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धार्मिक पर्व, सांस्कृतिक आदर्श और महिलाओं का अदृश्य श्रम

त्योहारों की रौनक के पीछे छिपा है महिलाओं का अनदेखा परिश्रम, जो उन्हें सांस्कृतिक सीमाओं में बांधकर पितृसत्ता को पोषित करता है।

भारत में धार्मिक पर्व केवल आध्यात्मिक आस्था और उत्सव के अवसर नहीं हैं, बल्कि वे समाज के सामूहिक संस्कार और मूल्यों को आकार देने वाले सांस्कृतिक आयोजन हैं।

दशहरा, दीपावली, होली, ईद, गुरुपर्व, क्रिसमस—हर त्योहार के साथ कोई न कोई सामाजिक संदेश जुड़ा होता है। ये पर्व सामूहिकता, करुणा, सहयोग, स्वच्छता, सत्य की विजय, और प्रकृति के सम्मान जैसे आदर्शों का प्रसार करते हैं।

इस दृष्टि से धार्मिक पर्व आज भी प्रासंगिक हैं क्योंकि वे सामाजिक ताने-बाने को मज़बूती देने का कार्य करते हैं।

लेकिन इसी सांस्कृतिक आदर्शवाद के भीतर एक गहरी विडंबना छिपी हुई है—ये पर्व जिन मूल्यों की शिक्षा देते हैं, उन्हीं के आयोजन में एक वर्ग का श्रम, विशेषकर महिलाओं का श्रम, अदृश्य रह जाता है।


सांस्कृतिक आदर्शों की शक्ति

धार्मिक पर्व हमारे सामाजिक व्यवहार में नैतिक अनुशासन और उत्सवधर्मिता का संतुलन लाते हैं।

दीवाली से पहले घर की सफाई का चलन केवल स्वच्छता का संदेश नहीं है, बल्कि उसमें श्रम, व्यवस्था, और पर्यावरण के प्रति चेतना का समावेश भी होता है। रमज़ान का रोज़ा आत्म-अनुशासन, आत्म-मंथन और ज़रूरतमंदों की चिंता का प्रतीक बनता है। छठ पूजा प्रकृति और सूर्य के प्रति कृतज्ञता की अनूठी अभिव्यक्ति है, तो ईद या क्रिसमस मेल-मिलाप और भाईचारे का प्रतीक।

इन त्योहारों के आदर्श हमें समय के साथ जोड़ते हैं, सामूहिक स्मृति में हमारी जगह बनाते हैं और पीढ़ियों के बीच मूल्यों का स्थानांतरण सुनिश्चित करते हैं।


दीपिका विवाद और फिल्म इंडस्ट्री में श्रम अधिकारों की अनदेखी



लेकिन किसकी कीमत पर? त्योहारों में महिलाओं का अदृश्य श्रम

त्योहारों की तैयारी, सजावट, साफ-सफाई, पकवान, वस्त्र, मेहमानों का स्वागत—इन सभी कार्यों की ज़िम्मेदारी मुख्यतः महिलाओं पर होती है।

यह श्रम अक्सर “प्यार से किया गया काम” या “कर्तव्य” के नाम पर वैधता पाता है, लेकिन इसकी कोई सार्वजनिक या पारिवारिक मान्यता नहीं होती। इसे श्रम माना ही नहीं जाता, जबकि यह न केवल शारीरिक परिश्रम है, बल्कि मानसिक और भावनात्मक श्रम भी है।

उदाहरण के लिए:

  • छठ पूजा में महिला उपासक व्रति बनती हैं, लेकिन उनकी तैयारी में 3-4 दिन तक लगातार उपवास, साफ-सफाई, पकवान बनाना, पूजा की तैयारी—यह सब शुद्धता और तपस्या की कसौटी पर होता है।

  • करवा चौथ में सौभाग्य की कामना के नाम पर महिलाओं से पूरे दिन उपवास की अपेक्षा की जाती है, जबकि पुरुष इस श्रम से मुक्त रहते हैं।

  • दीवाली के ‘घर की लक्ष्मी’ विचार में महिलाएं पूजा की केंद्र बनती हैं, लेकिन उससे पहले उन्हें दिनों तक घर की सफाई, रंगाई-पुताई और रसोई में श्रम करना होता है, जिसकी कोई गिनती नहीं होती।

इन त्योहारों में महिलाओं को दोहरा बोझ झेलना पड़ता है—एक ओर आयोजन की सफलता की ज़िम्मेदारी, दूसरी ओर सांस्कृतिक रूप से आदर्श स्त्री बने रहने का दबाव।


धार्मिक पर्व और पितृसत्ता की चौहद्दी

इन पर्वों के भीतर महिलाओं की भूमिका चाहे जितनी महत्वपूर्ण हो, उन्हें तयशुदा दायरे में बांध दिया जाता है। वे ‘पूजा करने वाली’, ‘सेवा करने वाली’, ‘धार्मिक नियमों की पालक’ के रूप में प्रतिष्ठित होती हैं, लेकिन निर्णय लेने वाली, पुरुषों के बराबर धार्मिक अधिकार रखने वाली, या स्वतंत्र उत्सवकर्ता नहीं।

