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“अमर बॉस: एक माँ, एक ऑफिस और आत्मनिर्भरता की नई परिभाषा”

नंदिता रॉय और शिबोप्रसाद मुखर्जी की संवेदनशील फिल्म ‘अमर बॉस’ बुजुर्गों की प्रासंगिकता, आत्मसम्मान और जीवन की दूसरी पारी को नई दृष्टि से प्रस्तुत करती है।

भारत में वृद्ध जनसंख्या लगातार बढ़ रही है। जैसे-जैसे संयुक्त परिवार बिखर रहे हैं और शहरी जीवन अधिक व्यस्त होता जा रहा है, वैसे-वैसे बुजुर्गों की भावनात्मक ज़रूरतें उपेक्षित होती जा रही हैं।

नंदिता रॉय और शिबोप्रसाद मुखर्जी, जो बेला शेषे और पोस्तो जैसी संवेदनशील और सामाजिक रूप से जागरूक फिल्मों के लिए प्रसिद्ध हैं, अपनी नई फिल्म अमर बॉस में इस बदलती हकीकत को बख़ूबी दर्शाते हैं। वह एक ऐसी कहानी कह रहे है जो दिल को छूती है।

 

कहानी का सार: माँ, एक नई शुरुआत की ओर

अमर बॉस बुजुर्गों के सशक्तिकरण की एक अनूठी कहानी है। फिल्म की मुख्य पात्र शुभ्रा (राखी गुलज़ार) एक विधवा और सेवानिवृत्त नर्स हैं, जिनके पास समय बहुत है लेकिन करने को कुछ खास नहीं। वह एक स्टार्टअप शुरू करती हैं, जिसका उद्देश्य अन्य वरिष्ठ नागरिकों को आत्मनिर्भर बनाना है। यह कदम उनके घर में सराहना के साथ-साथ टकराव का कारण भी बनता है।

फिल्म उस समय को चित्रित करती है जब शुभ्रा अपने बेटे के ऑफिस में काम करने का निर्णय लेती हैं। बेटे के प्रारंभिक विरोध के बावजूद, माँ ऑफिस जाना शुरू करती हैं। वह एक प्रशिक्षु की तरह काम में लग जाती हैं, और धीरे-धीरे पूरे ऑफिस की कार्यसंस्कृति में परिवर्तन लाती हैं — जैसे बंद कमरे में खिड़कियाँ खुल गई हों। माँ केवल एक कर्मचारी नहीं रहतीं, बल्कि पूरे ऑफिस की मार्गदर्शक बन जाती हैं।

फिल्म की शुरुआत एक प्रतीकात्मक दृश्य से होती है — एक फोन, जो हर पात्र के चारों ओर चक्कर काट रहा है, मानो पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती हो। हर कोई माँ के फोन से परेशान है — डॉक्टर, इंजीनियर, ऑफिस जाने वाली लड़की, कॉलेज छात्र, ऑटो चालक। सभी का जवाब एक जैसा है: “माँ, अभी काम में हूँ, बाद में फोन करता हूँ।” यह दृश्य समाज में बुजुर्गों की उपेक्षा को बड़ी संवेदनशीलता से दर्शाता है।

 


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पारिवारिक ढांचा और आत्मसम्मान का द्वंद्व

फिल्म एक प्रतिष्ठित प्रकाशन समूह की पृष्ठभूमि पर आधारित है। घर में सेवानिवृत्त माँ और कामकाजी बहू दोनों अपने-अपने संघर्षों से जूझ रही हैं। बहू अपने बीमार माता-पिता और करियर के तनाव से गुजर रही है, जबकि पति अपने बिज़नेस की उलझनों में फंसा है। बहू अपने भविष्य के लिए मुंबई चली जाती है और माँ बेटे के ऑफिस में शामिल हो जाती हैं।

ऑफिस में काम करते हुए माँ को यह एहसास होता है कि अन्य कर्मचारी भी अपने बुजुर्ग माता-पिता की चिंता से परेशान हैं। इस परिस्थिति को देखते हुए वह ऑफिस में एक डे-केयर सेंटर शुरू करवाती हैं। माँ और बेटे के बीच इस निर्णय को लेकर तनाव उत्पन्न होता है — एक ओर बेटे की व्यावहारिक सोच, दूसरी ओर माँ का मानवीय दृष्टिकोण। यह टकराव सहज और भावनात्मक रूप से दिखाया गया है।

 

अभिनय और निर्देशन: दिल छू लेने वाले दृश्य

राखी गुलज़ार की वापसी इस फिल्म की सबसे बड़ी जीत है। वह बेहद गरिमा के साथ स्क्रीन पर उपस्थित होती हैं।

उनकी खामोशी में भी एक गूंज है, जो दर्शकों को भीतर तक छूती है। शिबोप्रसाद मुखर्जी के साथ उनके दृश्य — जिनमें अव्यक्त तनाव और आपसी सम्मान की झलक मिलती है — फिल्म के सबसे सशक्त क्षण हैं।

हालाँकि शिबोप्रसाद एक व्यावहारिक बेटे के रूप में प्रभावशाली हैं, उनका रोमांटिक ट्रैक अपेक्षाकृत कमजोर लगता है। गौरव चटर्जी और सौरसेनी मैत्रा फिल्म में युवा ऊर्जा का संचार करते हैं, जबकि सहायक कलाकार — श्रुति दास, एवरी सिंहा रॉय, उमा बनर्जी और ऐश्वर्या सेन — खासकर महिलाओं के बीच के दृश्य में जीवंतता भरते हैं।

बुढ़ापे की प्रासंगिकता का पुनर्परिभाषण

अमर बॉस निर्देशक जोड़ी की पिछली फिल्मों की श्रृंखला में बख़ूबी फिट बैठती है। जिस तरह बेला शेषे ने बुज़ुर्गों के प्रेम को दर्शाया और पोस्तो ने पेरेंटिंग की पारंपरिक धारणाओं को चुनौती दी, वैसे ही अमर बॉस यह सवाल उठाती है — क्या बुढ़ापे का मतलब केवल विश्राम है? या यह एक नई शुरुआत हो सकती है?

फिल्म यह संकेत देती है कि सेवानिवृत्ति जीवन का अंत नहीं, एक नया अध्याय हो सकता है। हालांकि, कथा में कभी-कभी उप-कथाओं की अधिकता के कारण कुछ दृश्य भारी पड़ते हैं और मुख्य संदेश कमजोर हो जाता है।

हालाँकि फिल्म में कुछ कमियाँ हैं, फिर भी अमर बॉस एक समयानुकूल याद दिलाती है कि देखभाल सिर्फ़ आराम नहीं, बल्कि सम्मान, आत्मनिर्भरता और स्थान देने का नाम है।

 

 


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Pratyush Prashant

किसी भी व्यक्ति का परिचय शब्दों में ढले, समय के साथ संघर्षों से तपे-तपाये विचार ही दे देते है, जो उसके लिखने से ही अभिव्यक्त हो जाते है। सम्मान से जियो और लोगों को सम्मान के साथ जीने दो, स्वतंत्रता, समानता और बधुत्व, मानवता का सबसे बड़ा और जहीन धर्म है, मुझे पूरी उम्मीद है कि मैं अपने वर्तमान और भविष्य में भी इन चंद उसूलों के जीवन जी सकूंगा और मानवता के इस धर्म से कभी मुंह नहीं मोड़ पाऊगा।

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