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मिर्ज़ा ग़ालिब और सर सैयद अहमद खां: आधुनिक भारत की बुनियाद के दो स्तंभ

ग़ालिब और सर सैयद: मुस्लिम समाज के पुनर्जागरण की दो धाराएँ | ऐतिहासिक विश्लेषण

“हुई मुद्दत के ग़ालिब मर गया पर याद आता है,
वो हर एक बात पे कहना कि यूँ होता तो क्या होता”

मिर्ज़ा ग़ालिब—उर्दू और फ़ारसी के शहंशाह शायर, सूफियाना तबीयत और फक्कड़ मिज़ाज शख़्स—मात्र साहित्य तक सीमित नहीं थे। वे ज़िंदगी, समाज और राजनीति पर भी गहरा नज़रिया रखते थे।

ग़ालिब का नज़रिया अक्सर तत्कालीन हालात पर तीखा और तार्किक होता था। वहीं सर सैयद अहमद खां—एक समाज-सुधारक, शिक्षाविद और आधुनिक सोच के पैरोकार—ने अपने जीवन को भारतीय मुसलमानों की सामाजिक और शैक्षिक तरक्की को समर्पित कर दिया।

ग़ालिब को आमतौर पर एक मस्तमौला, लापरवाह और फकीराना तबीयत वाला शायर समझा जाता है। उन्होंने खुद लिखा:

“क़र्ज़ की पीते थे मय, लेकिन समझते थे कि हाँ
रंग लाएगी हमारी फाक़ामस्ती एक दिन”

लेकिन इस आत्मभोगी छवि के पीछे एक चिंतनशील मस्तिष्क था, जिसे भारतीय मुसलमानों के भविष्य की चिंता सताती थी। उन्हें यह स्पष्ट दिख रहा था कि अब पारंपरिक शिक्षा पद्धति (फ़ारसी, अरबी आदि) मुसलमानों को आगे नहीं ले जा सकती। उन्होंने अंग्रेज़ी शिक्षा और विज्ञान को समय की ज़रूरत माना।

ग़ालिब और सर सैयद: एक रिश्ता, एक दिशा

ग़ालिब और सर सैयद के बीच पारिवारिक संबंध थे। ग़ालिब उम्र में सर सैयद से बीस साल बड़े थे और सर सैयद उन्हें सम्मान से “चचा ग़ालिब” कहते थे। आगे चलकर यही “चचा” अलीगढ़ आंदोलन और फिर उर्दू साहित्य में एक जनप्रिय उपाधि बन गया।

ग़ालिब ने सर सैयद को आधुनिक शिक्षा की दिशा में कार्य करने के लिए प्रेरित किया। सर सैयद उस समय इतिहास और पुरातत्व पर केंद्रित थे और अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “आसार-उस-सनादीद” पर काम कर रहे थे। जब ग़ालिब उनसे मिलते, तो उन्हें टोका करते कि इतिहास छोड़ो, और साइंस तथा आधुनिक शिक्षा पर काम करो।

1855 में सर सैयद ने मुगल दरबारी अबुल फ़ज़ल की रचना आइने अकबरी को नए सिरे से छापने का काम शुरू किया। वे इस प्राचीन ग्रंथ की विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना (तक़रीज़) लिखवाने के लिए मिर्ज़ा ग़ालिब के पास पहुँचे। ग़ालिब ने फारसी में 38 शेरों की एक कविता लिखी, जिसमें उन्होंने न सिर्फ आइने अकबरी की आलोचना की, बल्कि सर सैयद की सोच पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया।

ग़ालिब ने लिखा:

“मुर्दों की पूजा करना शुभ बात नहीं है,
और क्या तुम भी नहीं सोचते कि यह सिर्फ़ शब्दों से ज़्यादा कुछ नहीं है?”

