
अच्छी लड़की बनो”, “लड़कियाँ ऐसा नहीं करतीं”, “चुप रहो, ज्यादा मत बोलो” — ये वाक्य हमारे समाज में लड़कियों को दी जाने वाली सबसे सामान्य ‘सलाहों’ में से हैं।
गुड गर्ल सिंड्रोम’ कोई चिकित्सीय रोग नहीं, बल्कि एक सामाजिक मानसिकता है, जो बचपन से ही लड़कियों पर थोपी जाती है — उन्हें ‘संस्कारी’, ‘शालीन’, ‘शांत’ और ‘आज्ञाकारी’ बनाने के नाम पर।
‘गुड गर्ल सिंड्रोम’ की परिभाषा क्या है?
यह सिंड्रोम किसी मेडिकल मैनुअल में दर्ज नहीं, लेकिन समाज के व्यवहार में गहराई से पैठा हुआ एक सामूहिक मनोवैज्ञानिक दबाव है, जो लड़कियों को एक आदर्श सांचे में ढालता है। और इस सांचे के भीतर जो भी लड़की फिट नहीं बैठती — वह ‘बद्तमीज़’, ‘बोल्ड’, ‘बिगड़ी हुई’ और यहां तक कि ‘चरित्रहीन’ तक करार दी जाती है।
इस ‘अच्छी लड़की’ की अवधारणा से पैदा हुआ यह दबाव इतना गहरा है कि कई बार महिलाएं खुद भी नहीं समझ पातीं कि वे अपने निर्णय क्यों नहीं ले पा रहीं, क्यों उन्हें ‘ना’ कहने में डर लगता है, और क्यों वे अपनी असहमति व्यक्त नहीं कर पातीं।
असल में ‘गुड गर्ल सिंड्रोम’ एक लैंगिक सामाजिक प्रशिक्षण है, जो लड़कियों को यह सिखाता है कि उनका मूल उद्देश्य दूसरों को खुश रखना है — चाहे वह पिता हो, भाई, पति, प्रेमी, ससुराल या समाज। इस मानसिकता में स्वयं को प्राथमिकता देना स्वार्थ समझा जाता है। जबकि यही बात लड़कों के लिए ‘आत्मनिर्भरता’ और ‘नेतृत्व’ कहलाती है। यही लैंगिक दोहरापन इस सिंड्रोम की जड़ है।
एक लड़की जब बड़े सपने देखती है, सवाल पूछती है, ‘ना’ कहती है या अपनी इच्छाओं को स्पष्ट करती है — तो अक्सर वह एक असहजता को जन्म देती है। यह असहजता सिर्फ पुरुषों में नहीं, बल्कि कई बार महिलाओं में भी होती है, जो उसी सामाजिक प्रशिक्षण का हिस्सा रही हैं। ‘अच्छी लड़की’ की यह रूढ़ छवि पीढ़ियों से चली आ रही है और पीढ़ियाँ इसी को परंपरा, संस्कृति और मर्यादा का नाम देती आई हैं।
‘संस्कार’ बनाम स्वतंत्रता: टकराव क्यों?
‘संस्कारी छवि’ की कीमत लड़कियों को चुकानी पड़ती है — स्वप्नों की हत्या के रूप में, करियर के अवसरों की बलि देकर, रिश्तों में दम घुटते हुए, और यहां तक कि हिंसा सहते हुए भी चुप रह जाने के रूप में। कई बार यह ‘गुड गर्ल’ सिंड्रोम लड़कियों को यह यकीन ही नहीं करने देता कि उन्हें अपने लिए भी कुछ माँगने या तय करने का अधिकार है।
मनोविज्ञान में इसे ‘प्लीज़िंग टेंडेंसी’ या ‘ओवर-कॉन्फॉर्मिटी’ के रूप में देखा जाता है — जहाँ लड़की अपने आत्मसम्मान को दूसरों की संतुष्टि पर टिका देती है। परिणामस्वरूप, वह एक ऐसा जीवन जीने लगती है जिसमें उसके फैसले उसके नहीं होते — वे या तो परिवार द्वारा लिए जाते हैं, या समाज के नाम पर थोपे जाते हैं।
यही कारण है कि उच्च शिक्षा प्राप्त, आत्मनिर्भर, कमाने वाली महिलाएं भी कई बार घरेलू हिंसा, शोषण या मानसिक उत्पीड़न में चुप रह जाती हैं, क्योंकि उनके भीतर बैठा ‘गुड गर्ल’ सिंड्रोम उन्हें विरोध करने नहीं देता।
वर्तमान समय में, जब लड़कियाँ विज्ञान, राजनीति, खेल, लेखन और टेक्नोलॉजी जैसे क्षेत्रों में आगे बढ़ रही हैं, तब भी यह मानसिक जाल उनकी राह में सबसे अदृश्य बाधा बनकर मौजूद है। वे कॉर्पोरेट दुनिया में मीटिंग्स तो अटेंड करती हैं, लेकिन ‘ज्यादा मत बोलो’ की ट्रेनिंग उनके भीतर आत्म-संशय पैदा करती है। वे सोशल मीडिया पर सक्रिय तो हैं, लेकिन ‘लोग क्या कहेंगे’ की परछाई हर पोस्ट पर मंडराती है।
मीडिया और पॉप कल्चर की भूमिका
मीडिया और पॉप संस्कृति ने भी इस सिंड्रोम को मजबूत करने में भूमिका निभाई है। जहाँ एक ओर टीवी सीरियल्स में ‘आदर्श बहू’ और ‘ममता की मूरत’ की छवियाँ बार-बार दोहराई जाती हैं, वहीं सोशल मीडिया पर ‘संस्कारी लेकिन ट्रेंडी’ लड़की की छवि को खूब बढ़ावा मिलता है। यह एक नया किस्म का दबाव है — जहाँ लड़की को आधुनिक भी दिखना है और ‘मर्यादा में’ भी रहना है।
परन्तु इस चक्रव्यूह को तोड़े बिना सच्ची समानता संभव नहीं। एक लड़की की स्वतंत्रता का मतलब सिर्फ बाहर निकलने की आज़ादी नहीं है, बल्कि भीतर से मुक्त होने की आवश्यकता भी है — अपने हक में बोलने की, अपनी असहमति को सम्मान देने की, और अपने निर्णय लेने की हिम्मत की। हमें लड़कियों को ‘अच्छी’ नहीं, ‘सचेत’, ‘स्वावलंबी’ और ‘ईमानदार’ इंसान बनने की आज़ादी देनी होगी।
इसलिए ‘गुड गर्ल सिंड्रोम’ को पहचानना और उसे चुनौती देना सिर्फ एक महिला का काम नहीं, बल्कि पूरे समाज की जिम्मेदारी है। जब हम अपने घरों, स्कूलों और संस्थानों में लड़कियों से सिर्फ ‘अच्छा’ नहीं बल्कि ‘खुद के लिए ईमानदार’ बनने की उम्मीद करेंगे, तब जाकर समाज में स्त्री की उपस्थिति एक सतही छवि से निकलकर वास्तविक अस्तित्व बन पाएगी।
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बेगूसराय, बिहार की रहने वाली अंशू कुमार ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से एमफिल और पीएचडी पूरी की है। उनकी कविताएँ सदानीरा, हिंदवी, हिन्दीनामा और अन्य पर प्रकाशित हुई है समकालीन विषयों पर उनके लेख नियमित रूप से अखबारों और डिजिटल प्लेटफार्म में पब्लिश होते रहते हैं। वर्तमान में वह अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में रिसर्च फेलो के रूप में कार्यरत हैं।