Featurewomen;s RightWomen'swomen's Property Rights

“महिला सशक्तिकरण और न्यायपालिका | क्या महिलाएं बिना मांगे अपने हक पा सकेंगी?”

“भारतीय न्यायपालिका महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए अहम फैसले ले रही है, लेकिन क्या सिर्फ अदालतें ही यह काम करेंगी? समाज और सरकार कब आगे आएंगे? पढ़ें इस विस्तृत विश्लेषण में।”

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले पर रोक लगा दी, जिसमें कहा गया था कि नाबालिग लड़की के स्तनों को पकड़ना, उसके पजामे का नाड़ा तोड़ना और उसे पुलिया के नीचे खींचकर ले जाना बलात्कार की कोशिश नहीं मानी जाएगी।

महिला सुरक्षा से जुड़े इस फैसले की व्यापक आलोचना हुई थी, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेते हुए इसे अमानवीय और कानूनी सिद्धांतों के विरुद्ध बताया तथा इस पर रोक लगा दी।

सुप्रीम कोर्ट ने इससे पहले बॉम्बे हाईकोर्ट के एक विवादास्पद फैसले को भी पलट दिया था। बॉम्बे हाईकोर्ट की जज पुष्पा गनेडीवाला ने अपने फैसले में कहा था कि लड़की का टॉप हटाए बिना उसके स्तनों से छेड़छाड़ करना यौन उत्पीड़न की श्रेणी में नहीं आता, क्योंकि इसमें त्वचा से सीधा संपर्क नहीं हुआ था।

सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को पलटते हुए आरोपी को तीन साल की सजा सुनाई और स्पष्ट किया कि अदालतों को “त्वचा से त्वचा” के संपर्क के बजाय आरोपी की यौन नीयत पर ध्यान देना चाहिए।

महिला सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण न्यायिक फैसले

भारतीय सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाईकोर्ट्स ने समय-समय पर ऐसे कई फैसले दिए हैं, जो महिलाओं के सशक्तिकरण में मील का पत्थर साबित हुए हैं।

1. एमटीपी एक्ट के दायरे में मैरिटल रेप

सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में कहा कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (MTP) एक्ट के तहत मैरिटल रेप को भी शामिल किया जाएगा।

2. वर्जिनिटी टेस्ट असंवैधानिक

दिल्ली हाईकोर्ट ने फरवरी 2023 में स्पष्ट किया कि किसी भी आरोपी महिला का वर्जिनिटी टेस्ट संविधान के अनुच्छेद 24 का उल्लंघन है और इसे असंवैधानिक करार दिया।

3. शक के आधार पर डीएनए टेस्ट नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने नाबालिग बच्चों के डीएनए टेस्ट को लेकर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा कि वैवाहिक विवादों में केवल शक के आधार पर डीएनए टेस्ट नहीं किया जा सकता।

4. बलात्कार, चाहे पति द्वारा किया जाए या कोई और करे, फिर भी बलात्कार ही रहेगा

कर्नाटक हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि एक पुरुष केवल इस आधार पर दुष्कर्म के आरोप से नहीं बच सकता कि पीड़िता उसकी पत्नी है। अदालत ने इसे समानता के अधिकार के खिलाफ बताया और कहा कि बलात्कार, चाहे पति द्वारा किया जाए या कोई और करे, फिर भी बलात्कार ही रहेगा।

लेकिन सवाल यह उठता है कि महिलाओं के सामाजिक अधिकारों को स्थापित करने की पहल हमेशा न्यायपालिका ही क्यों करती है? समाज, सरकार और सामाजिक संस्थाएं इस दिशा में पहले कदम क्यों नहीं उठातीं? लैंगिक असमानता से जुड़े मुद्दों पर न्यायपालिका के बार-बार हस्तक्षेप करने की आवश्यकता क्यों पड़ती है?

