सिंदूर, स्त्री और सैन्य शक्ति: प्रतीकात्मक राजनीति या वास्तविक सशक्तिकरण?
जब सैन्य शक्ति स्त्री प्रतीकों का सहारा लेती है — क्या यह सशक्तिकरण है या सत्ता की रणनीति?

Operation Sindoor — यह नाम सुनते ही गर्व और भावनात्मकता का अनुभव होता है, विशेषकर जब इसे महिला अधिकारियों के नेतृत्व में अंजाम दिया गया हो। लेकिन क्या हम इस “गौरव” की परतों को गहराई से देखने को तैयार हैं? क्या यह वास्तव में महिला सशक्तिकरण है, या सत्ता की एक और ‘प्रतीकात्मक चाल’?

प्रतीकवाद की राजनीति: सिंदूर का चयन
सिंदूर — हिंदू विवाह की एक गहन सांस्कृतिक धरोहर, जिसे विवाहित महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र और समृद्धि के लिए धारण करती हैं। Operation Sindoor नाम का चयन इस प्रतीक को सैन्य कार्रवाई से जोड़ता है। यह उन महिलाओं के प्रति संवेदना प्रकट करता है जिन्होंने अपने पति को आतंकवादी हमलों में खो दिया।
क्या यह संवेदना वास्तव में महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक सार्थक पहल है? या फिर यह एक भावनात्मक प्रतीक का सैन्य और राजनीतिक उद्देश्यों के लिए चतुर उपयोग है?
महिला अधिकारियों की भूमिका: सशक्तिकरण या प्रतीकात्मकता?
इस ऑपरेशन की ब्रीफिंग महिला अधिकारियों — कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह — द्वारा की गई। यह निर्णय महिलाओं की भागीदारी को उजागर करता है।
लेकिन सवाल यह है — क्या यह वास्तविक सशक्तिकरण है? या यह केवल एक रणनीतिक प्रयास है जिसमें महिलाओं की उपस्थिति का उपयोग सैन्य कार्रवाई को नैतिक और भावनात्मक वैधता देने के लिए किया गया है?
अमित सेनगुप्ता ने “The Politics of Symbolism” में लिखा है:
“This is an old ploy. If men are killed or targeted, let the women be weaponised. Use women as weapons of war — morally, emotionally, as propaganda, as battle.”
यह कथन उस गहरे पितृसत्तात्मक ढांचे को उजागर करता है, जिसमें स्त्री की देह और भावना को युद्ध की भाषा में आसानी से उपयोग किया जाता है — कभी माँ, बहन, देवी के रूप में, तो कभी ‘योद्धा’ या ‘बदले की अग्नि’ के प्रतीक के रूप में।
महिला सशक्तिकरण बनाम प्रतीकात्मकता
स्त्रियों की भागीदारी हर क्षेत्र में अनिवार्य है — सेना भी अपवाद नहीं।
लेकिन जब उन्हें केवल प्रतीक या प्रचार का चेहरा बना दिया जाता है, तो वह सशक्तिकरण नहीं, सत्ता की रणनीति बन जाती है। इसमें स्त्री की agency नहीं होती, केवल उसकी representational utility होती है।
इसलिए हमें यह पूछना चाहिए —
क्या हम सच में स्त्रियों को सशक्त बना रहे हैं,
या बस उनके नाम पर सत्ता की संरचना को और मजबूती दे रहे हैं?
Operation Sindoor यह दर्शाता है कि कैसे सांस्कृतिक प्रतीकों और महिलाओं की भागीदारी का उपयोग सैन्य और राजनीतिक उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है।
यह आवश्यक है कि महिला भागीदारी केवल दिखावे तक सीमित न रह जाए, बल्कि उन्हें निर्णय-निर्माण की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से शामिल किया जाए।
सच्चा सशक्तिकरण वहीं होता है जहाँ महिलाएं केवल उपस्थिति मात्र नहीं, बल्कि नेतृत्व और नीति निर्धारण की धुरी बनती हैं।

बेगूसराय, बिहार की रहने वाली अंशू कुमार ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से एमफिल और पीएचडी पूरी की है। उनकी कविताएँ सदानीरा, हिंदवी, हिन्दीनामा और अन्य पर प्रकाशित हुई है समकालीन विषयों पर उनके लेख नियमित रूप से अखबारों और डिजिटल प्लेटफार्म में पब्लिश होते रहते हैं। वर्तमान में वह अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में रिसर्च फेलो के रूप में कार्यरत हैं।