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“हज़रत महल: इतिहास की वह नायिका जिसे भुला दिया गया”

इतिहास में आम लोगों की आवाज़, खासकर महिलाओं के साथ-साथ वंचित समाज का संघर्ष लंबे समय तक अदृश्य रही है। हाल के वर्षों में उन्हें इतिहास में प्रमुखता देने के प्रयास ज़रूर हुए हैं। उदाहरण के लिए, गूगल ने डूडल बनाकर कई महिलाओं को हाशिए से उठाकर मुख्यधारा में लाने की पहल की है।

गूगल के डाटाबेस में अब भी वे महिलाएं शामिल नहीं हो सकी हैं जिन्हें ‘अन्य’ के रूप में देखा गया—वह महिलाएं जो मध्यमवर्गीय स्त्री की छवि के बाहर थीं, आज भी अदृश्य ही हैं।

इन ‘अन्य’ महिलाओं को अक्सर असभ्य, अश्लील, बड़बोला, नैतिक रूप से अपमानित और यौन रूप से कामुक समझा जाता था। बेहतर सार्वजनिक पहुँच के कारण वह अपेक्षाकृत स्वतंत्र थीं और जाति, वर्ग, लिंग जैसी कठोर सामाजिक सीमाओं से बंधी हुई नहीं थीं। यही कारण था कि समाज उन्हें “खतरनाक” मानता था।


बेगम हज़रत महल भी उन्हीं असभ्य या पटरी से उतरी हुई महिलाओं में समूह में थी, जो समाज के निचले तबके से अर्श तक पहुंची और फिर गुमनामी में खो गई। बेगम हज़रत महल को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की भूली हुई नायिका कहना पूरी तरह सही नहीं होगा।

Memorial-of-Begum-Hazrat-Mahalin-Lucknow
Memorial-of-Begum-Hazrat-Mahalin-Lucknow

लखनऊ शहर के बीचों-बीच स्थित बेगम हज़रत महल पार्क, हर शांति-प्रिय व्यक्ति के लिए इतिहास की सौगात के रूप में उनकी याद दिलाता है। जामिया मिलिया इस्लामिया में स्थित ‘बेगम हज़रत महल गर्ल्स हॉस्टल’ लड़कियों को प्रेरणा देने वाली महिला के रूप में उन्हें सम्मानित करता है, वहीं ‘बेगम हज़रत महल राष्ट्रीय छात्रवृत्ति’ अल्पसंख्यक समुदायों की छात्राओं को आर्थिक सहायता प्रदान कर उनकी स्मृति को जीवित रखती है। आज उनकी पुण्यतिथि है।

बेगम हज़रत महल के योग्यता से प्रभावित थे अंग्रेज पत्रकार

बेगम हज़रत महल के कुशल राजनीतिक कौशल और ब्रिटिश सेना के विरुद्ध मोर्चा संभालने की योग्यता का उल्लेख सर डब्ल्यू. रसेल ने किया है, जो उस समय लंदन टाइम्स के भारत संवाददाता थे। अपनी डायरी के पृष्ठ संख्या 275 पर वह लिखते हैं:


“सिपाही सेना का एक बड़ा भाग लखनऊ में है, ऐसा समझा जाता है; किंतु वे उस वीरता से नहीं लड़ेंगे, जिस वीरता से अवध के रक्षक युद्ध करेंगे—वे रक्षक जिन्होंने अपने युवा सम्राट बिरजिस कादिर के हितों की रक्षा के लिए अपने नेताओं का अनुसरण किया है। इनके बारे में निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वे देशभक्ति से प्रेरित युद्ध में सम्मिलित हैं, जो वे अपने देश और सम्राट के लिए लड़ रहे हैं।


रेजीडेंसी के घेरे में भी सिपाहियों ने रणभूमि में वैसी वीरता नहीं दिखाई, जैसी निर्भीकता से ज़मींदारों और उनके अनुयायियों ने लड़ा। बेगम ने अपनी असाधारण शक्ति और नेतृत्व क्षमता का ऐसा परिचय दिया कि संपूर्ण अवध को अपने पुत्र के पक्ष में संगठित कर खड़ा कर दिया। सरदार और सामंत भी उनके प्रति पूर्णतः निष्ठावान थे।