न्यायिक फैसलों का समाज पर प्रभाव

हम सभी जानते हैं कि पारिवारिक और सामाजिक रूढ़ियों के कारण महिलाओं को विकास के कम अवसर मिलते हैं, जिससे उनका व्यक्तिगत और आर्थिक विकास प्रभावित होता है।

भारतीय सामाजिक परिप्रेक्ष्य में ये फैसले बेहद महत्वपूर्ण साबित होते हैं। अदालतों द्वारा महिलाओं के पक्ष में दिए गए ये फैसले लैंगिक समानता की दिशा में समाज की मानसिकता को बदलने में मदद करते हैं। जब न्यायपालिका लैंगिक समानता का समर्थन करती है, तो समाज में भी इस पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

वर्तमान समय में बढ़ते अपराधों और रेप कल्चर को देखते हुए अदालतों द्वारा महिलाओं के अधिकारों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाना महत्वपूर्ण है। इससे महिलाओं को उनका हक मिलने की उम्मीद बढ़ती है।

महिलाओं के अधिकारों के लिए न्यायपालिका अंतिम उम्मीद क्यों?

 बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर का कहना था – मैं किसी समाज की तरक्की इस बात से देखता हूं कि वहां महिलाओं ने कितनी तरक्की की है। इसी को ध्यान रखकर बाबा साहब ने संविधान में भारतीय पुरुष और स्त्री दोनों को समान अधिकार दिये हैं।

भारतीय समाज में लैंगिक असमानता को खत्म करने के लिए उन्होंने बाकायता संविधान के भाग-3 में अनुच्छेद 14 से लेकर अनुच्छेद 18 तक समता का अधिकार का उल्लेख किया है, इसमें कहा गया है कि राज्य किसी नागरिक के खिलाऒ सिर्फ धर्म, मूल, वंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई भेद नहीं करेगा।

अनुच्छेद 16 में तो रोजगार या किसी भी सार्वजनिक पद पर नियुक्ति के मामलों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता का स्पष्ट उल्लेख भी शामिल है, इस लिहाज से कार्यों को लिंग के आधार पर बांटना पूर्णत: गैरकानूनी और असंवैधानिक है। बावजूद इसके सामाजिक और राजनीतिक सतह पर महिलाओं के साथ लगातार गैर-बराबरी का सलूक किया जाता रहा है।

न्याय प्रणाली बन गई है महिलाओं की अंतिम उम्मीद

इसे विडंबना ही कहा जा सकता है कि संविधान का स्पष्ट प्रावधान होने के वाबजूद हमारे देश में महिलाओं को अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए लड़ाई लड़नी पड़ती है।

जन्म से लेकर मृत्यु तक शिक्षा से लेकर रोजगार तक और घर की चारदीवारी से लेकर बाहर खुली सड़क पर, हर जगह लैंगिक भेदभाव स्पष्ट नजर आता ऐ। इस भेदभाव को कायम रखने में सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पहलू बहुत बड़ी भूमिका निभाते है। दरअसल, आज भी हमारा समाज महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक समझता है।

विकास के पथ पर अग्रसर समाज में जहां महिलाओं को देवी की उपाधी से नवाज़ा जाता है, यह बेहद हास्यापद स्थिति है कि काम हमें खूद करना चाहिए, उसे लागू करवाने के लिए भी न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ता है। उसपर भी जरूरी नहीं कि हर बार न्याय महिलाओं के हक में ही हो। फिर भी न्याय प्रणाली ही उनकी अंतिम उम्मीद है।

ग्लोबल जेंडर गैप इडैक्स में कुल 144 देशों की सूची में भारत का स्थान कभी शीर्ष के तालिका में होता ही नहीं है। वह हर साल नीचे के तरफ खिसकता जा रहा है।

anshu kumar

बेगूसराय, बिहार की रहने वाली अंशू कुमार ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से एमफिल और पीएचडी पूरी की है। उनकी कविताएँ सदानीरा, हिंदवी, हिन्दीनामा और अन्य पर प्रकाशित हुई है समकालीन विषयों पर उनके लेख नियमित रूप से अखबारों  और डिजिटल प्लेटफार्म में पब्लिश होते रहते हैं। वर्तमान में वह अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में रिसर्च फेलो के रूप में कार्यरत हैं।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
Translate »
‘सुपर वुमन’ एक सामाजिक निर्माण है, हकीकत नहीं। हज़रत महल: गुलामी से राजमहल तक का सफर आधुनिक तकनीक ने महिलाओं को समस्याओं को आज़ाद किया… न्याय की नई राह: महिलाओं के हक़ में ऐतिहासिक फैसले “गर्मी में सेहत का साथी – पिएं सत्तू, रहें फिट और कूल!”