  • सत्यनारायण पूजा में महिलाओं की भूमिका व्रत रखने, प्रसाद बनाने और कथा सुनने की होती है, लेकिन पूजा की मुख्य भूमिका पुरुष पुरोहित या घर के पुरुष सदस्य निभाते हैं।

  • मुस्लिम समाज में ईद की नमाज़ में महिलाओं की भागीदारी कम या न के बराबर रहती है, भले ही रोज़ा रखने में वे पुरुषों से पीछे नहीं हैं।

  • जैन पर्व पर्युषण में भी संयम और उपवास में महिलाएं आगे रहती हैं, लेकिन प्रवचन देने या निर्णय लेने में पुरुष संन्यासियों का प्रभुत्व रहता है।

इस तरह धार्मिक पर्व महिलाओं को एक ‘पवित्रता’ के खोल में बांधते हैं—जहां उनकी धार्मिकता को मान्यता तो मिलती है, लेकिन अधिकार या निर्णय की बराबरी नहीं।


वैकल्पिक दृष्टिकोण: स्त्री की धार्मिक चेतना और प्रतिरोध

यह भी सच है कि महिलाओं ने इन्हीं पर्वों के भीतर अपनी धार्मिक चेतना और सामूहिकता को विकसित किया है। व्रत-पूजा समूहों में महिलाएं एक-दूसरे से जुड़ती हैं, पारिवारिक वर्चस्व से बाहर संवाद स्थापित करती हैं, और कई बार इन्हीं माध्यमों से अधिकार की भाषा भी गढ़ती हैं।

  • छठ पूजा में महिला व्रतियों की आत्मनिर्भरता और संकल्प शक्ति एक सांस्कृतिक प्रतिरोध है—जिसमें वे अपने शरीर और आस्था पर नियंत्रण रखती हैं।

  • सावन की कजरी और झूला गीतों में महिलाएं सामाजिक बंधनों और दर्द को गीतों के माध्यम से साझा करती हैं, यह भी एक प्रकार का सामूहिक प्रतिरोध है।

  • हाल के वर्षों में ईको-फ्रेंडली होली या दीवाली के पीछे भी कई महिला नेतृत्व वाले आंदोलनों की भूमिका रही है, जो धार्मिक पर्वों को पर्यावरण और स्वास्थ्य के अनुकूल बनाने की दिशा में काम कर रही हैं।


मीडिया और बाजार का प्रभाव

आज धार्मिक पर्वों के सांस्कृतिक आदर्शों को मीडिया और बाज़ार ने नए रूप में प्रस्तुत किया है। विज्ञापनों में “मां की दीवाली”, “पत्नी के व्रत से लंबी उम्र” जैसे संदेश उन पितृसत्तात्मक भूमिकाओं को और मजबूत करते हैं, जिनमें महिला का त्याग और सेवा आदर्श माने जाते हैं।

वहीं दूसरी ओर, त्योहारों पर “गिफ्टिंग”, “फूड ब्लॉग्स”, और “फेस्टिव डेकोर” के नाम पर महिलाओं के श्रम को एक सुंदर ब्रांडेड ढांचे में बांध दिया गया है, जहां मेहनत को ‘क्रिएटिविटी’ के रूप में दिखाया जाता है, न कि श्रम के रूप में पहचाना जाता है।


 सांस्कृतिक आदर्शों की पुनर्व्याख्या की ज़रूरत

धार्मिक पर्वों के सांस्कृतिक आदर्श समाज को दिशा देने का कार्य करते हैं, लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि इन आदर्शों के संचालन में कौन कितना योगदान दे रहा है, और किसकी भूमिका अदृश्य बनी हुई है।

यदि हमें इन पर्वों को वास्तव में समावेशी और प्रगतिशील बनाना है, तो जरूरी है कि:

  1. महिलाओं के घरेलू और भावनात्मक श्रम को मान्यता दी जाए।

  2. धार्मिक आयोजनों में निर्णय की भागीदारी और नेतृत्व की जगह उन्हें दी जाए।

  3. आस्था के नाम पर त्याग और तपस्या को स्त्रीधर्म के रूप में प्रस्तुत करने से बचा जाए।

  4. मीडिया और बाजार द्वारा बनाए गए आदर्श स्त्री के ढांचे पर सवाल उठाया जाए।

धार्मिक पर्व तभी प्रासंगिक रहेंगे जब वे केवल परंपरा का पालन न हों, बल्कि नए सामाजिक संबंधों और बराबरी की चेतना को जन्म देने वाले सांस्कृतिक अवसर बनें।

saumya jyotsna

मेरी कलम मेरे जज़्बात लिखती है, जो अपनी आवाज़ नहीं उठा पाते, उनके अल्फाज़ लिखती है। Received UNFPA-Laadli Media and Advertising Award For Gender Senstivity -2020 Presently associated with THIP- The Healthy Indian Project.

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