गांव की महिलाएं, शहर की उम्मीदें: माइग्रेशन और अकेलापन
गांव की महिलाएं और माइग्रेशन: अकेलेपन और उम्मीदों की अनसुनी कहानी

भारत का गांव अब भी अपनी जड़ों में जिंदा है, पर उसकी आत्मा धीरे-धीरे शहरों की ओर खिसकती जा रही है। खेत अब भी वहीं हैं, कुएं-तालाब, चौपाल और मंदिर भी वहीं हैं, लेकिन जो नहीं हैं, वे हैं गांव के वे पुरुष, जो शहर चले गए हैं—
काम की तलाश में, जीवन की बेहतर संभावनाओं के लिए और जो पीछे रह गई हैं, वे हैं स्त्रियां—गांव की महिलाएं—जो समय, संबंध और सपनों के बीच कहीं अटक गई हैं।
ये स्त्रियां अपने पुरुषों को विदा करते समय सिर्फ एक रुमाल नहीं लहरातीं, वे अपने हिस्से की नींद, उम्मीद और साज भी उनके साथ रवाना कर देती हैं। जब कोई व्यक्ति शहर जाता है, वह वहां अपने लिए कुछ कमाने जाता है, पर स्त्री के हिस्से सिर्फ इंतज़ार आता है—और वह भी अनिश्चितता से भरा।
गांव की इन महिलाओं का जीवन एक लंबी प्रतीक्षा है। यह प्रतीक्षा चिट्ठियों से शुरू होकर मोबाइल कॉल्स तक आई है, पर उसका मिज़ाज नहीं बदला। पहले कभी-कभार डाकिया खुशखबरी लाता था, अब एक अधूरी घंटी उन्हें तसल्ली दे जाती है।
परंतु इन कॉल्स, संदेशों और आवाजों के बीच जो नहीं आता, वह है उनका अपना ‘अस्मिता’। उनका ‘स्व’ जैसे कहीं खो गया है, क्योंकि वे केवल किसी की मां, किसी की पत्नी या किसी की बहू बनकर ही गांव में टिकाई गई हैं।
ग्रामीण महिलाओं के मौन पर साहित्य में अभिव्यक्ति
समकालीन साहित्य इस मौन संघर्ष को उजागर करता है। गीतांजलि श्री का उपन्यास ‘रेत समाधि’ एक ऐसी वृद्धा की कहानी कहता है जो जीवनभर मौन सहमति में जीती रही—कभी बेटी बनकर, कभी पत्नी, फिर मां और अंत में एक छाया। उसकी अपनी कोई आकांक्षा नहीं थी, और अगर थी भी तो समाज ने उसे दबा दिया।
गांव की महिलाओं का जीवन अक्सर ऐसी ही ‘रेत समाधि’ बन जाता है—जहां सपनों को दफन किया जाता है, और उम्मीदों को सिर्फ दूसरों की सेवा में खपाया जाता है।
इसी तरह, ‘पीपली लाइव’ जैसी फिल्मों में, जब कोई पुरुष आत्महत्या कर लेता है या शहर चला जाता है, तो फोकस अक्सर उसी पर रहता है—मीडिया की भी, दर्शकों की भी। पर उस स्त्री पर कोई ध्यान नहीं देता जो पीछे खेत और बच्चों को संभालती है। वह न न्यूज़ में आती है, न पोस्टरों में; लेकिन उसकी पीठ पर पूरे गांव की अर्थव्यवस्था टिकी रहती है।
माइग्रेशन केवल आर्थिक ही नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक और सामाजिक भी होता है
आज जब माइग्रेशन पर चर्चा होती है, तो उसे सिर्फ आर्थिक मुद्दा मान लिया जाता है। पर इसका एक गहरा मनोवैज्ञानिक और सामाजिक पक्ष है, जो स्त्रियों की भावनात्मक दुनिया को खामोशी से निगल रहा है। वह हर दिन सूरज की तरह उगती है, पर शाम होते-होते थक कर अपने अंधेरे में लौट जाती है। और यह अंधेरा सिर्फ बिजली न होने का नहीं, संवाद न होने का भी है।