हम चाहे उनके पुत्र की वैधता पर संदेह करें, लेकिन ज़मींदार—जो इस प्रश्न पर सही निर्णायक माने जा सकते हैं—ने बिना हिचक बिरजिस कादिर को उत्तराधिकारी के रूप में स्वीकार किया। सरकार इन लोगों से विद्रोहियों की तरह व्यवहार करेगी या संभावित शत्रुओं की तरह, यह स्पष्ट नहीं है।


बेगम ने हमारे विरुद्ध अखंड युद्ध की घोषणा कर दी है। इन रानियों और बेगमों के शक्तिशाली व्यक्तित्व को देखकर लगता है कि उन्हें अपने रनिवासों और हरम में अद्भुत मानसिक शक्ति प्राप्त थी, और वे हर परिस्थिति में उपयुक्त निर्णय लेने में सक्षम थीं।”

हाशिए की नायिका: एक गुलाम की बेटी से अवध की रानी तक का सफर

हज़रत महल एक साधारण पृष्ठभूमि से आई थीं। उनके पिता अंबर एक अफ्रीकी गुलाम थे, और उनकी माँ महेर अफ़ज़ा, अंबर की रखैल थीं। हज़रत महल ने लखनऊ के प्रसिद्ध परीख़ाना संगीत विद्यालय में संगीत की शिक्षा ली, जिसके कारण उन्हें “महक परी” कहा जाने लगा।


अपनी प्रतिभा, आकर्षक व्यक्तित्व, या शायद दोनों की वजह से उन्होंने नवाब वाजिद अली शाह का ध्यान आकर्षित किया। नवाब ने मुता (अस्थायी विवाह) के माध्यम से हज़रत महल को अपनी पत्नी बनाया। वर्ष 1845 में उनके पुत्र का जन्म हुआ, जिससे उनका दर्जा और सम्मान बढ़ गया, और उन्हें “महल” की उपाधि प्रदान की गई।


लेकिन 1850 में परिस्थितियाँ बदल गईं। वाजिद अली शाह ने न केवल उन्हें तलाक दिया, बल्कि अपने हरम से भी निकाल दिया। हालांकि, हज़रत महल ने लखनऊ छोड़ने से इनकार कर दिया। यहीं से उनके संघर्ष और साहस की वास्तविक कहानी शुरू होती है। रोज़ी लिउलिन जोन्स अपनी पुस्तक The Great Uprising in India: Untold Stories of Indian and British में लिखती हैं:

“अंग्रेज़ों का मानना था कि उनके ख़िलाफ़ विद्रोह करने वाले केवल एक प्रतीकात्मक जुलूस में शामिल हो रहे थे, जबकि यह सच्चाई से कोसों दूर था। यह एक गंभीर घड़ी थी, जिसने अंग्रेज़ों द्वारा अवध पर कब्ज़े के बाद उपेक्षित कर दिए गए वर्गों के नेताओं को एक साथ आने का अवसर प्रदान किया। वे सभी अपने खोए हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए एकजुट हो गए थे।”

जब हज़रत महल के बेटे बिरजिस क़द्र को नवाब और मुग़ल सम्राट का वली (गवर्नर) घोषित किया गया, तो उन्हें भी पुनः “बेगम” का ख़िताब प्राप्त हो गया। इस घोषणा के साथ ही हज़रत महल न केवल विद्रोहियों की, बल्कि आम जनता की भी नेता बन गईं।

