‘सुपर वुमन’ नहीं, इंसान हूं मैं: घर, समाज और बाज़ार की अपेक्षाओं में उलझी महिलाएं

रिपोर्टें बता रही हैं कि घरेलू और कामकाजी महिलाएं मानसिक और शारीरिक थकान से टूट रही हैं — लेकिन अब बदलाव की शुरुआत महिलाओं को खुद करनी होगी।
औरतों को यह समझने की जरूरत है कि उन्हें ‘सुपर वुमन’ बनाए रखना उनके परिवार, समाज और बाजार — तीनों के हित में है। पितृसत्ता नहीं चाहती कि वे कोई भी जिम्मेदारी छोड़ें।
अब एक नहीं, बल्कि कई रिपोर्टें सामने आ चुकी हैं जो यह दिखाने का प्रयास कर रही हैं कि कोरोना काल में केवल घरेलू महिलाएं ही नहीं, बल्कि कामकाजी महिलाएं भी अत्यधिक दबाव महसूस कर रही हैं। सामान्य दिनों की तुलना में अब उनका कार्यभार काफी बढ़ गया है, जिससे उनका वर्क प्रेशर दोगुना हो गया है। इसका सीधा असर उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर पड़ रहा है।
सुपर वुमन तो चुटकी बजाते ही सब कुछ दो मिनट में कर लेती है
‘सुपर वुमन’ तो वह होती है जो चुटकी बजाते ही सब कुछ दो मिनट में निपटा लेती है — ऐसा ही तो कहा जाता है।
लेकिन यह स्थिति बनी कैसे? घरेलू और कामकाजी — दोनों तरह की महिलाएं पहले से ही ‘सुपर वुमन’ और ‘सुपर मॉम’ कही जाती रही हैं। तो फिर, जब वे पहले से ही इतना कुछ संभाल रही थीं, तो अब वर्क प्रेशर दोगुना कैसे हो गया? और फिर, इसका सीधा असर उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर क्यों पड़ रहा है? यह बात कुछ पचती नहीं।
कुछ समय पहले, यूट्यूब पर साक्षी तंवर की एक फिल्म ‘घर की मुर्गी’ वायरल हुई थी — ठीक कोरोना काल के पहले। फिल्म को दर्शकों ने खूब पसंद किया, उस पर कई लेख लिखे गए और लाखों व्यूज़ मिले। लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि फिल्म जो कहना चाहती थी, वह ज़्यादातर लोगों ने समझा ही नहीं। शायद यही वजह है कि आज जब कोरोना के बाद कामकाजी और घरेलू महिलाओं की स्थिति पर रिपोर्टें सामने आ रही हैं, तो वे एक दर्द को उजागर कर रही हैं, जिससे आंखें खुल रही हैं — और दिल भी दुख रहा है।
अरे हां! मैं तो बताना भूल ही गई कि ‘घर की मुर्गी’ आखिर कहना क्या चाहती थी।
अगर यही सुपर वुमन काम करने से मना कर दे तो आपका क्या होगा?

