होम्योपैथी चिकित्सा-पद्धति के जरिए लोगों की सेवा। नई दिल्ली और मुबंई निवास