
“थोड़ा प्रोफेशनल ड्रेस पहना करो” – दिल्ली की एक महिला कर्मचारी को जब ऑफिस में यह ‘सलाह’ दी गई, तो उसे यह महज़ एक टिप्पणी नहीं लगी, बल्कि बॉडी शेमिंग की एक परतदार कोशिश महसूस हुई। उसने इस अनुभव को सोशल मीडिया पर साझा किया और देखते ही देखते उसकी पोस्ट वायरल हो गई।
महिला ने बताया कि उसे ऑफिस ड्रेस को लेकर टोका गया और अप्रत्यक्ष रूप से उसके शरीर को लेकर टिप्पणी की गई। इस पोस्ट के सामने आते ही सोशल मीडिया पर गुस्सा फूट पड़ा। बड़ी संख्या में लोगों ने इस व्यवहार की आलोचना की और इसे कार्यस्थल पर मौजूद पितृसत्तात्मक सोच का जीता-जागता उदाहरण बताया। बढ़ते दबाव के बीच कंपनी को सफाई देनी पड़ी और जांच का आश्वासन देना पड़ा।
यह कोई अकेली घटना नहीं है, बल्कि कार्यस्थलों पर महिलाओं के साथ होने वाली उस मानसिक और सांस्कृतिक हिंसा की कड़ी है जो रोज़ होती है – लेकिन शायद ही कभी सार्वजनिक होती है।
बॉडी शेमिंग: चुपचाप दी जाने वाली चोट
कई ऑफिसों में महिलाओं के लिए ड्रेस कोड महज़ एक गाइडलाइन नहीं, बल्कि उनके शरीर और अभिव्यक्ति पर नियंत्रण का ज़रिया बन जाता है। “कपड़े टाइट न हों”, “घुटनों से नीचे हों”, “ज्यादा रंग-बिरंगे न हों” – ये निर्देश महिला के प्रोफेशनलिज़्म को उसके शरीर और पहनावे से जोड़ते हैं, जोकि एक ग़लत और भेदभावपूर्ण सोच है।
पुरुषों के कपड़ों पर सवाल शायद ही कभी उठते हैं, लेकिन महिलाओं को बार-बार यह जताया जाता है कि वे क्या पहनें, कितना ढकें और कैसे दिखें – ताकि वे ‘डिस्ट्रैक्शन’ न बनें।
बॉडी शेमिंग एक ऐसी मनोवैज्ञानिक हिंसा है जो सामने तो नहीं आती, लेकिन गहरे असर छोड़ती है। जब किसी महिला से यह कहा जाता है कि “तुम्हारे कपड़े ध्यान भटका सकते हैं”, तो दरअसल उसे उसके शरीर को लेकर शर्मिंदा करने की कोशिश की जाती है। यह सोच महिला को खुद पर सवाल करने के लिए मजबूर करती है – जबकि सवाल उस सोच पर उठना चाहिए जो महिला को एक वस्तु की तरह देखती है।
क्या काबिलियत का पैमाना अब भी कपड़े हैं?
कई महिलाएं आज भी कार्यस्थल पर इस असमंजस में रहती हैं कि वे क्या पहनें जिससे उन्हें गंभीरता से लिया जाए, लेकिन उनके शरीर को लेकर टिप्पणियां न हों। यह द्वंद्व एक अस्वस्थ माहौल पैदा करता है।
प्रोफेशनलिज़्म स्किल, संवाद, ज़िम्मेदारी और नेतृत्व से तय होना चाहिए – न कि किसी की स्कर्ट की लंबाई से।
दिल्ली की इस घटना के बाद सोशल मीडिया पर जो प्रतिक्रिया आई, वह यह दिखाती है कि अब महिलाएं चुप नहीं रहने वालीं। लोग जब संगठित होकर सवाल पूछते हैं, तो संस्थाएं जवाब देने को मजबूर होती हैं।
लेकिन सिर्फ बयान जारी कर देना काफी नहीं है। कंपनियों को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनकी पॉलिसी लैंगिक संवेदनशीलता पर आधारित हो, और हर स्तर पर ऐसा माहौल बने जहां महिलाएं अपने शरीर, कपड़ों या पहचान को लेकर असहज न महसूस करें।
‘आधी आबादी’ का सवाल: क्या वाकई बराबरी है?
यह घटना एक बार फिर हमें सोचने पर मजबूर करती है – क्या महिलाएं आज भी अपने पहनावे को लेकर स्वतंत्र हैं? क्या कार्यस्थल आज भी उनके लिए एक सुरक्षित और सम्मानजनक जगह है?
आधी आबादी का मानना है कि किसी महिला के काम को उसके पहनावे से नहीं, उसकी काबिलियत और योगदान से आँका जाना चाहिए। जब तक हर महिला को यह भरोसा नहीं होता कि वह अपनी मर्ज़ी से पहन सकती है और उस पर कोई सवाल नहीं उठाएगा, तब तक हम बराबरी की बात अधूरी ही करते रहेंगे।
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मेरी कलम मेरे जज़्बात लिखती है, जो अपनी आवाज़ नहीं उठा पाते, उनके अल्फाज़ लिखती है। Received UNFPA-Laadli Media and Advertising Award For Gender Senstivity -2020 Presently associated with THIP- The Healthy Indian Project.