क्यों पंडिताइन होने की पहचान केवल एक पुरुष पुरोहित की पत्नी होने तक सीमित है?

जब हमें बचपन में ककहरा पढ़ाया जाता है, तब से पंडित पढ़ाया जाता है और किताब में एक पुरुष की ही पूजा-हवन आदि करती हुई एक तस्वीर छपी होती है। यही तस्वीर हम अपने आसपास घर, समाज और मंदिरों में देखते हैं, जिससे हमें यकीन हो जाता है कि एक पुरुष ही पंडित की भूमिका में फिट बैठता है।
कुछ समय बाद जब हम थोड़े बड़े होते हैं, तो बोलचाल की भाषा में धोबी-धोबिन, मिश्रा-मिश्राइन, ठाकुर-ठकुराइन सुनते हैं, जिसके बाद हम भी पंडित-पंडिताइन कर लेते हैं और यही हमारी रोज़मर्रा की भाषा का हिस्सा भी हो जाता है लेकिन हमारे समाज में पंडिताइन शब्द उन महिलाओं के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जो किसी पंडित की पत्नी होती हैं।
उनकी पंडिताइन होने की पहचान मात्र एक पत्नी होने तक सीमित हो जाती है। उसका अर्थ कहीं से भी पूजा-पाठ, हवन आदि से नहीं होता है।
एक पितृसत्तामक समाज में अधिकांश धार्मिक अनुष्ठान पुरुषों द्वारा ही कराए जाते हैं लेकिन अब महिलाओं ने इस सामाजिक बाधा को तोड़ने का प्रयास शुरू कर दिया है। अब महिलाएं केवल अपने पति के पंडित होने के कारण पंडिताइन कहलाना पसंद नहीं करती हैं, बल्कि अब कुछ महिलाएं स्वयं पंडित की भूमिका निभा रहीं हैं।
महिला पुरोहितों ने करवाई दुर्गा पूजा
साल 2021 के दुर्गा पूजा के अवसर पर कोलकाता के 66 पल्ली में चार महिलाएं नंदिनी भौमिक, रूमा रॉय, सीमांती बनर्जी और पॉलोमी चक्रवर्ती ने इतिहास में पहली बार सार्वजनिक दुर्गा पूजा की है। इन चार महिलाओं ने मिलकर शुभमस्तु नामक एक संगठन भी बनाया है, जो धार्मिक और सामाजिक कार्यों में बदलाव लाने के लिए आधुनिक और समकालीन दृष्टि से कार्य करता है।
28 वर्षीय नंदिनी भौमिक ने बताया कि उन्होंने इससे पहले अपनी बेटी की शादी करवाई थी, जिसे लोगों ने अचंभित होकर देखा था। इससे यही साबित होता है कि समाज की नज़रों में पंडितों को लेकर जो तस्वीर बन चुकी है, उसे बदलना कठिन है, क्योंकि कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो पारंपरिक तरीके में बदलाव पसंद नहीं करते और विरोध करते हैं।
वो आगे बताती हैं, “हम कन्यादान नहीं करते, क्योंकि हम उस प्रथा को मानते ही नहीं है, जिसमें महिलाओं को प्रतिगामी वस्तु समझा जाता है। हम अनुष्ठानों को छोटा और सरल रखने की कोशिश करते हैं और पूरे कार्यक्रम को एक घंटे के भीतर पूरा करने का प्रयास करते हैं।”
साथ ही ये महिला पुरोहितें श्लोक को अंग्रेज़ी में भी पढ़ती हैं ताकि लोग आसानी से समझ सकें।
शादी में महिला पुरोहित का महत्व

साल 2021 में दीया मिर्ज़ा की शादी की तस्वीरें भी याद आती हैं, जिसके आने के बाद ही लोगों के मन में महिला पुरोहितों की एक झलक बनना शुरु हुई थी, उनकी शादी एक महिला पुरोहित शीला अत्ता द्वारा संपन्न हुई थी, जिसे देखकर कुछ फैंस ने कमेंट बॉक्स में लिखा था कि इसे असली फेमिनज्म कहते हैं।
हालांकि, शीला अत्ता ने ही फिल्ममेकर अनन्या राने की शादी भी करवाई थी। बहरहाल इससे पहले भी राजस्थान में साल 2015 में एक महिला पुरोहित निर्मला सेवानी द्वारा शादी करवाई गई थी। उन्होंने बातचीत में बताया था कि ये उनके द्वारा करवाई जा रही 18वीं शादी है।
क्यों कम है महिला पुरोहितों की संख्या?
