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लड़कियों को सफलता मिली पर समानता नहीं

“पितृसत्तात्मक सोच और भेदभावपूर्ण शिक्षा व्यवस्था में जकड़ी हुई है लड़कियों की सफलता”

सीबीएसई ने बहुप्रतीक्षित कक्षा 10वीं और 12वीं के नतीजे घोषित कर दिए हैं।कक्षा 10वीं और 12वीं दोनों में छात्राओं का पास प्रतिशत छात्रों से अधिक दर्ज हुआ है। कक्षा 10वीं में छात्राओं का उत्तीर्ण प्रतिशत 95 दर्ज हुआ और छात्रों का उत्तीर्ण प्रतिशत 92.63% रहा। इस प्रकार लड़कियों का उत्तीर्ण प्रतिशत लड़कों के उत्तीर्ण प्रतिशत से 2.37% अधिक रहा है।

कक्षा 12वीं में छात्राओं का उत्तीर्ण प्रतिशत 91.64% रहा, जोकि लड़कों के उत्तीर्ण प्रतिशत से 5.94% अधिक है। वहीं, लड़कों का उत्तीर्ण प्रतिशत 85.70% रहा है।

भारत जैसे देश में जहां लड़कियों का स्कूल तक पहुंचना ही एक बहुत बड़ी सफलता है, वहां 10वीं और 12वीं के इस परीक्षा परिणामों से एक उत्साह है। परंतु, भारतीय समाज में यदि हम लड़कियों के बचपन से किशोरावस्था तक के आम अनुभवों की पड़ताल करें, तो स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि उनके जीवन में शारीरिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर एक गहरी हताशा व्याप्त होती है।

बेटे के जन्म पर जहां उत्सव मनाया जाता है, वहीं बेटी के जन्म को अक्सर एक बोझ के रूप में स्वीकार किया जाता है।

यह रवैया न केवल पारिवारिक वातावरण को प्रभावित करता है, बल्कि लड़कियों के आत्मबोध और आत्म-सम्मान को भी गहराई से प्रभावित करता है। भारतीय परिवारों में बेटियों की अवांछनीयता कोई छिपी बात नहीं है। बेटी को यह समझा दिया जाता है कि मायका उसका स्थायी घर नहीं है, और विवाह के पश्चात उसे एक “पराये घर” में समायोजित होना पड़ेगा। यह धारणा उसे बचपन से ही सिखाई जाती है, मानो उसका जीवन सिर्फ विवाह और मातृत्व तक सीमित हो।

रजस्वला होने पर लड़कियों को अपवित्र मानने जैसी गहरी सामाजिक धारणाएँ उनके मन में बैठ जाती हैं, जिससे वे स्वयं को हीन समझने लगती हैं। यह पितृसत्तात्मक सोच उन्हें सामाजिक संरचना में एक द्वितीय श्रेणी का नागरिक बना देती है।

 


“मर्दवादी सोच और महिला हिंसा: समाजीकरण की जड़ों में छिपी क्रूरता”


शिक्षा व्यवस्था में संवेदनशीलता की कमी

हर वर्ष दसवी और बारहवी के परीक्षा परिणाम आने पर लड़कियों के सफलता का जश्न हम जरूर मना रहे है। परंतु इस तथ्य से भी इंकार नहीं कर सकते है कि आज भी सामाजिक-सांस्कृतिक भेदभावों का लड़कियों के मनोवैज्ञानिक विकास पर क्या प्रभाव पड़ता है। इस पर न तो पर्याप्त शैक्षणिक अनुसंधान हुआ है, और न ही शिक्षक-प्रशिक्षण में इसे गंभीरता से लिया गया है। नई शिक्षा नीति भले ही बाल-केंद्रित प्रणाली की बात करती है, जिसमें बच्चों को अपने विचारों को व्यक्त करने के अवसर दिए जाने चाहिए, परंतु व्यवहार में इस दिशा में प्रयास नगण्य हैं।

जब लड़कियों को बार-बार यह जताया जाता है कि उनका शरीर नाजुक है और दिमाग गणित या विज्ञान जैसे विषयों के लिए उपयुक्त नहीं है, तो यह उनकी आत्म-छवि को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।

शिक्षक वर्ग स्वयं भी इस सोच से ग्रस्त है। अध्यापकों के प्रशिक्षण में केवल विषय-ज्ञान पर ध्यान दिया जाता है, न कि विद्यार्थियों की सामाजिक और मानसिक पृष्ठभूमि को समझने पर। आत्ममंथन और आत्मचिंतन जैसी योग्यताओं का विकास शिक्षकों में शायद ही होता है। पुरुष और महिला दोनों शिक्षक पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होते हैं और अक्सर लड़कियों की क्षमताओं को सीमित नजरिए से आंकते हैं।


शैक्षणिक संस्थाओं में लैंगिक असमानता

हालांकि कुछ संस्थाएँ इस दिशा में ईमानदारी से काम कर रही हैं, लेकिन ऐसी संस्थाओं की संख्या बहुत कम है। पठन-पाठन सामग्री और पाठ्यक्रम में भी भेदभाव की झलक मिलती है।

NCERT की नई पुस्तकों में अब सुधारात्मक के बजाय विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण अपनाया गया है, जो स्त्रियों की समाज में मौजूदगी को रेखांकित करने का प्रयास करता है।

शिक्षा प्रणाली में वास्तविक बदलाव के लिए शिक्षकों और समाज विज्ञान एवं मानविकी विभागों के बीच समन्वय आवश्यक है। शिक्षा के अंतर्विषयी ढांचे में छिपी लैंगिक असमानताओं को उजागर करना ज़रूरी है। केवल अलग-अलग रणनीतियों से पितृसत्तात्मक मानसिकता को चुनौती नहीं दी जा सकती।

प्राथमिक शिक्षा में नामांकन दरों में वृद्धि हुई है, फिर भी घर की पढ़ाई, कौशल विकास और करियर की दिशा में लड़के-लड़कियों के बीच एक स्पष्ट असमानता बनी हुई है। लड़कियां हर साल अच्छे अंको से अव्वल जरूर आ रही है परंतु, संयुक्त प्रवेश परीक्षा में लड़कियों का प्रतिनिधित्व अभी भी 20% के आसपास है।

यह असमानता इस बात का संकेत है कि हमारी शिक्षा प्रणाली आज भी गहराई से भेदभावपूर्ण मानसिकता से ग्रस्त है और इसमें परिवर्तन की अत्यंत आवश्यकता है।

 

 


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Pratyush Prashant

किसी भी व्यक्ति का परिचय शब्दों में ढले, समय के साथ संघर्षों से तपे-तपाये विचार ही दे देते है, जो उसके लिखने से ही अभिव्यक्त हो जाते है। सम्मान से जियो और लोगों को सम्मान के साथ जीने दो, स्वतंत्रता, समानता और बधुत्व, मानवता का सबसे बड़ा और जहीन धर्म है, मुझे पूरी उम्मीद है कि मैं अपने वर्तमान और भविष्य में भी इन चंद उसूलों के जीवन जी सकूंगा और मानवता के इस धर्म से कभी मुंह नहीं मोड़ पाऊगा।

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