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पिंकवॉशिंग: महिला सशक्तिकरण की मार्केटिंग

क्या ब्रांड्स और सरकारें महिला सशक्तिकरण के नाम पर सिर्फ प्रतीकात्मकता बेच रही हैं? एक आलोचनात्मक विश्लेषण।

जब भी महिला सशक्तिकरण की बात होती है, तो उसके साथ उम्मीदों, बदलावों और बराबरी की एक कल्पना जुड़ी होती है। लेकिन जब यही ‘सशक्तिकरण’ सरकारों, कॉर्पोरेट ब्रांड्स और मीडिया के लिए प्रचार का औजार बन जाए, तब यह विचार संदेह के घेरे में आ जाता है।

आज हम जिस युग में हैं, वहां ‘महिला सशक्तिकरण’ सिर्फ एक सामाजिक लक्ष्य नहीं, बल्कि एक मार्केटिंग स्ट्रैटेजी बन चुका है—एक ऐसा उत्पाद, जिसे ब्रांड अपने फायदे के लिए बेचते हैं, और सरकारें अपने एजेंडे को वैध ठहराने के लिए इसका प्रयोग करती हैं। इस प्रवृत्ति को आधुनिक संदर्भ में अक्सर “पिंकवॉशिंग” कहा जाता है।

पिंकवॉशिंग: अर्थ और उत्पत्ति

‘पिंकवॉशिंग’ शब्द की उत्पत्ति मुख्यतः LGBTQIA+ अधिकारों के संदर्भ में हुई थी, लेकिन यह शब्द अब महिला मुद्दों के बाज़ारीकरण के लिए भी प्रयुक्त होता है। इसका आशय है—महिला सशक्तिकरण का प्रदर्शन करना, जबकि वास्तव में महिला हितों के लिए कोई ठोस कार्य न किया जाए।

यह दिखावा अक्सर गुलाबी रंग के प्रतीकों, नारों और अभियानों के माध्यम से किया जाता है, जो सिर्फ सतही समर्थन प्रदर्शित करते हैं। गुलाबी रंग को ‘स्त्रीत्व’ का पर्याय मानकर जब इसे उत्पादों, विज्ञापनों या सरकारी अभियानों में शामिल किया जाता है, तो अक्सर वास्तविक समस्याओं से ध्यान भटक जाता है।

कॉर्पोरेट ब्रांड्स और सशक्तिकरण का व्यापार

आज की वैश्विक और डिजिटल अर्थव्यवस्था में ब्रांड्स को सामाजिक रूप से ‘जागरूक’ दिखने की होड़ लगी है। महिला दिवस, स्तन कैंसर जागरूकता माह, या #ShePower जैसे अभियान इन कंपनियों के लिए केवल अवसर होते हैं। कॉस्मेटिक्स कंपनियां ‘फीमेल एम्पावरमेंट’ के नाम पर गुलाबी पैकिंग में उत्पाद बेचती हैं; कपड़ों के ब्रांड ‘सशक्तिकरण’ को प्रिंट कर टी-शर्ट्स बेचते हैं।

लेकिन क्या इन कंपनियों ने कभी यह सोचा है कि उनकी फैक्ट्रियों में काम करने वाली महिलाएं किस शोषण का शिकार होती हैं? जो कंपनियां महिला अधिकारों के नाम पर प्रोडक्ट्स की मार्केटिंग करती हैं, वे ही महिलाओं को न्यूनतम वेतन और असुरक्षित कार्यस्थल प्रदान करती हैं।

इस तरह के विरोधाभास हमें यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या सशक्तिकरण अब एक मार्केटिंग ‘टूल’ भर बन गया है? उदाहरण के तौर पर, एक बड़े ब्रांड ने महिला दिवस पर एक अभियान शुरू किया, जिसमें महिलाओं की आज़ादी और आत्मनिर्भरता की बात की गई, लेकिन उसी कंपनी की एक रिपोर्ट से खुलासा हुआ कि उनके सप्लाई चेन में काम करने वाली महिलाएं शोषण और असमान वेतन का सामना कर रही थीं।


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सरकारी योजनाएं: सशक्तिकरण या प्रतीकात्मकता?

केवल कॉर्पोरेट जगत ही नहीं, सरकारें भी महिला सशक्तिकरण को अपने प्रचार की वस्तु बना रही हैं। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे अभियानों में जब ज़्यादा बजट प्रचार में खर्च हो और वास्तविक लाभ ज़मीनी स्तर पर नगण्य हो, तो सवाल उठना स्वाभाविक है।

कई बार सरकारें महिला अधिकारियों के नेतृत्व वाले अभियानों को एक प्रतीकात्मक प्रदर्शन की तरह पेश करती हैं—जैसे किसी सैन्य अभियान में महिला अफसर को आगे रखकर यह बताना कि महिलाएं अब ‘हर क्षेत्र में बराबर’ हैं, जबकि सामाजिक संरचनाएं, वेतन असमानता, बलात्कार और घरेलू हिंसा जैसे मुद्दे यथावत बने रहते हैं।

इन अभियानों के पोस्टरों में महिलाएं शक्तिशाली मुद्रा में दिखती हैं, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि बहुत सी महिलाओं को अपने निर्णय स्वयं लेने की भी आज़ादी नहीं है। ग्रामीण भारत में महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य और अधिकारों को लेकर जो चुनौतियाँ हैं, वे मीडिया फ्रेम में जगह नहीं पातीं। इन योजनाओं की आलोचना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि वे महिलाओं को सशक्त करने की बजाय ‘दया’ या ‘संरक्षण’ की दृष्टि से देखती हैं।

