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दीपिका विवाद और फिल्म इंडस्ट्री में श्रम अधिकारों की अनदेखी

क्या दीपिका के मातृत्व अवकाश की मांग इसलिए विवादित हुई क्योंकि वह महिला हैं? क्या अगर यही मांग एक पुरुष स्टार अपने पितृत्व अवकाश के लिए करता, तो भी इतनी नाराज़गी होती?

“जब एक स्टार सेट पर आता है, वह केवल ग्लैमर नहीं लाता, बल्कि काम के घंटे, अनुबंध, और एक पूरी कार्य-संस्कृति का बोझ भी ढोता है।”

पिछले कुछ हफ्तों में दीपिका पादुकोण और निर्देशक संदीप रेड्डी वांगा के बीच फिल्म स्पिरिट को लेकर जो विवाद उभरा, उसने न केवल एक फिल्म की प्रोडक्शन प्रक्रिया को प्रभावित किया, बल्कि बॉलीवुड के सबसे अनछुए कोनों में छिपी समस्याओं को सतह पर ला दिया।

जहां एक ओर दीपिका की गर्भावस्था और संभावित मातृत्व अवकाश की मांग ने उनके अधिकारों को केंद्र में रखा, वहीं पंकज त्रिपाठी जैसे कलाकारों द्वारा काम के घंटे तय करने की मांग ने यह सवाल उठाया कि क्या फिल्म इंडस्ट्री वाकई में एक उद्योग है या केवल अनियमित मनोरंजन क्षेत्र?

यह लेख इन दोनों विषयों को जोड़ते हुए एक व्यापक परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करता है—जहां ग्लैमर के पीछे श्रम, अधिकार और असमानता की गहरी कहानी छिपी है।


बॉलीवुड की चमक के पीछे श्रम का अंधेरा

भारतीय फिल्म उद्योग को औपचारिक रूप से “इंडस्ट्री” का दर्जा भले ही मिल गया हो, लेकिन इसकी कार्यशैली अभी भी असंगठित क्षेत्रों से बहुत अलग नहीं है।

न तो तयशुदा कार्य घंटे हैं, न ही वेतन संरचना और न ही मातृत्व या पितृत्व अवकाश जैसी नीतियाँ जो किसी भी आधुनिक कार्यस्थल की बुनियाद होती हैं।

स्टूडियो में तकनीशियन, स्पॉटबॉय, मेकअप आर्टिस्ट और जूनियर आर्टिस्ट्स 12–14 घंटे की शिफ्ट में काम करते हैं, बिना किसी ओवरटाइम सुविधा के। जबकि अभिनेताओं के लिए? वहाँ तो एक ‘स्टार कल्चर’ है, जहां अनुशासन, संवेदनशीलता और श्रम अधिकारों को उनके ‘ब्रांड वैल्यू’ के नाम पर धता बताया जाता है।


दीपिका का मामला: मातृत्व की मांग या पेशेवर अनुशासनहीनता?

जब एक शीर्ष अभिनेत्री मातृत्व अवकाश की बात करती है और निर्माता को इसके लिए तैयार नहीं पाता, तो सवाल केवल एक शूटिंग शेड्यूल का नहीं रह जाता। यह उन सभी महिलाओं का सवाल बन जाता है जो पेशेवर दुनिया में ‘माँ’ बनने के अधिकार के साथ सम्मान और सुविधाओं की हकदार हैं।

हॉलीवुड में यह कोई नई बात नहीं है—अभिनेत्रियाँ गर्भावस्था के दौरान अपने अनुबंधों में लचीलापन प्राप्त करती हैं। लेकिन भारत में, यह एक “अनुग्रह” बनकर रह गया है, अधिकार नहीं।

क्या दीपिका के मातृत्व अवकाश की मांग इसलिए विवादित हुई क्योंकि वह महिला हैं? क्या अगर यही मांग एक पुरुष स्टार अपने पितृत्व अवकाश के लिए करता, तो भी इतनी नाराज़गी होती?


पंकज त्रिपाठी की आवाज़: ‘8 घंटे काम करो, इंसान हो तुम मशीन नहीं’

पंकज त्रिपाठी द्वारा उठाया गया यह सवाल—”क्यों नहीं फिल्म इंडस्ट्री में भी 8 घंटे की शिफ्ट हो सकती?”—पूरे उद्योग के ढांचे पर चोट करता है। जहां बड़े सितारे तो महंगे होटल और वैनिटी वैन में आराम कर लेते हैं, वहीं लोअर क्रू और तकनीकी स्टाफ अक्सर 14 घंटे से भी ज्यादा समय तक खड़े रहकर काम करते हैं।

कई बार तो महिला क्रू को सुरक्षा, सेनेटरी सुविधा, और ब्रेक्स जैसी बुनियादी चीज़ों के लिए भी जूझना पड़ता है। यहीं से श्रम अधिकारों की बात एक ज़रूरत नहीं, बल्कि आंदोलन बन जाती है।


बॉलीवुड बनाम कॉर्पोरेट: समानता की तलाश

जब भारत में कॉर्पोरेट सेक्टर महिलाओं के लिए क्रेच सुविधा, पेड मैटरनिटी लीव और पेरेंटल पॉलिसी को अनिवार्य करता है, तो फिल्म इंडस्ट्री इससे पीछे क्यों रह जाए?

