आसान नहीं है महिलाओं का लेखिका होना
महिला लेखन के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण, रूढ़िवादिता और नई पीढ़ी की मानसिकता का विश्लेषण

“लोग कहते थे — बदनामी लाएगी। आज वह बुकर प्राइज लेकर लौटी है।”
जब बानू मुश्ताक ने मिडिल स्कूल में पहली बार कलम उठाई, तो उनका रूढ़िवादी समाज चिढ़ गया।
रिश्तेदारों ने उनके पिता से कहा — “यह लड़की तो हमारा नाम मिट्टी में मिला देगी।”
लेकिन उनके पिता ने डटकर कहा — “मेरी बेटी की आवाज़ सुने जाने लायक है।” वे बानू की पढ़ाई के लिए समाज से लड़े।
बानू मुश्ताक ने Arranged Marriage ठुकराई और अपनी पसंद से शादी की।उनकी कहानियाँ पितृसत्ता, जाति और धर्म के ठहरे नियमों को खुली चुनौती देती हैं। आज, 77 साल की उम्र में, बानू मुश्ताक बनीं हैं पहली कन्नड़ लेखिका, जिन्हें International Booker Prize मिला है — उनकी किताब “Heart Lamp” के लिए।
बानू ने कहा: “यह ऐसे है जैसे हजारों जुगनू एक ही आसमान में चमक रहे हों — क्षणिक, चमकदार और पूरी तरह सामूहिक।” यह केवल एक पुरस्कार नहीं, हर उस लड़की के लिए उम्मीद की रौशनी है जिसे कभी चुप रहने को कहा गया।
बानू मुश्ताक महिला लेखिलाओं के चुनौतियों को सतह पर लाकर रख दिया है। प्रसिद्ध नारीवादी साहित्यिक आलोचक इलेन शोवाल्टर ने 19वीं सदी की महिला लेखिकाओं के विषय में कहा है कि उस समय उन्हें अपनी रचनाओं को पाठकों तक पहुँचाने के लिए पुरुषों के नाम का सहारा लेना पड़ता था।
इसका मुख्य कारण यह था कि उस दौर में लेखन पर पुरुषों का एकाधिकार था, और महिलाओं की रचनाओं को या तो सामने नहीं आने दिया जाता था, या फिर उन्हें तुच्छ समझा जाता था। अक्सर उनकी कहानियों को बच्चों या भूत-प्रेत की कहानियाँ कहकर लेखिका और उसकी रचना दोनों का उपहास किया जाता था।
यदि इस संदर्भ को आज के हिंदी साहित्य से जोड़कर देखें, तो स्थिति पहले जैसी तो नहीं रही, लेकिन चुनौतियाँ आज भी बनी हुई हैं। महिला लेखिकाओं की रचनाएँ सामने आ रही हैं, पर उनके साथ कई स्तरों की चुनौतियाँ जुड़ी होती हैं।
विचारधारात्मक चुनौती
सबसे पहली चुनौती विचारधारा के स्तर पर सामने आती है। यदि कोई महिला लेखिका परंपरागत सोच से हटकर प्रगतिशील विचारों का समर्थन करती है, तो उसे रूढ़िवादी विचारों से ग्रस्त पाठकों की तीखी आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है।
कुछ प्रगतिशील पाठक ऐसे लेखन की सराहना भी करते हैं। रूढ़िवादी पाठक अपने पूर्वग्रहों के साथ खड़े रहते हैं—पहला पूर्वग्रह उस प्रगतिशील सोच के विरुद्ध होता है जिसे लेखिका प्रस्तुत करती है, और दूसरा यह कि एक महिला इस तरह का लेखन कैसे कर सकती है।
ऐसे पाठकों का यह मानना है कि महिलाएँ केवल घर-गृहस्थी, खाना-पकाना, और सजावट जैसे विषयों तक सीमित रहनी चाहिए। लेकिन जब वे जेंडर असमानता, धार्मिक कट्टरता, जातिवाद, वर्गभेद या अन्य सामाजिक मुद्दों पर लिखती हैं, तो तथाकथित ‘संस्कृति रक्षक’ इस लेखन को सहन नहीं कर पाते और उसे दबाने के प्रयास करते हैं।
वरिष्ठ लेखिकाओं की स्थिति
आज कुछ वरिष्ठ महिला लेखिकाओं को सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा है क्योंकि उनके पास स्पष्ट शैली और समाज से संवाद का अनुभव है।
कई बार यह भी सुनने को मिलता है कि यह लेखन किसी महिला का हो ही नहीं सकता—इसकी शैली तो पुरुष लेखक की है। हिंदी समाज में अब भी इस प्रकार की भ्रांतियाँ व्याप्त हैं। कम उम्र की लड़कियाँ जब संवेदनशील मुद्दों पर लेखन करती हैं, तो समाज उन्हें संदेह की दृष्टि से देखता है।