मीडिया और ‘सशक्त स्त्री’ की कृत्रिम छवि

मीडिया में महिला सशक्तिकरण का एक खास ‘ब्रांडेड’ संस्करण दिखाया जाता है—स्वतंत्र, आत्मनिर्भर, स्टाइलिश और कभी-कभी ‘बोल्ड’। यह छवि मुख्यतः शहरी, उच्च वर्गीय महिलाओं के इर्द-गिर्द घूमती है।

इसके पीछे यह धारणा छिपी होती है कि “अगर वह ऑफिस जा रही है, निर्णय ले रही है, तो वह सशक्त है”। जबकि हकीकत यह है कि असली सशक्तिकरण केवल आर्थिक या बाहरी सफलता से नहीं, बल्कि सामाजिक, मानसिक और वैचारिक आज़ादी से आता है।

इस कृत्रिम छवि के कारण ग्रामीण या वंचित पृष्ठभूमि से आने वाली महिलाएं ‘कमतर’ मानी जाती हैं। उनके संघर्ष, उनकी आवाज़ें और उनकी परिभाषाएं मुख्यधारा की महिला सशक्तिकरण कथा से बाहर कर दी जाती हैं। ऐसे में यह ज़रूरी हो जाता है कि हम उन आवाज़ों को शामिल करें जो “गुलाबी” फ्रेम में फिट नहीं बैठतीं।

महिला सशक्तिकरण की बाज़ारीकरण पर आलोचना इसलिए आवश्यक है क्योंकि जब कोई विचार महज एक ब्रांडिंग टूल बन जाता है, तो उसका मूल लक्ष्य छूट जाता है। जब ब्रांड ‘फीमेल एम्पावरमेंट’ के नाम पर लाखों कमाते हैं लेकिन महिलाओं को निर्णय प्रक्रिया में शामिल नहीं करते, तो यह महज दिखावा बनकर रह जाता है।

जब सरकारें महिला-नेतृत्व को ‘विजुअल स्पेक्टेकल’ के रूप में प्रस्तुत करती हैं, परंतु संसद में महिला प्रतिनिधित्व 15% से नीचे रहता है, तब वह ‘सशक्तिकरण’ नहीं, बल्कि प्रतीकात्मकता का प्रदर्शन है।

आलोचना का मकसद इन अभियानों को खारिज करना नहीं, बल्कि उन्हें ज़मीनी और ठोस बनाने की मांग करना है। जब तक महिला सशक्तिकरण की परिभाषा केवल ‘सुविधाजनक’ महिलाओं तक सीमित रहेगी—जो बाज़ार की भाषा बोल सकती हैं, जो कैमरे के सामने अच्छी दिखती हैं—तब तक असल बदलाव मुमकिन नहीं।

वैकल्पिक दृष्टिकोण और समाधान की दिशा में

महिला सशक्तिकरण का उद्देश्य महिलाओं को निर्णय लेने, अपनी ज़िंदगी के विकल्प तय करने और सामाजिक संरचनाओं को चुनौती देने की शक्ति देना होना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि:

  1. नीतियों और योजनाओं का निर्माण महिलाओं की भागीदारी से हो, न कि उनके लिए केवल तय कर दिया जाए।

  2. कॉर्पोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी में महिलाओं के लिए सिर्फ प्रतीकात्मक अभियानों की जगह उनके कार्यस्थलों में संरचनात्मक सुधार हों—वेतन समानता, लचीलापन, यौन उत्पीड़न से सुरक्षा जैसे मुद्दों पर ठोस नीतियाँ लागू हों।

  3. मीडिया को चाहिए कि वह केवल ‘आकर्षक’ महिला छवियों से आगे बढ़कर हाशिए की महिलाओं की कहानियों को भी स्थान दे, जो वास्तव में असमानता से लड़ रही हैं।

‘पिंकवॉशिंग’ और महिला सशक्तिकरण का बाज़ारीकरण हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि कहीं हम बदलाव की सच्ची प्रक्रिया को केवल एक दिखावे में तो नहीं बदल रहे? जब तक सशक्तिकरण एक विचार नहीं, बल्कि एक उत्पाद बना रहेगा, तब तक समाज में असली बराबरी संभव नहीं।

इसलिए ज़रूरी है कि हम महिला सशक्तिकरण को ‘उत्सव’ नहीं, एक सतत संघर्ष और प्रक्रिया के रूप में देखें—जहाँ हर महिला, चाहे वह किसी भी वर्ग, क्षेत्र या स्थिति से आती हो, अपनी आवाज़ और चुनाव का हक पा सके। तभी यह शब्द अपने अर्थ और उद्देश्य को सार्थक कर पाएगा।

anshu kumar

बेगूसराय, बिहार की रहने वाली अंशू कुमार ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से एमफिल और पीएचडी पूरी की है। उनकी कविताएँ सदानीरा, हिंदवी, हिन्दीनामा और अन्य पर प्रकाशित हुई है समकालीन विषयों पर उनके लेख नियमित रूप से अखबारों  और डिजिटल प्लेटफार्म में पब्लिश होते रहते हैं। वर्तमान में वह अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में रिसर्च फेलो के रूप में कार्यरत हैं।

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