“बदल चुका है हमारे खाने-खिलाने का तरीका” के लिए
"स्वाद और संस्कृति के बीच छिड़ी जंग: आधुनिकता के दौर में भोजन का बदलता चेहरा"

भोजन की जो नई संस्कृति विकसित हो रही है, उसमें मुख्य परिवर्तन कृत्रिम पदार्थों के बढ़ते प्रयोग से आया है। यह बदलाव अचानक नहीं हुआ, बल्कि यह एक व्यापक सामाजिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया का हिस्सा है। इसमें खाने से जुड़े सामाजिक संबंधों के साथ-साथ समय, स्थान, रिवाजों और भोजन के प्रति हमारे दृष्टिकोण में बदलाव शामिल हैं।
आज के जीवन में हम देखते हैं कि बहुत से लोगों के लिए खाने के लिए अलग से समय निकालना संभव नहीं रह गया है। उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए बाजार सामने आया है।
इस बदलाव के चलते यह आश्चर्यजनक नहीं है कि खाना बनाने, खिलाने और खाने—इन तीनों का स्वरूप बदल चुका है। दूसरी ओर, मिठाइयों, नाश्तों और अन्य खाद्य वस्तुओं में रंग और पैकेजिंग का महत्व अत्यधिक बढ़ गया है। खाद्य सामग्री की ओर आकर्षण अब स्वाद या गुणवत्ता से अधिक, उनकी प्रस्तुति और पैकेजिंग के आधार पर होता है। इसके साथ ही, पैक किए गए खाने को लंबे समय तक टिकाऊ बनाए रखने की बाध्यता के चलते अनेक प्रकार के रसायनों का प्रयोग किया जाता है।
इन रसायनों में कई स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तत्व होते हैं। लेकिन उपभोक्ता सीमित विकल्पों के कारण इन पर अधिक ध्यान नहीं दे पाता।
“सोशल मीडिया: लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आज़ादी और दुरुपयोग की नई चुनौतियां”
दाल हम सबों के थाली से गायब हो रहे है
हम अब उन दिनों की कल्पना भी नहीं कर सकते जब बिना पॉलिश किए हुए अनाज को भोजन का सामान्य हिस्सा माना जाता था। उदाहरण के तौर पर, बिना रोगन की दाल आज आसानी से उपलब्ध नहीं होती। मसालों की भी यही स्थिति है। मूल्य की समस्या भी इस बदलाव का एक महत्वपूर्ण संकेतक है। सच्चाई यह है कि प्रति व्यक्ति दालों की उपलब्धता दशकों से घटती जा रही है।
दाल का नियमित सेवन, जो पहले सामान्य था, अब समाज के एक बड़े वर्ग के लिए कठिन हो गया है। इसके कारण संतुलित पोषण विशेषकर बच्चों के लिए दुर्लभ होता जा रहा है।
जो लोग आज भी दाल नियमित रूप से खाते हैं, उनके लिए भी इसके उपयोग की परंपरागत विधियां अब बदल चुकी हैं। किस दाल में किस प्रकार का तड़का लगे, यह क्षेत्रीय विविधता अब बहुत कम परिवारों में देखने को मिलती है।
मसालों के मामले में भी यही स्थिति है। किस सब्ज़ी में कौन सा मसाला उपयुक्त होगा, या कौन से मसाले एक साथ उपयोग किए जा सकते हैं, यह पारंपरिक ज्ञान अब लुप्तप्राय हो चला है।
इसके पीछे पारिवारिक संरचना, भाषा की स्थिति और मीडिया के प्रभाव जैसे कारण जिम्मेदार हैं।
अब गायब हो चुके है सारे पुराने बर्तन
कई पुराने बर्तनों के नाम अब बाजार में सुनाई भी नहीं देते। वे या तो समाप्त हो चुके हैं या लुप्त होने की कगार पर हैं। कांसे की थाली या कटोरी अब केवल विशेष अनुष्ठानों में उपयोग की जाने वाली वस्तुएं रह गई हैं। दैनिक जीवन में अब लोहे, स्टील, प्लास्टिक और चीनी मिट्टी के बर्तन आम हो गए हैं।
पीतल और तांबे के बर्तन आधुनिक रसोई में लगभग गायब हो चुके हैं। इनकी चमक और प्रकृति पारंपरिक रसोई को एक विशेष गरिमा प्रदान करती थी। उस विविधता में पत्थर, मिट्टी, पीतल और लकड़ी का भी महत्त्वपूर्ण स्थान था।
आज ईंधन के रूप में केवल गैस और बिजली का उपयोग होता है, जबकि कई पारंपरिक व्यंजन इनसे बनाए जाने पर अपना मूल स्वाद खो बैठते हैं। लेकिन केवल स्वाद का ह्रास ही मुद्दा नहीं है।
अब हम कृत्रिम उर्वरकों और कीटनाशकों के साथ-साथ ‘जीन परिवर्तित’ (GM) फसलों के युग में प्रवेश कर चुके हैं, जिनका आर्थिक प्रभाव भारत जैसे कृषि-प्रधान देश पर अत्यंत गंभीर हो सकता है। यह आश्चर्यजनक है कि जहां यूरोप और अमेरिका जैसे विकसित देशों में GM बीजों का विरोध हुआ है, वहीं भारत में इनके प्रति कोई ठोस जागरूकता नहीं दिखती।
पूरी दुनिया में हर चीज का स्वाद एक जैसा हो गया है
अनाज और सब्जियों के स्वाद, आकार और रंग में वैसा ही कृत्रिम बदलाव देखने को मिल रहा है, जैसा पश्चिमी देशों में पहले से हो चुका है। उत्तरी अमेरिका और यूरोप के कई औद्योगिक देशों में टमाटर, आलू या बैंगन का प्राकृतिक स्वाद पहले ही समाप्त हो चुका है। अब यह प्रक्रिया भारत में भी शुरू हो चुकी है। नई सब्जियों को स्वादिष्ट बनाने के लिए नमक और मसालों की मात्रा अब पहले से कहीं अधिक बढ़ानी पड़ती है।
पैक्ड आलू के चिप्स और टमाटर की चटनी में अब कृत्रिम मसाले और रसायन ही स्वाद का मूल आधार बन चुके हैं। हम एक ऐसे युग की ओर बढ़ रहे हैं जहां पूरी दुनिया में हर चीज का स्वाद एक जैसा हो जाएगा—जैसा कि एक आइसक्रीम कंपनी के विज्ञापन में कहा गया है कि उसमें 21 तरह की खुशबू होगी, लेकिन स्वाद एक ही होगा। यह स्थिति मिठाइयों में पहले ही देखने को मिल रही है।
कुछ वर्ष पहले तक मेरे पास एक बिल्ली थी जो बाजार से लाई गई बर्फी को नहीं खाती थी, लेकिन घर में बनी बर्फी को चाव से खाती थी। उसे दूध और खोए की शुद्धता का नैसर्गिक अनुभव था—जो अब शायद ही किसी को शेष रहा हो।
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लेखक वनस्पति विज्ञान के प्राध्यापक रह चुके है। संप्रति होम्योपैथी चिकित्सा-पद्धति के जरिए लोगों की सेवा। नई दिल्ली और मुबंई निवास