यही वह समय था जब हज़रत महल ने परिस्थितियों को अपने हाथों में लिया। उन्होंने अपने बेटे बिरजिस क़द्र को अवध का शासक घोषित किया और स्वयं अवध की वास्तविक शासक बन गईं। अंग्रेज़ों के कब्ज़े के विरुद्ध उन्होंने न केवल अपने दरबार में विभिन्न विभागों—न्याय, राजस्व, पुलिस और सेना—की स्थापना की, बल्कि पूरे अवध को ब्रिटिश शासन के खिलाफ संगठित किया।
उनके साहस और नेतृत्व ने अवध के सरदारों और सामंती शक्तियों को एकजुट कर दिया। सभी ने उनके प्रति वफादारी की शपथ ली। हज़रत महल ने अपनी राजनीतिक और सैन्य क्षमताओं का अद्वितीय प्रदर्शन करते हुए विद्रोहियों का नेतृत्व किया। उन्होंने अपने सरदारों और सैनिकों के साथ मिलकर लखनऊ पर कब्ज़ा कर लिया और अवध की प्रशासनिक जिम्मेदारी खुद संभाली।

1857 की क्रांति में नेतृत्व: जब एक महिला ने लखनऊ को संगठित किया

हज़रत महल का नेतृत्व और संघर्ष 1857 के विद्रोह के दौरान अद्वितीय था। उन्होंने लखनऊ पर नियंत्रण स्थापित कर अवध को अंग्रेज़ों से मुक्त कराने का प्रयास किया। हालांकि प्रारंभ में विद्रोहियों को सफलता मिली, लेकिन जैसे-जैसे संघर्ष आगे बढ़ा, ब्रिटिश सेना की शक्ति के सामने विद्रोह कमजोर पड़ता गया। अंततः हज़रत महल को लखनऊ छोड़कर नेपाल में शरण लेनी पड़ी।


हालाँकि उन्होंने कभी ब्रिटिश सत्ता के आगे आत्मसमर्पण नहीं किया, लेकिन उनकी सेना लगातार कमजोर होती गई और परिस्थितियाँ उन्हें अपने अनुयायियों के साथ नेपाल भागने के लिए विवश कर गईं। नेपाल में उन्हें शरण तो मिली, लेकिन उनका जीवन वहां भी संघर्षों से भरा रहा।


ब्रिटिश सरकार ने उन्हें अवध लौटने और ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन काम करने का प्रस्ताव दिया, जिसे हज़रत महल ने दृढ़ता से ठुकरा दिया। उन्होंने अपने आदर्शों और सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया और अपने अंतिम दिनों तक ब्रिटिश शासन का विरोध करती रहीं। 1879 में नेपाल में ही उनका निधन हुआ।

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हज़रत महल का संघर्ष को भुला देने वाली ऐतिहासिक चुप्पी

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हज़रत महल का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण था, लेकिन दुर्भाग्यवश इतिहास में उन्हें वह मान्यता और सम्मान नहीं मिल सका, जिसके वे वास्तव में पात्र थीं। जहाँ रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब और तात्या टोपे जैसे स्वतंत्रता सेनानियों को ऐतिहासिक दस्तावेज़ों और साहित्य में प्रमुख स्थान मिला, वहीं हज़रत महल का नाम अपेक्षाकृत उपेक्षित रह गया।


इस उपेक्षा के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है कि हज़रत महल का उल्लेख लोकगीतों और लोककथाओं में बहुत कम हुआ है। 19वीं सदी के उत्तरार्ध में उत्तर भारत के लोकगीतों का संग्रह करने वाले विलियम क्रुक ने हज़रत महल का ज़िक्र केवल एक गीत की एक पंक्ति में किया।

यह तथ्य इस बात का संकेत है कि उनकी भूमिका और योगदान को इतिहास में वह महत्व नहीं दिया गया, जो अन्य नेताओं को मिला।

Pratyush Prashant

किसी भी व्यक्ति का परिचय शब्दों में ढले, समय के साथ संघर्षों से तपे-तपाये विचार ही दे देते है, जो उसके लिखने से ही अभिव्यक्त हो जाते है। सम्मान से जियो और लोगों को सम्मान के साथ जीने दो, स्वतंत्रता, समानता और बधुत्व, मानवता का सबसे बड़ा और जहीन धर्म है, मुझे पूरी उम्मीद है कि मैं अपने वर्तमान और भविष्य में भी इन चंद उसूलों के जीवन जी सकूंगा और मानवता के इस धर्म से कभी मुंह नहीं मोड़ पाऊगा।

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