परिवार और समाज के बुजुर्ग अक्सर यह मान लेते हैं कि वह ‘बिगड़ गई है’ या अनुभव की कमी के कारण ऐसा कर रही है। यदि इसे मनोविश्लेषणात्मक रूप में देखें, तो इसके पीछे पीढ़ियों का अंतराल एक बड़ा कारण है। बुजुर्गों को यह भय सताता है कि कहीं नई पीढ़ी, विशेषकर लड़कियाँ, सवाल उठाने लगें तो पारिवारिक सत्ता और ‘इज्जत’ पर संकट न आ जाए।
लेखिकाओं के प्रति समाज की मानसिकता
एक बड़ा वर्ग अब भी मानता है कि महिलाओं का कार्यक्षेत्र केवल घर की चहारदीवारी तक सीमित होना चाहिए। उन्हें महिला लेखन असहज करता है। ऐसे लोग इस लेखन को बंद करवाने या इसे महत्वहीन साबित करने के प्रयास करते हैं। वे लेखिकाओं का उपहास करते हैं, और कई बार प्रतिउत्तर में लेखन शुरू करते हैं, लेकिन यह प्रयास उन्हें कठिन और समय-साध्य लगता है। इसलिए वे ईमेल, फोन, पत्र या संदेश के माध्यम से अपनी प्रतिक्रियाएँ भेजते हैं—जो आसान और मानसिक रूप से कम चुनौतीपूर्ण होता है।
दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह भी है कि आज समाज में ऐसे युवाओं की संख्या कम नहीं है जो मानसिक कुंठा से पीड़ित हैं। उन्हें लेखन की विषयवस्तु से अधिक रुचि लेखिका की तस्वीर, फोन नंबर या पता जानने में होती है। वे लेखिका से बात करने या उसे देखने की इच्छा से प्रेरित होते हैं, न कि उसके विचारों से।
पाठन संस्कृति की गिरावट
आज अधिकांश मध्यमवर्गीय घरों में अख़बार या पत्रिकाएँ उपलब्ध होती हैं, लेकिन शायद ही कोई गृहिणी उन्हें पढ़ती हो। घर के अन्य सदस्य भी उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित नहीं करते। दुर्भाग्यवश, अधिकांश मध्यमवर्गीय लड़कियाँ भी इस ओर गंभीर नहीं होतीं। उनके लिए शॉपिंग, खेल या सीरियल देखना अधिक महत्वपूर्ण होता है।
जो कुछ लड़कियाँ इन लेखनों में रुचि रखती हैं, वे अक्सर केवल पढ़कर रह जाती हैं, प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर पातीं। परिवार और समाज उन्हें ऐसा करने से रोकते हैं, और यदि वे हिम्मत दिखाएँ भी, तो उनके पास आवश्यक संसाधन नहीं होते।
इन सभी नकारात्मक पहलुओं के बावजूद, यह कहना गलत होगा कि समाज में सभी लोग संवेदनशील मुद्दों को लेकर उदासीन हैं। कुछ लोग अब भी ऐसे हैं जो जेंडर भेदभाव और अन्य सामाजिक समस्याओं को गंभीरता से लेते हैं। यह अल्पसंख्यक वर्ग ही लेखिकाओं को प्रोत्साहित करता है और उनके लेखन को धार देता है। लेखक और पाठक के इस संवाद से लेखनी अधिक प्रभावशाली बनती है।
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डॉ. आकांक्षा मूलत: बिहार की रहने वाली हैं. इन्होने महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) से स्त्री अध्ययन विषय में एम.ए., एम.फिल. (स्वर्ण पदक) एवं डाक्टोरेट की डिग्री प्राप्त की हैं. मुख्यतौर पर जेंडर, ‘गांधी एवं अन्य सामाजिक मुद्दों पर स्वतंत्र रूप से लेखन – कार्य. अबतक कई प्रतिष्ठित समाचारपत्र, पत्रिकाओं, किताबों एवं आनलाईन पोर्टल्स पर इनके आलेख प्रकाशित हो चुके हैं. स्त्री मुद्दों पर युवा लेखन के लिए “गोदावरी देवी सम्मान” से सम्मानित. विभिन्न सामाजिक संस्थाओं के साथ जेंडर आधारित मुद्दों पर कार्य. स्त्री अध्ययन विभाग वर्धा एवं स्त्री अध्ययन केंद्र, पटना विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य. ‘गांधीयन सोसाइटी’ न्यू जर्सी अमेरिका एवं इंडिया द्वारा डॉ. एस. एन. सुब्बाराव फेलोशिप कार्यक्रम में फेलो के तौर पर कार्यानुभव.