हम एक ऐसे समाज में रहते हैं, जहां लोगों को महिलाएं तुलसी चौड़ा में दीया, धूपबत्ती आदि करती हुई पसंद आती हैं। घर में कोई भी पर्व त्यौहार हो, महिलाओं से ही अपेक्षा की जाती है कि वे सज संवरकर पूजन आदि करें लेकिन महिलाओं को लोग पुरोहित की छवि में नहीं देखना चाहते।
यहां तक कि आज भी जब लोग लड़कियों को परखते हैं, तब भी उनसे उम्मीद की जाती है कि वे श्लोक, मंत्र आदि की जानकारी रखें।
महिला पुरोहितों की संख्या कम होने के पीछे अनेक कारण हैं

सबसे पहला कारण है पीरियड्स का होना। हर महीने होने वाले पीरियड्स के कारण ऐसे भी महिलाएं पूजा-पाठ से दूर रहती हैं, क्योंकि हमारे समाज में इस समय महिलाएं अपवित्र रहती हैं।
जब समाज महिलाओं को ही अपवित्र मानेगा, तब उससे पूजा-पाठ जैसे पवित्र माने जाने वाले अनुष्ठानों को करवाने के बारे में सोचना ही गलत हो जाता है।
हालांकि इसके पीछे अब वैज्ञानिक तर्क दिए जा रहे हैं कि महिलाओं को पीरियड्स के दौरान आराम की ज़रुरत होती है और मंत्रोच्चार करने से शरीर पर दबाव बढ़ता है। ऐसे में महिलाएं पूजा-पाठ से दूर ही रहे तो बेहतर हैं।
महिलाओं में पीरियड्स होना एक स्वाभाविक एवं सकारात्मक गतिविधि है और इसे धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेने के लिए बाधा के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए।
दूसरा, जब महिलाओं के ही कंधे पर पूरे घर की बागडोर रहती है, तब महिलाएं घर से बाहर निकलकर पूजा-पाठ कैसे करवाएंगी? आमतौर पर किसी भी पर्व-त्यौहार के आने पर किचन की सारी ज़िम्मेदारी महिलाओं पर ही रहती है।
महिलाओं के हिस्से में त्यौहार तो आता है लेकिन अपने साथ किचन समेत घर के कामों को लेकर आता है। ऐसे में महिलाएं घर से बाहर निकल किसी अनुष्ठान में भाग ले सकेंगी? ये असंभव लगता है।
शिक्षा का स्तर
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) के आंकड़ों पर आधारित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में साक्षरता दर 77.7 प्रतिशत है। इस रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण इलाकों की साक्षरता दर 73.5 प्रतिशत जबकि शहरी इलाके में 87.7 प्रतिशत है। इस रिपोर्ट को जुलाई 2017 से जून 2018 के आंकड़ों के आधार पर तैयार किया गया है, जो सात या सात साल से अधिक उम्र के व्यक्तियों के मध्य राज्यवार साक्षरता दर के बारे में बताती है।
राष्ट्रीय स्तर पर पुरुषों की साक्षरता दर 84.7 प्रतिशत, जबकि महिलाओं की साक्षरता दर मात्र 70.3 प्रतिशत है। इस रिपोर्ट से ही साफ पता चलता है कि देश में पुरुष साक्षरता दर महिलाओं की अपेक्षा ज़्यादा बेहतर है।