‘‘घर की मुर्गी’ फिल्म में एक घरेलू महिला दिखाई गई है, जो साथ ही अपना एक छोटा-सा काम भी करती है। फिल्म में यह स्पष्ट दिखाया गया है कि रोज़मर्रा के घरेलू कामकाज और जिम्मेदारियों का सारा बोझ उसी के कंधों पर है। परिवार के किसी सदस्य का सहयोग न मिलने के कारण वह धीरे-धीरे अपनी पहचान और आत्म-सम्मान खोती जा रही है।
एक दिन, वह सब कुछ छोड़कर कहीं बाहर जाने का निर्णय लेती है। जैसे ही वह यह बात घरवालों को बताती है, पूरे परिवार की घिग्घी बंध जाती है — सभी परेशान हो उठते हैं कि उसके बिना घर कैसे चलेगा।
लेकिन वह अपने फैसले पर अडिग रहती है और घर से निकल पड़ती है। हालांकि, परिवार के प्रति मोह उसे वापस खींच लाता है। कुछ ही घंटों की उसकी अनुपस्थिति पूरे घर को यह एहसास दिला देती है कि परिवार एक व्यक्ति के बल पर नहीं चलता — सभी को मिलकर जिम्मेदारियों में हाथ बंटाना चाहिए। यही समायोजन का पाठ परिवार के सभी सदस्यों को सीखना चाहिए।
सुपर वुमन से पुरुषवादी समाज और बाजार का फायदा
हमारी सामाजिक सभ्यता और संस्कृति ने पहले महिलाओं को देवी बना दिया, और फिर बाज़ार ने अपनी ज़रूरतों के अनुसार उन्हें ‘सुपर वुमन’ या ‘सुपर मॉम’ की छवि में ढाल दिया।
लेकिन एक आम महिला, जो अपने रोज़मर्रा के जीवन में केवल दो पल की शांति, चाय की एक प्याली और अपने पसंदीदा गीत के साथ थोड़ा सुकून चाहती है — उसकी इस साधारण सी इच्छा पर न तो समाज ने ध्यान दिया, न ही बाज़ार ने।
इन दोनों पाटों के बीच पिसती हुई वह ‘देवी’ कभी ‘सुपर वुमन’ बनी, कभी ‘सुपर मॉम’, लेकिन एक आम इंसान बनने का अधिकार उसे कभी नहीं मिला। इसलिए जब किसी आपातकालीन स्थिति में उस पर काम का दोहरा दबाव पड़ा, तो वह अपनी बनी-बनाई छवि में ही उलझी रही — सब कुछ समेटने में मशगूल। उसे यह समझ ही नहीं आया कि वह भी एक सामान्य इंसान है, जिसकी अपनी सीमाएं हैं। और जब तक यह एहसास हुआ, तब तक उसे डॉक्टर और मनोचिकित्सक की ज़रूरत पड़ चुकी थी।
परिवार वालों को अपनी भूमिका बदलनी होगी
अगर ध्यान से देखा जाए, तो इस कोरोना महामारी के दौरान असली ज़रूरत परिवार में समायोजन की भावना विकसित करने की थी — ताकि किसी महिला पर दोहरा दबाव आने की नौबत ही न आती। लेकिन जब शुरुआत से ही परिवार को यह सीख न मिली हो, तो दोष किसे दें? परिवार तो वही व्यवहार करेगा जो उसने समाजीकरण की प्रक्रिया में सीखा है।
आज ज़रूरत इस बात की है कि परिवार समझदारी और सहयोग का पाठ सीखे — और घर के छोटे-बड़े हर काम में मिलकर हाथ बंटाना सीखे। वहीं इससे भी ज़्यादा ज़रूरी यह है कि चाहे वह कोई आम घरेलू महिला हो या एक कामकाजी महिला, वह इस सच्चाई को समझे कि वह न तो कोई ‘देवी’ है, और न ही कोई ‘सुपर वुमन’। वह हर मोर्चे पर अकेले लड़ने वाली ‘वन वुमन आर्मी’ नहीं है। उसे भी थकान होती है, और उसे भी आराम की ज़रूरत है।
अगर वह खुद इस सच्चाई को गंभीरता से नहीं समझेगी, तो सुकून की ठंडी छांव में चाय की चुस्कियों के साथ ‘देखा है पहली बार साजन की आंखों में प्यार’ जैसे गीत का आनंद, गर्मागर्म पकौड़ों के साथ, शायद कभी न ले पाए।
बदलाव लाना है तो महिलाओं को आगे आना होगा
महिलाओं की समस्याओं पर हर साल कई रिपोर्टें प्रकाशित होती हैं। ये रिपोर्टें बड़े-बड़े आंकड़ों के ज़रिए यह साबित करती हैं कि महिलाओं के साथ अन्याय हो रहा है। लेकिन इन रिपोर्टों का हश्र अक्सर धूल खाती फाइलों में दबकर रह जाना होता है, और महिलाओं की सामाजिक स्थिति में कोई ठोस बदलाव नहीं आता।
इसलिए सबसे पहले ज़रूरी है कि महिलाएं खुद इन समस्याओं और उनके कारणों को समझें। उसके बाद, उन्हें अपने लिए तय कर दी गई यथास्थिति को बदलने के लिए घर, परिवार, समाज, राज्य और देश — सभी को विवश करना होगा।
तभी हम यह कह सकेंगे:
“बात निकली है तो दूर तलक जाएगी…
लोग बेवजह उदासी का सबब पूछेंगे…
ये भी पूछेंगे कि तुम इतनी परेशान क्यों हो?”’

बेगूसराय, बिहार की रहने वाली अंशू कुमार ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से एमफिल और पीएचडी पूरी की है। उनकी कविताएँ सदानीरा, हिंदवी, हिन्दीनामा और अन्य पर प्रकाशित हुई है समकालीन विषयों पर उनके लेख नियमित रूप से अखबारों और डिजिटल प्लेटफार्म में पब्लिश होते रहते हैं। वर्तमान में वह अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में रिसर्च फेलो के रूप में कार्यरत हैं।