बॉलीवुड जैसी प्रभावशाली इंडस्ट्री को चाहिए कि वह खुद को केवल ‘ग्लैमर हब’ न माने, बल्कि एक संगठित कार्यस्थल की जिम्मेदारियाँ भी उठाए। SAG-AFTRA जैसी यूनियनें अमेरिका में कलाकारों के अधिकारों के लिए काम करती हैं—

भारत में भी CINTAA जैसी संस्थाओं को सिर्फ नाम के लिए नहीं, बल्कि प्रभावशाली भूमिका निभाने की ज़रूरत है।



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मजदूरी बनाम स्टार फीस: न्याय का सवाल

जब एक अभिनेता एक दिन की शूटिंग के लिए 50 लाख रुपये लेता है और एक सहायक निर्देशक को महीने भर की मेहनत के लिए 30 हजार भी मुश्किल से मिलते हैं, तो यह केवल वर्गीय असमानता नहीं, बल्कि नैतिक असंतुलन भी है।

जरूरत है एक पारदर्शी और न्यायसंगत वेतन संरचना की, जहां केवल “ब्रांड वैल्यू” नहीं, बल्कि मेहनत, घंटे और योगदान के आधार पर भुगतान तय हो।


समाधान की ओर कदम: अब क्या किया जाए?

  1. कानूनी ढाँचा सुदृढ़ किया जाए:

    • फिल्म इंडस्ट्री को श्रम कानूनों के अंतर्गत लाना अब समय की मांग है।

    • शिफ्ट, ब्रेक, ओवरटाइम और छुट्टी जैसे मानक तय हों।

  2. मातृत्व/पितृत्व अधिकार सुनिश्चित हों:

    • महिलाओं के लिए सुरक्षित वर्किंग स्पेस, मातृत्व अवकाश और पुनः प्रवेश नीतियाँ बनाई जाएं।

    • क्रेच सुविधा को अनिवार्य किया जाए।

  3. यूनियन को अधिकार दें:

    • CINTAA और FWICE जैसे संगठनों को मज़बूत करें, जिससे वे कलाकारों और तकनीशियनों के लिए समान रूप से आवाज़ उठा सकें।

    • Freelancers और Women Crew के लिए अलग सेल बनाई जाए।

  4. फीस और मजदूरी में न्याय हो:

    • टियर-वाइज पेमेन्ट स्ट्रक्चर विकसित हो, जिससे लोअर रैंकिंग वर्कर्स की भी सुरक्षा हो।

    • स्टार फीस को अनुबंधित घंटे से जोड़ा जाए।


 यह बदलाव अब रुकेगा नहीं

दीपिका का मातृत्व हो या पंकज त्रिपाठी की आवाज़—यह केवल व्यक्तिगत मांगें नहीं, बल्कि एक पूरी पीढ़ी के श्रमिक अधिकारों की दबी हुई पुकार हैं।

आज फिल्म इंडस्ट्री को दो में से एक राह चुननी है—या तो वह बदलाव को अपनाकर एक समावेशी और न्यायपूर्ण इंडस्ट्री बने, या फिर अपनी ‘स्टार संस्कृति’ में उलझकर पीछे रह जाए।

आज कलाकार सिर्फ अभिनय नहीं कर रहे, वे बदलाव का चेहरा बन रहे हैं।  यह चेहरा अब किसी मेकअप से नहीं ढंका जा सकता।

Pratyush Prashant

किसी भी व्यक्ति का परिचय शब्दों में ढले, समय के साथ संघर्षों से तपे-तपाये विचार ही दे देते है, जो उसके लिखने से ही अभिव्यक्त हो जाते है। सम्मान से जियो और लोगों को सम्मान के साथ जीने दो, स्वतंत्रता, समानता और बधुत्व, मानवता का सबसे बड़ा और जहीन धर्म है, मुझे पूरी उम्मीद है कि मैं अपने वर्तमान और भविष्य में भी इन चंद उसूलों के जीवन जी सकूंगा और मानवता के इस धर्म से कभी मुंह नहीं मोड़ पाऊगा।

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