“जब खेत में पसीना बहाती हैं महिलाएं, तो ज़मीन पर नाम क्यों नहीं?”
बिहार की महिलाओं की भूमि पर दावेदारी की लड़ाई – परंपरा, कानून और उम्मीद की कहानी।

जब खेत की मेड़ पर एक महिला खड़ी होती है, तो उसके हाथ में कुदाल होती है, पीठ पर बच्चा, और मन में अनगिनत सवाल। वह खेत जोती है, बुवाई करती है, फसल काटती है, लेकिन जब पूछा जाए कि ज़मीन किसकी है—तो उत्तर हमेशा होता है, “पति की”, “पिता की”, या “भाई की”।
भारत के ग्रामीण जीवन में यह विडंबना आम है कि महिलाएं खेतों में पसीना बहाती हैं, मगर अधिकार की बात आए तो उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है।
परंपरा और पितृसत्ता की जकड़न
बिहार की सामाजिक संरचना गहराई से पितृसत्तात्मक है। बेटियों को बचपन से ही सिखाया जाता है कि वे “पराई अमानत” हैं, जिनका अधिकार मायके की संपत्ति पर नहीं होता। विवाह के बाद वे ससुराल जाती हैं, लेकिन वहां भी उनका नाम ज़मीन के कागज़ों में नहीं होता। भूमि के स्वामित्व को पुरुष की पहचान और वर्चस्व से जोड़ा गया है, और महिला का संबंध उससे केवल श्रम तक सीमित कर दिया गया है।
यह मानसिकता न केवल सामाजिक रूप से अन्यायपूर्ण है, बल्कि आर्थिक रूप से भी महिलाओं को निर्भर बनाए रखती है। बिना ज़मीन के नाम के, महिला किसी बैंक से कर्ज नहीं ले सकती, सरकारी योजनाओं का सीधा लाभ नहीं उठा सकती, और ना ही खेती से जुड़ी कोई स्वतंत्र योजना बना सकती है। यह केवल ज़मीन का सवाल नहीं है, यह उसके अस्तित्व का प्रश्न है।
कानून और ज़मीनी हकीकत का टकराव
2005 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन कर बेटियों को पिता की संपत्ति में बराबरी का अधिकार दिया गया। यह एक ऐतिहासिक कदम था, लेकिन बिहार में इसकी स्वीकार्यता सामाजिक स्तर पर बेहद सीमित रही। कानून के होने के बावजूद समाज में इसे “घर फूटने” का कारण मान लिया गया। जो बेटियां ज़मीन में हिस्सा मांगती हैं, उन्हें रिश्तों से गद्दार घोषित कर दिया जाता है। उनका “संस्कार” सवालों के घेरे में आ जाता है।
कई मामलों में महिलाएं इस डर से चुप रहती हैं कि अगर उन्होंने पिता की ज़मीन पर हक मांगा, तो भाई उनसे सारे संबंध तोड़ देगा। एक बहन के लिए यह दुविधा असहनीय होती है — वह अपने अधिकार के लिए लड़े या अपने परिवार के लिए चुप रहे?
प्रशासनिक जटिलताएं और कानूनी जानकारी की कमी
एक और बड़ी बाधा है – जानकारी की कमी। बिहार की अधिकतर ग्रामीण महिलाएं अब भी यह नहीं जानतीं कि उन्हें कानूनी रूप से ज़मीन में हिस्सा मिल सकता है। और जो जानती भी हैं, उनके लिए राजस्व विभाग, पटवारी और दस्तावेज़ों की जटिल भाषा किसी पहेली से कम नहीं होती। भूमि रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया में पारदर्शिता का अभाव और भ्रष्टाचार उन्हें और पीछे धकेल देता है।
ऐसी व्यवस्था में महिला के लिए अपने हक को हासिल करना केवल कानूनी नहीं, मानसिक, सामाजिक और प्रशासनिक संघर्ष का मामला बन जाता है।
सरकार की योजनाएं: नाम की नारीशक्ति?
