“मैं बस एक मज़दूर हूं: एक अनकही सच्चाई की दास्तान”

मैं एक मज़दूर हूं… बस एक मज़दूर। मेरा कोई नाम, पता, जाति, धर्म, लिंग या देश नहीं। मैं हर कोने में पाया जाता हूं—हर शहर, हर ज़िले, हर गली-कूचे में। कभी बोझा ढोते, कभी रिक्शा या ठेला खींचते, तो कभी खेतों में काम करते या शहर की नालियों और कचरे की सफाई करते हुए आपको नज़र आ जाऊंगा।
मेरे कई रूप हैं, लेकिन फिर भी मेरी कोई विशिष्ट पहचान नहीं। आप मुझे ठेलेवाला, कुली, मिस्त्री, सफाईकर्मी या रामशरण, लघुमन, सुरेश, महेश, विजेंदर, महेंदर—किसी भी नाम से पुकार लीजिए। पर मैं हूं सिर्फ एक मज़दूर।
“रहने को घर नहीं, सोने को बिस्तर नहीं, अपना खुदा है रखवाला…”
वर्षों पहले किसी फिल्म का यह गीत सुना था। उस पल लगा मानो मेरी ही ज़िंदगी पर पर्दे पर कहानी चल रही हो। जन्म से ही मैंने सड़क को बिछावन और खुले आसमान को चादर माना है।
कहने को मेरा भी एक घर है, लेकिन वह महज फूस की एक झोपड़ी है, जिस पर प्लास्टिक की चादर तनी है। पर उसका भी सुख तब तक है, जब तक सरकार को शहरी सौंदर्यीकरण का भूत न सवार हो। फिर तो एक बुलडोजर में हमारी पूरी बसी-बसाई दुनिया मटियामेट कर दी जाती है।
शहर के लोग पूछते हैं—”गांव-देहात छोड़कर यहां क्यों धक्के खा रहे हो?”
तो बताइए मालिक, गांव में रह भी लें, तो करें क्या? न रोजगार है, न सम्मान। महाजन की उधारी और खेतों की सीमित मज़दूरी से दो वक्त की रोटी भी मुश्किल है।
एक फसल की मजूरी से दूसरी फसल तक महाजन का कर्ज़ ही चुकता नहीं होता। ऐसे में शहर का रुख करना ही पड़ता है। और पढ़े-लिखे तो हैं नहीं कि नौकरी करें, वैसे भी आजकल पढ़े-लिखे लोग भी चाय-पकौड़ा या जूस ही बेच रहे हैं। सरकारी नौकरी अब सपना हो गई है।
हर दिन एक नई चुनौती है

हम मज़दूरों के लिए हर दिन एक नई लड़ाई लेकर आता है। हमारी कोई स्थायी नौकरी नहीं है, न ही तय पगार। हमें हर दिन कुआं खोदना और खुद ही अपनी प्यास बुझानी होती है।
सरकार ने ‘मनरेगा’ योजना के तहत 100 दिन का गारंटीड रोजगार तो दिया है, लेकिन जॉब कार्ड बनवाने के लिए नीचे से ऊपर तक घूस देनी पड़ती है। अब बताइए, रोजाना दो पैसे कमाने वाले लोग रिश्वत कहां से दें?
और मान भी लिया कि कार्ड बन गया, तो साल में 100 दिन, 200 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से कितना कमा लेंगे? उसमें से भी आधा हिस्सा ठेकेदार और अधिकारी खा जाते हैं। बाकी बचे 265 दिन क्या भूखे मरें?
ठेले खींचकर, बोझा ढोकर किसी तरह 100–200 रुपये कमा लेते हैं। अगर सरकार पर निर्भर रहें, तो भूख से मरने की नौबत आ जाए। अब तो सरकार हमारे अधिकारों को भी छीनने पर तुली है, काम के घंटे और बढ़ा दिए गए हैं।
हर मौसम, हर त्योहार – जिंदगी फिर भी बेरंग

हम मज़दूरों के लिए न कोई मौसम होता है, न कोई त्योहार। न होली, न दीवाली, न दशहरा। हमारे लिए कोई छुट्टियां नहीं होतीं। हमारा काम ही हमारी दुनिया है। गर्मी हो या सर्दी, दोपहर की चिलचिलाती धूप हो या ठिठुरती रातें – हम सड़कों और गलियों में मेहनत करते नजर आएंगे।
हम सिर्फ ‘आज’ में जीते हैं। कल की चिंता तब करेंगे जब आज का पेट भर जाए। हमारा आज भी अनिश्चित होता है – फिर चाहे मौसम बदलें या कैलेंडर पर त्योहार आएं, हमारे लिए हर दिन एक जैसा ही है।
हम गांव से शहर आए हैं, दो वक्त की रोटी कमाने के लिए। परिवार को साथ नहीं ला सकते, क्योंकि उन्हें रखने की जगह नहीं। फुटपाथ पर रहने वालों की हालत कौन नहीं जानता? गांव में फूस की छत ही सही, मगर एक सिर पर छाया तो है।
हम मज़दूरों का क्या? हम तो बस इस भीड़ का हिस्सा हैं – बिना चेहरा, बिना नाम। हमारी ज़िंदगी में है तो बस ‘काम, काम और काम’।

16 वर्षों से लेखन एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय. देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लेखन का अनुभव; लाडली मीडिया अवॉर्ड, NFI फेलोशिप, REACH मीडिया फेलोशिप सहित कई अन्य सम्मान प्राप्त; अरिहंत, रत्ना सागर, पुस्तक महल आदि कई महत्वपूर्ण प्रकाशन संस्थानों सहित आठ वर्षों तक प्रभात खबर अखबार में बतौर सीनियर कॉपी राइटर कार्य अनुभव प्राप्त करने के बाद वर्तमान में फ्रीलांसर कार्यरत.