उनकी नसीहत थी कि पुरानी मुगल विरासत पर ध्यान देने के बजाय अंग्रेजों द्वारा बनाए गए नए कानून, संविधान और विज्ञान की ओर ध्यान देना चाहिए। उन्होंने इंग्लैंड की प्रशंसा करते हुए लिखा कि:

“इंग्लैंड के साहिबों ने इस संसार के सभी आइनों की चाबियाँ पा ली हैं।”

इस तीखी आलोचना से दोनों के बीच नाराज़गी कई वर्षों तक रही। लेकिन अंततः सर सैयद ने पहल करके इस मनमुटाव को सुलझाया।

ग़ालिब की फारसी कविता मात्र तंज नहीं थी; उसमें भविष्य की आहट थी। उन्होंने लिखा कि: पुरानी किताबें अब संग्रहालय की वस्तुएँ होनी चाहिए, शिक्षा का आधार नहीं। विज्ञान और तकनीक की तरक्की ही समाज को आगे बढ़ा सकती है। अंग्रेज़ों की वैज्ञानिक उपलब्धियों को उन्होंने खुले मन से स्वीकारा और सर सैयद को भी वैसा करने का परामर्श दिया।

इसका असर यह हुआ कि सर सैयद ने इतिहास और पुरातत्व में रुचि लेना बंद कर दिया और अपने बौद्धिक प्रयासों का केंद्र शिक्षा सुधार पर केंद्रित कर लिया।


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1857 के बाद का बदलाव: सर सैयद की क्रांतिकारी शुरुआत

1857 की स्वतंत्रता संग्राम में मुसलमानों की भूमिका और उसके बाद हुई बर्बादी ने सर सैयद को झकझोर कर रख दिया। उन्होंने समझा कि मुसलमानों की तरक्की का एकमात्र रास्ता आधुनिक शिक्षा से होकर जाता है।

 

उन्होंने 1859: मुरादाबाद में गुलशन स्कूल,1861: गाज़ीपुर में विक्टोरिया स्कूल और 1863: साइंटिफिक सोसाइटी ऑफ इंडिया की स्थापना की।इन संस्थानों के माध्यम से उन्होंने अंग्रेज़ी शिक्षा, विज्ञान, और आधुनिक सोच को भारतीय मुसलमानों के बीच पहुँचाने की शुरुआत की।

भले ही ग़ालिब स्वयं कोई संस्थान न बना सके, लेकिन उनका दृष्टिकोण, आलोचना और सर सैयद को प्रेरित करना एक बौद्धिक योगदान था। उन्होंने यह पहले ही भांप लिया था कि अब वक़्त बदल गया है, और अतीत से चिपके रहना आत्मघाती हो सकता है। उनका तंज भरा लेकिन सच्चाई से लबरेज़ नज़रिया, कहीं न कहीं सर सैयद को नई राह पर लाने में सहायक रहा।

सर सैयद अहमद खां और मिर्ज़ा ग़ालिब—दोनो का व्यक्तित्व अलग था। एक संस्थापक थे, दूसरे विचारक। एक ने शिक्षा संस्थानों की नींव रखी, दूसरे ने विचारों की चिंगारी दी। अगर सर सैयद ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बनाई, तो ग़ालिब ने भविष्य की ओर देखने की ज़रूरत बताई।

इन दोनों की वैचारिक यात्रा हमें यह सिखाती है कि समाज सुधार केवल संस्थानों से नहीं, बल्कि विचारों से भी होता है


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Pratyush Prashant

किसी भी व्यक्ति का परिचय शब्दों में ढले, समय के साथ संघर्षों से तपे-तपाये विचार ही दे देते है, जो उसके लिखने से ही अभिव्यक्त हो जाते है। सम्मान से जियो और लोगों को सम्मान के साथ जीने दो, स्वतंत्रता, समानता और बधुत्व, मानवता का सबसे बड़ा और जहीन धर्म है, मुझे पूरी उम्मीद है कि मैं अपने वर्तमान और भविष्य में भी इन चंद उसूलों के जीवन जी सकूंगा और मानवता के इस धर्म से कभी मुंह नहीं मोड़ पाऊगा।

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