भारतीय समाज में महिलाओं पर नैतिक दबाव,आत्म-स्वीकृति का संघर्ष
पारंपरिक अपेक्षाओं और आधुनिक सोच के बीच महिलाओं की पहचान और आत्मसम्मान की नई परिभाषा

भारतीय समाज में महिलाओं को पारंपरिक रूप से त्याग, समर्पण और ‘सेल्फलेस’ (निःस्वार्थ) होने का प्रतीक माना गया है। यह धारणा पीढ़ियों से चली आ रही है, जहाँ महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने परिवार, समाज और रिश्तों की भलाई के लिए अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं का बलिदान करें।
नई पीढ़ी की महिलाएं इस परंपरा को चुनौती दे रही हैं, आत्म-स्वीकृति की ओर अग्रसर हो रही हैं और अपनी सीमाएँ तय करने का साहस दिखा रही हैं।
पितृसत्तात्मक समाज में ‘सेल्फलेस’ महिला की छवि
भारतीय समाज में पितृसत्तात्मक ढांचा गहराई से समाया हुआ है, जहाँ महिलाओं को ‘अच्छी बेटी’, ‘अच्छी पत्नी’ और ‘अच्छी माँ’ बनने के लिए अपने सपनों और इच्छाओं का त्याग करना पड़ता है।
इतिहास में यह तथ्य दर्ज है कि 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में महिलाओं के मां रूप का प्रतीक उभरा। नारीशक्ति की अवधारणा के अनुसार राष्ट्रमाता के रूप में, रक्षा करनेवाली उग्र महाकाली के रूप में। इसके साथ-साथ महिलाओं को कष्ट सहनेवाली सहनसील मां के रूप में देखा गया।
मैडम कामा और सरोजनी नायडू जैसे महिलाओं जे जहां मातृशक्ति का बयान करते हुए चेतावनी ( याद रखो जो हाथ पालना झुलाते हैं वही दुनिया पर राज करते है)दी, वहीं गांधीजी ने मातृभाव के उद्धारक गुणों का उल्लेख करते हुए स्त्री को भोग करने वाली वस्तु समझने की खतरनाक प्रवृत्ति के प्रति भी चेताया।
स्वतंत्र भारत का समकालीन नारी आंदोलन महिलाओं की उपेक्षा, शॊषण और श्रम में लिंग आधारित भेदभाव को समाप्त करने तथा बराबरी के सिद्धांत का दृढ़तापूर्वक पालन करने की नीति के साथ शुरू हुआ। अब महिलाओं को मातृ छवि को मातृ छवि में पेश करने के बजाय उसे पुत्री और कामकाजी महिला के रूप में पेश किया गया। इससे यह हुआ कि महिलाओं की माता या पत्नी की छवि से ध्यान हटा।
परिणाम यह हुआ कि महिला पुरुष संबंधों पर ही केन्द्रित महिलाओं की छवि एक झटके से दूसरी ओर मुड़ गया। महिलाओं के पुनरुउत्पादन क्षमता के बजाए उत्पादन क्षमता को रेखांकित किया जाने लगा। अब महिलाओं के पुत्र-प्रतीक को अधिक महत्वपूर्ण समझा जाने लगा।
उसी समय एक और कामकाजी महिलाओं के छवि ने पत्नी माता शक्ति की छवि को परित्याग कर उसे आर्थिक रूप से आत्ननिर्भर होने को प्रेरित किया। दूसरी ओर् वर्ग चैतन्य पैदा कर महिलाओं को संगठित किया गया और एकजुट होने के लिए तैयार किया गया जिसने महिलाओं के श्रम के राजनीति को नए तरीके से प्रस्तुत किया।
इन सभी छवि निमार्ण की प्रक्रिया में महिलाओं की स्वयं अपनी छवि कैसी हो, इस पहलू पर कभी विचार ही नहीं किया गया। यह सोच शिक्षा, मीडिया और पारिवारिक परंपराओं के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी प्रेषित होती रही है।
हाल ही में अभिनेत्री ज़रीना वहाब ने अपने पति के अफेयर्स पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि वह इससे परेशान नहीं होतीं। मनोचिकित्सक डॉ. गौरव गुप्ता के अनुसार, कई महिलाएं सामाजिक दबाव, आर्थिक निर्भरता और बच्चों के भविष्य के कारण पति की बेवफाई सहन करती हैं।
हालांकि, चुप रहकर टकराव से बचना आत्म-प्रेम नहीं माना जा सकता, बल्कि आत्मसम्मान की कीमत पर रिश्ते को कायम रखना स्वयं को धोखा देना हो सकता है।
नई पीढ़ी की महिलाएं: आत्म-स्वीकृति और सीमाएँ तय करना
नई पीढ़ी की महिलाएं अब आत्म-स्वीकृति की ओर अग्रसर हो रही हैं और अपनी सीमाएँ तय करने का साहस दिखा रही हैं। अभिनेत्री सुरवीन चावला ने एक साक्षात्कार में कहा कि अपनी खुशियों की कुर्बानी देना अच्छी माँ बनने की पहचान नहीं है। उन्होंने जोर देकर कहा कि महिलाओं को अपने सपनों और करियर का ख्याल रखना चाहिए।
शिक्षा महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाती है और उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करती है। हालांकि, आज भी कई क्षेत्रों में महिलाओं की शिक्षा को कम महत्व दिया जाता है, जिससे वे पारंपरिक भूमिकाओं में ही सिमट कर रह जाती हैं।
महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए केवल कानूनी प्रावधान पर्याप्त नहीं हैं। समाज में व्याप्त लैंगिक भेदभाव और पितृसत्तात्मक सोच को बदलना आवश्यक है। इसके लिए शिक्षा, जागरूकता और महिलाओं के प्रति सम्मानजनक दृष्टिकोण अपनाना जरूरी है।
भारतीय समाज में महिलाओं पर ‘सेल्फलेस’ होने का नैतिक दबाव गहराई से समाया हुआ है। नई पीढ़ी की महिलाएं इस परंपरा को चुनौती दे रही हैं, आत्म-स्वीकृति की ओर अग्रसर हो रही हैं और अपनी सीमाएँ तय करने का साहस दिखा रही हैं। यह परिवर्तन समाज में महिलाओं की स्थिति को सशक्त बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
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किसी भी व्यक्ति का परिचय शब्दों में ढले, समय के साथ संघर्षों से तपे-तपाये विचार ही दे देते है, जो उसके लिखने से ही अभिव्यक्त हो जाते है। सम्मान से जियो और लोगों को सम्मान के साथ जीने दो, स्वतंत्रता, समानता और बधुत्व, मानवता का सबसे बड़ा और जहीन धर्म है, मुझे पूरी उम्मीद है कि मैं अपने वर्तमान और भविष्य में भी इन चंद उसूलों के जीवन जी सकूंगा और मानवता के इस धर्म से कभी मुंह नहीं मोड़ पाऊगा।