“‘लॉगआउट’: सोशल मीडिया की भीड़ में अकेलेपन की चुभती कहानी”

90 के दशक में हसरत जयपुरी के संगीत, अनु मल्लिक के धुन और जया प्रदा के साथ जितेन्द्र के अभिनय से सजी-धजी फिल्म मां का एक गाना था “आइने के सौ टुकड़े करके हमने देखे है एक भी तन्हा थे हम सौ में भी अकेले थे।” बाबिल खान की ज़ी5 पर रिलीज़ हुई फिल्म ‘लॉगआउट’ की कहानी कमोबेश इस गाने के आस-पास नज़र आती थी।
10 मिलियन सब्सक्राइबर के दौड़ में भागता हुआ बाबिल खान का चरित्र प्रत्यूष दुआ भी भीड़ के पीछे भागता हुआ वैसा ही सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर है जो लाखों के भीड़ में अकेला है।
‘लॉगआउट’ एक ऐसी फ़िल्म है जो समकालीन मुद्दों की नब्ज़ पर उंगली रखती है, लेकिन इसमें स्थायी प्रभाव छोड़ने के लिए कथात्मक स्पष्टता और भावनात्मक गहराई का अभाव है। यह फ़िल्म, जो डिजिटल निर्भरता के खतरों पर आधारित एक तनावपूर्ण और चेतावनी देती कहानी बन सकती थी, वह असंगत लेखन और कथानक की अपर्याप्त गहराई के कारण एक छूटे हुए अवसर की तरह महसूस होती है।
कहानी क्या है लॉगआउट’ की
ज़ी5 पर रिलीज़ हुई फिल्म ‘लॉगआउट’ की कहानी सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर प्रत्यूष दुआ उर्फ प्रैटमैन के इर्द-गिर्द घूमती है, जिसे लगता है कि उसके एक करोड़ फॉलोअर्स का रिमोट कंट्रोल उसके हाथ में है। लेकिन उसकी ज़िंदगी तब बदल जाती है जब उसका फोन एक लड़की के हाथ लग जाता है — अब प्रत्यूष का नियंत्रण उसी के हाथों में है। वह जो चाहती है, प्रत्यूष को करना पड़ता है। और तभी होता है एक हत्या…!
फ़िल्म एक युवा सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर प्रत्यूष दुआ की कहानी है, जिसका जीवन उसके फोन चोरी होने के बाद पूरी तरह बदल जाता है। जैसे ही उसकी डिजिटल पहचान का अपहरण होता है, फिल्म ऑनलाइन प्रसिद्धि और व्यक्तिगत अराजकता के बीच की नाजुक रेखा को उजागर करती है।
फ़िल्म की शुरुआत में, प्रत्यूष एक चूहे को पकड़ने के लिए पिंजरे का ऑर्डर करता है। जब चूहा पकड़ा जाता है, तो कहानी प्रतीकात्मक रूप से दिखाती है कि कैसे वह खुद भी एक फैनगर्ल की मांगों का बंदी बन जाता है — वही लड़की जिसके पास उसका फोन है। एक चूहे की तरह, वह भी अपने डिजिटल जीवन के दुष्चक्र में फंसता चला जाता है। बाद में, जब उसे चूहे के संघर्ष से सहानुभूति होती है, वह उसे आज़ाद कर देता है। यह उसका आंतरिक परिवर्तन दर्शाता है, जिसे बाबिल ने बेहद प्रभावशाली ढंग से निभाया है।
बस दिक्कत इस फिल्म के साथ ये है कि इसमें जिस आबादी पर मोबाइल फोन के असर की बात की जा रही है, वही फिल्म में नहीं है।

बाबिल खान की एक्टिंग के लिए देखिए लॉगआउट’
बाबिल खान ने प्रत्यूष दुआ के किरदार को शानदार तरीके से निभाया है। उन्होंने सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर के उलझनभरे मानसिक तनाव को बखूबी अपनाया है। कुछ दृश्य तो ऐसे हैं जो स्टार किड्स के लिए एक मास्टरक्लास माने जा सकते हैं।
खास बात यह है कि एक कलाकार के रूप में उनका ग्राफ ऊपर की ओर है — यह फिल्म उनकी विकास यात्रा का एक संतोषजनक चरण है।
वह हँसते हैं, लेकिन बनावटी नहीं। वह रोते हैं, तो पूरे दिल से। वह मूर्ख भी बनते हैं, तो पूरे विश्वास के साथ। यह सहजता और कच्चापन उन्हें अलग बनाती है। अक्सर कहा जाता है कि हिंदी फिल्में कुछ नया नहीं करतीं, और केवल मसाले परोसती हैं। लेकिन ‘लॉगआउट’ इस ट्रेंड को तोड़ती है। यह फिल्म सच में कुछ अलग, कुछ संजीदा, और कुछ असरदार पेश करती है।
बाबिल खान जब से ही फिल्मों में कदम रखा है उनसे इरफान वाले जादू की उम्मीद की जा रही है। जबकि बाबिल का अभिनय एक अलग तरह का अभिनय है, उसमें एक ठहराव दिखता है फिर चाहे वह उनकी फिल्म किला हो या फिर द रेलवे मैन, वो किसी हड़बड़ी में नहीं दिखते है न ही कुछ साबित करने के भागम-भाग में है।
धीरे-धीरे अपने अभिनय से अपनी पैर जमा रहे है। इरफान खान के बेटे होने के कारण उनके अभिनय से बाबिल खान की तुलना करना कही से भी सही नहीं है।
बाबिल खाने के साथ रसिका दुग्गल, गंधर्व देवान, निमिषा नायर और भी कुछ कलाकार है पर पूरी कहानी बाबिल के आस-पास ही चलती है।
क्यों देखनी चाहिए ये फिल्म?
ये फिल्म सिर्फ इंटरटेनमेंट नहीं, एक मैसेज है। ये हमें बताती है कि हम कैसे धीरे-धीरे ‘लाइक’ और ‘शेयर’ के पीछे अपनी असल पहचान भूलते जा रहे हैं। ZEE5 पर मौजूद ये फिल्म एक जरूरी रुकावट है – उस दौड़ में जो हमें कहीं और नहीं, खुद से दूर ले जा रही है।
‘काला पानी’ जैसी गंभीर वेब सीरीज़ और ‘फाइटर’ जैसी मनोरंजक फिल्मों के लेखक बिश्वपति सरकार ने इस फिल्म के ज़रिए सोशल मीडिया के जुनून और मोबाइल एडिक्शन को निशाने पर लिया है — और इसमें वे सफल भी हुए हैं। उन्होंने कहानी लिखी और अमित गोलानी ने निर्देशन किया। दोनों का काम शानदार है। एक ही किरदार पर केंद्रित पूरी फिल्म को दर्शकों से जोड़े रखना केवल उत्कृष्ट लेखन और निर्देशन के ज़रिए ही संभव हो सकता है।

किसी भी व्यक्ति का परिचय शब्दों में ढले, समय के साथ संघर्षों से तपे-तपाये विचार ही दे देते है, जो उसके लिखने से ही अभिव्यक्त हो जाते है। सम्मान से जियो और लोगों को सम्मान के साथ जीने दो, स्वतंत्रता, समानता और बधुत्व, मानवता का सबसे बड़ा और जहीन धर्म है, मुझे पूरी उम्मीद है कि मैं अपने वर्तमान और भविष्य में भी इन चंद उसूलों के जीवन जी सकूंगा और मानवता के इस धर्म से कभी मुंह नहीं मोड़ पाऊगा।