एक औरत जो गांव में रहती है, वह केवल खेतों की मजदूर नहीं होती, वह रिश्तों की बुनकर भी होती है। वह बच्चों को पिता की गैरमौजूदगी में समझदारी सिखाती है, बुजुर्गों को सहारा देती है, और खुद को हर सुबह फिर से तैयार करती है—बिना किसी अपने के कंधे पर सिर रखे। यह अकेलापन महज़ भौतिक दूरी से नहीं उपजता, यह भावनात्मक उपेक्षा से उपजता है।
शहर की चिट्ठियों में अब गांव की बातें कम होती हैं। औरतें जानती हैं कि उनके खत शायद पढ़े जाएं, लेकिन समझे नहीं जाएंगे। इसीलिए वे खुद ही अपने भीतर एक नया गांव बना लेती हैं—जहां कोई शिकवा नहीं, कोई अभिलाषा नहीं, सिर्फ एक चुप स्वीकृति है। यह स्वीकार कि उनका जीवन दूसरों की सेवा में ही बीतेगा।
ग्रामीण महिलाएं बदलाव की पहल कर रही है
बदलते समय के साथ यह भी देखने को मिला है कि कई बार गांव की महिलाएं अब खुद खेत से हटकर गांव के स्कूलों, स्वयं सहायता समूहों या पंचायतों में जगह बना रही हैं।
‘जल सखी’, ‘रसोई सहायता समूह’, ‘सखी मंडल’ जैसे उदाहरण ये बताते हैं कि गांव की महिलाएं अब सिर्फ इंतज़ार करने वाली नहीं, बदलाव लाने वाली भी बन रही हैं।
पर इसके बावजूद, उनकी सामाजिक स्थिति अब भी अधूरी है, क्योंकि पुरुष की अनुपस्थिति उनके ‘संपूर्ण’ जीवन को कभी पूरा नहीं होने देती।
शहरों में जाने वाले पुरुष कई बार दूसरी दुनिया में रम जाते हैं। कई बार उनके जीवन में नए रिश्ते आ जाते हैं, या पुरानों से संवाद टूट जाता है। तब गांव की स्त्री न सिर्फ अकेली होती है, बल्कि अनिश्चितता में भी जीती है। उसका कोई नाम नहीं, बस पहचान है—‘उसकी पत्नी’, ‘उसकी मां’। वह खुद क्या है, ये सवाल वह शायद ही कभी पूछती है।
ऐसे में, अगर कोई उसे शहर बुला भी ले, तो वह वहां भी पूरी नहीं हो पाती। शहर की रफ्तार में उसकी भाषा, चाल, कपड़े, व्यवहार सब पीछे रह जाते हैं। वह वहां एक ‘पिछड़े गांव’ की पहचान बन जाती है—जिसे कभी समझा नहीं जाता, बस सहा जाता है।
शायद इसलिए गांव की ये महिलाएं लौटती नहीं, पर रुकती भी नहीं। वे समय के सबसे बड़े संतुलनकर्ता बन जाती हैं। वे गांव की मिट्टी में पांव जमाकर शहर की उम्मीदें अपने सिर पर उठाए चलती हैं।
माइग्रेशन केवल आर्थिक घटना नहीं, यह रिश्तों और आत्माओं का विस्थापन भी है। गांव की महिलाएं इस विस्थापन की सबसे बड़ी अनकही कहानियां हैं—जो बोलती नहीं, पर जीती हैं। जो शहर की चकाचौंध में नहीं दिखतीं, पर गांव की रौशनी उन्हें ही थामे हुए है।

लेखक वनस्पति विज्ञान के प्राध्यापक रह चुके है। संप्रति होम्योपैथी चिकित्सा-पद्धति के जरिए लोगों की सेवा। नई दिल्ली और मुबंई निवास