जब महिलाएं शिक्षित ही नहीं होंगी, तब पौराणिक किताबों और धार्मिक किताबों को पढ़ ही नहीं पाएंगी और पूजा-पाठ में मंत्रो का होना अनिवार्य होता है।
हालांकि इन सब कारणों के अलावा भी अन्य कई कारण हैं, जिसने लोगों को जकड़ कर रखा है। जैसे मंदिरों का राजनीतिकरण होना! जिस कारण भी महिलाएं अपने कदम पीछे खींच लेती हैं।
महिलाओं द्वारा नहीं पहुंचता ईश्वर तक संदेश
साल 2021 के दुर्गा-पूजा के अवसर पर पूजा-पंडालों में घूमने का अवसर मिला, तब हर पूजन-पंडाल में केवल पुरुष ही पुरोहित की भूमिका निभा रहे थे।
महिला पुरोहितों को शामिल करने पर जब मैंने सवाल किए, तब वहां मौजूद कुछ लोगों ने बताया कि महिलाओं द्वारा की गई पूजा ईश्वर तक नहीं पहुंचती है और अगर कुछ लोग दिखावे के लिए महिलाओं से पूजा करवाते हैं, तो उन्हें भी बाद में पुरुष पुरोहितों से पूजा करवानी चाहिए, क्योंकि तब ही ईश्वर तक संदेश पहुंचता है और पूजा सफल होती है।
क्या है विशेषज्ञ की राय?
धर्म विशेषज्ञ वसुधा नारायणन इस परिप्रेक्ष्य में लिखा है कि यजमान और पुरोहित के बीच जान-पहचान का रिश्ता माना जाता है। कई कर्मकांडों के दौरान पुरोहित अपने यजमान की कलाई में पवित्र धागा बांधते हैं। अगर पूजा में महिला भी शामिल होती है, तो उसकी कलाई पर धागा उसका पति ही बांधता है।
धागा बांधने की क्रिया को दो लोगों को कर्मकांड के स्तर पर जोड़ने का ज़रिया माना जाता है। लिहाजा यह तर्क दिया जाता है कि महिला पुरोहित अपने पति के सिवाय किसी भी पुरुष की कलाई पर धागा नहीं बांध सकती है। इसके अलावा रुढि़वादी हिंदुओं को इससे जुड़ा आर्थिक पहलू भी परेशान करता है।
“मान्यता है कि एक महिला अपनी सेवा के बदले पुरुष से भुगतान नहीं ले सकती है।” हालांकि पूजा के लिए फूल तोड़ने, साफ-सफाई करने, प्रसाद तैयार करने और पूजा स्थल तैयार करने वाली एक महिला ही होती है।
ये सारा काम महिलाओं के ही जिम्मे आता है लेकिन महिला अगर पूजन करवाए तो पूजा सफल नहीं मानी जाती है। वैसे तो आजकल जेंडर न्युट्रल शब्द की काफी चर्चा हो रही है लेकिन अभी लोगों के मन से जेंडरवादी होने का ठप्पा नहीं हटा है, क्योंकि जो शब्द आम-बोलचाल की भाषा का हिस्सा बन चुके हैं, उनसे अलग होने में समय लगना लाज़मी है।
सोर्स लिंक- बिज़नेस स्टैंडर्ड, दैनिक जागरण, हिन्दी शोभा, नई दुनिया
इस लेख ने लिंग संवेदनशीलता के लिए 2022 लाडली मीडिया और विज्ञापन पुरस्कार जीता।

मेरी कलम मेरे जज़्बात लिखती है, जो अपनी आवाज़ नहीं उठा पाते, उनके अल्फाज़ लिखती है। Received UNFPA-Laadli Media and Advertising Award For Gender Senstivity -2020 Presently associated with THIP- The Healthy Indian Project.