बिहार सरकार ने महिलाओं को खेती से जोड़ने के कई प्रयास किए—मुख्यमंत्री नारी शक्ति योजना, जीविका समूहों के माध्यम से सामूहिक खेती की पहल—लेकिन इनमें भी महिलाएं अधिकतर लाभार्थी बनकर रह जाती हैं, मालिक नहीं। खेती के उपकरण, बीज और प्रशिक्षण तो दिए जाते हैं, परंतु भूमि का स्वामित्व नहीं। जब ज़मीन ही अपनी न हो, तो ये सब सहायता अधूरी रह जाती है।
कुछ योजनाओं में महिलाओं के नाम पर ज़मीन रजिस्ट्री करने की प्रोत्साहन राशि दी गई, लेकिन समाज में पति या परिवार इसे अपनी ही संपत्ति मानते हैं, और महिला केवल “नाममात्र” की मालिक बनती है। उसकी भूमिका केवल दस्तावेज़ तक सीमित रहती है, निर्णय का अधिकार फिर भी पुरुष के पास ही होता है।
बिहार में महिलाएं खेती का लगभग हर कार्य करती हैं—हल्की खुदाई से लेकर फसल की ढुलाई तक। लेकिन उनके श्रम को न तो आर्थिक मूल्य मिलता है, न सामाजिक पहचान। यह वह “अदृश्य श्रम” है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलता आ रहा है, और इसके बदले महिलाएं केवल श्रमदान करती रहती हैं, अधिकार की बात सोचे बिना।
एक ग्रामीण महिला कहती है: “हमरे हाथ से खेत बनता है, लेकिन उस पर हमारा नाम कहीं नहीं होता।” यह वाक्य उस सामाजिक विडंबना को नंगा करता है जिसमें ज़मीन की असली मालिक वही है जो उसमें पसीना बहा रही है, मगर नाम उसी का है जो कागज़ पर दस्तखत करता है।
हालांकि, कुछ जिलों में सकारात्मक बदलाव की मिसालें भी देखने को मिली हैं। महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों ने ज़मीन पर सामूहिक खेती शुरू की है। कुछ संगठनों ने महिलाओं को भूमि अधिकार की कानूनी जानकारी देकर उन्हें ज़मीन की रजिस्ट्री में अपना नाम जुड़वाने के लिए प्रोत्साहित किया है।
लेकिन ये उदाहरण अभी अपवाद हैं, नियम नहीं। जब तक राज्य स्तर पर ठोस नीतियां, सामाजिक जागरूकता और प्रशासनिक पारदर्शिता नहीं लाई जाती, तब तक भूमि अधिकार केवल दस्तावेज़ों तक सीमित रहेंगे।
सीता देवी (गया, बिहार): श्रम से स्वामित्व तक का सफर
सीता देवी, गया जिले के एक छोटे से गांव से हैं। पति की मृत्यु के बाद परिवार के पुरुषों ने तय कर लिया था कि ज़मीन अब उनके बेटे के नाम होगी। लेकिन सीता देवी ने ज़ोर देकर कहा, “जब खेत मैंने सींचा, बीज मैंने बोए, तो नाम मेरा क्यों नहीं?”
उन्होंने जीविका समूह से जुड़कर ज़मीनी कागज़ात समझे, पटवारी से भिड़ीं और अंततः अपने हिस्से की ज़मीन को अपने नाम करवाया। अब वह सिर्फ अपने खेत की मालिक नहीं, बल्कि गांव की कई महिलाओं को अपने अधिकार के लिए लड़ने की प्रेरणा भी हैं।
फातिमा खातून (सीवान, बिहार): बेवाओं की आवाज
सीवान की फातिमा खातून की कहानी दुख से शुरू होती है। उनके पति की मौत एक सड़क दुर्घटना में हुई और परिवारवालों ने उन्हें ‘बोझ’ मानकर घर से बाहर करने की कोशिश की। लेकिन फातिमा ने हार नहीं मानी।
उन्होंने अपने ससुराल की ज़मीन पर कानूनी दावा किया और पंचायत के सामने पैरवी की। आज वह उसी खेत से सब्ज़ी की खेती कर रही हैं और हर महीने ₹15,000 तक कमा रही हैं। उन्होंने गांव में ‘नारी किसान मंडल’ बनाया है जहां विधवा और परित्यक्ता महिलाएं सामूहिक खेती करती हैं।
कमला देवी (दरभंगा): बेटी ने माँ को ज़मीन दिलाई
कमला देवी को कभी लगा ही नहीं था कि उनके नाम भी ज़मीन हो सकती है। उनके पति ने कभी कागज़ों में उनका नाम नहीं जोड़ा। लेकिन उनकी पढ़ी-लिखी बेटी ने RTI से जमीन रजिस्ट्रेशन की जानकारी निकाली और मां का नाम दाखिल करवाया।
अब कमला देवी खेतों में नई तकनीक से खेती करती हैं और महिलाओं के लिए नियमित वर्कशॉप भी चलाती हैं। उन्होंने साफ कहा: “जब तक नाम नहीं जुड़ता, काम को इज्ज़त नहीं मिलती।”
खेत की मिट्टी में बराबरी की खुशबू कब आएगी?
बिहार की महिलाएं आज भी खेत में वही काम कर रही हैं जो उनकी दादी-नानी किया करती थीं। लेकिन उनके अधिकार, सम्मान और स्वतंत्रता का सपना आज भी अधूरा है। जब तक उनके नाम खेत की रजिस्ट्री में नहीं जुड़ते, तब तक नारी सशक्तिकरण केवल भाषणों और योजनाओं का विषय बना रहेगा।
आज ज़रूरत है कि हम यह स्वीकार करें—महिला का खेत से रिश्ता केवल श्रम का नहीं, अधिकार का भी होना चाहिए। वह केवल बीज बोने वाली नहीं, निर्णय लेने वाली भी बने। ज़मीन की मेड़ पर खड़ी वह स्त्री तभी आत्मनिर्भर मानी जाएगी, जब खेत की मिट्टी में उसके नाम की खुशबू भी शामिल हो।

किसी भी व्यक्ति का परिचय शब्दों में ढले, समय के साथ संघर्षों से तपे-तपाये विचार ही दे देते है, जो उसके लिखने से ही अभिव्यक्त हो जाते है। सम्मान से जियो और लोगों को सम्मान के साथ जीने दो, स्वतंत्रता, समानता और बधुत्व, मानवता का सबसे बड़ा और जहीन धर्म है, मुझे पूरी उम्मीद है कि मैं अपने वर्तमान और भविष्य में भी इन चंद उसूलों के जीवन जी सकूंगा और मानवता के इस धर्म से कभी मुंह नहीं मोड़ पाऊगा।