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₹49 में सफाई की सुविधा! लेकिन काम वाली महिलाओं की हकीकत क्या है?

महानगरों में इंस्टा मेड्स जैसी ऐप-सेवाएं सफाई को सुविधा में बदल रही हैं—but क्या तकनीक के इस नए मॉडल में महिला श्रमिकों की मेहनत को सम्मान मिल रहा है या सिर्फ बाज़ारीकरण?

मुंबई जैसे तेज़ रफ्तार महानगर में जहां समय सबसे कीमती संसाधन है, वहाँ अर्बन कंपनी की नई सेवा ‘इंस्टा मेड्स’ को समय बचाने वाले समाधान के तौर पर प्रस्तुत किया जा रहा है।

₹49 प्रति घंटे की दर से ग्राहक झाड़ू-पोंछा, बर्तन और खाना बनाने जैसी सेवाएं 15 मिनट में अपने दरवाज़े पर मंगवा सकते हैं। यह सुविधा जितनी आधुनिक दिखती है, इसके पीछे छुपा श्रम उतना ही पारंपरिक और अदृश्य है—वह श्रम जो दशकों से महिलाओं द्वारा किया जा रहा है, बिना मान्यता और सम्मान के।

 

घरेलू श्रम: जिसे देखा सबने, समझा किसी ने नहीं

हर घर में काम करने वाली महिलाओं का जीवन हमारी ज़िंदगी को सरल बनाता है, लेकिन उनके काम को अक्सर ‘काम’ नहीं समझा जाता। जब वे छुट्टी पर होती हैं, तब उनकी अनुपस्थिति महसूस होती है। लेकिन उनका योगदान शायद ही कभी खुले तौर पर स्वीकारा जाता है। अर्बन कंपनी की ‘इंस्टा मेड्स’ सेवा अब इसी पारंपरिक श्रम को ‘डिलीवेरेबल सर्विस’ में बदल रही है—एक ऐसी सेवा जिसे ऐप से बुक किया जा सकता है, और जो समय पर उपलब्ध हो जाती है।

‘इंस्टा मेड्स सेवा में महिला एक इंसान नहीं, एक ‘प्रोडक्ट’ बन जाती है—उसे यूनिफॉर्म पहनाई जाती है, ट्रेंड किया जाता है और ग्राहक की सुविधा के अनुसार प्रस्तुत किया जाता है। अर्बन कंपनी का दावा है कि वह महिला श्रमिकों को ट्रेनिंग देती है, सुरक्षित कार्य वातावरण उपलब्ध कराती है और उन्हें सम्मानजनक स्थिति देती है। पर क्या यह सच्चाई है?

 

इन महिला श्रमिकों के पास न तो आराम का अधिकार है, न ही बीमार पड़ने का समय। तकनीक ने इनके काम को ऑन-डिमांड बना दिया है, जिससे यह मान लिया गया है कि घरेलू काम कभी भी, किसी भी समय करवाया जा सकता है।

‘कर्मचारी’ या ‘पार्टनर’—शब्दों से नहीं बदलती हकीकत

इंस्टा मेड्स जैसी सेवाएं महिला श्रमिकों को “पार्टनर” कहती हैं, लेकिन क्या उन्हें पार्टनर जैसा दर्जा दिया जाता है? क्या उनके पास बीमा, मातृत्व अवकाश, या शिकायत निवारण की व्यवस्था है?

आज भी घरेलू काम करने वाली महिलाओं को कानूनन ‘कर्मचारी’ नहीं माना जाता। उनके पास न तो श्रम अधिकार हैं, न ही सामाजिक सुरक्षा। जब तक उन्हें कानूनी पहचान नहीं मिलेगी, तब तक “पार्टनर” शब्द केवल एक छलावा बना रहेगा।

इंस्टा मेड्स के विज्ञापनों में ग्राहक की मुस्कान और साफ़-सुथरा घर तो दिखाई देता है, लेकिन जिनके श्रम से यह संभव हुआ, वे महिलाएं कहीं नहीं होतीं। उनका चेहरा, उनकी थकान, उनकी इच्छाएं—सब कुछ अदृश्य है।

यह ‘डिजिटल अदृश्यता’ का एक नया रूप है, जिसमें श्रम तो मौजूद है, लेकिन श्रमिक कहीं नहीं दिखता।


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गिग इकॉनॉमी: अवसर या शोषण का नया ज़रिया?

ऐप-आधारित नौकरियाँ आज की गिग इकॉनॉमी का हिस्सा हैं। इनमें लचीलापन तो है, लेकिन स्थायित्व और सुरक्षा की कमी है। महिलाओं के लिए यह एक अवसर हो सकता है—पर तब जब उनके श्रम को सम्मान, अधिकार और पहचान मिले।

वरना यह सिर्फ़ वही पुराना घरेलू श्रम है, जिसे अब तकनीकी लिबास पहना दिया गया है। यह सामाजिक अदृश्यता और सांस्कृतिक बहिष्कार दोनों है।

 फिल्मों और विज्ञापनों में घरेलू सहायिकाओं को हास्य, सहायक या हाशिए के पात्र के रूप में देखते हैं—मुख्य भूमिका में नहीं। जब वे हमारे घरों की रीढ़ हैं, तब उनकी कहानियाँ सिनेमा या मीडिया की मुख्यधारा में क्यों नहीं होतीं?

स्थिति को सुधारने के लिए कुछ जरूरी कदम:

कानूनी मान्यता: घरेलू श्रमिकों को श्रम कानूनों के दायरे में लाया जाए। सामाजिक सुरक्षा: बीमा, स्वास्थ्य लाभ, और मातृत्व अवकाश मिले। संस्कृति में सम्मान: फिल्मों और मीडिया में गरिमामयी छवि हो। भुगतान, शर्तें और समयसीमा स्पष्ट हो।

इंस्टा मेड्स जैसी सेवाएं हमारे जीवन को आसान बनाती हैं, लेकिन उनकी बुनियाद उन्हीं महिलाओं पर टिकी है जिन्हें हम वर्षों से ‘नौकर’ कहकर हाशिए पर डालते रहे हैं। आज वे ‘डिजिटल पार्टनर’ बन चुकी हैं, लेकिन जब तक उन्हें पूर्ण मानवाधिकार और श्रम अधिकार नहीं मिलते, तब तक उनकी स्थिति नहीं बदलेगी।

हमें यह तय करना होगा कि हम सुविधा चाहते हैं या न्याय।


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Pratyush Prashant

किसी भी व्यक्ति का परिचय शब्दों में ढले, समय के साथ संघर्षों से तपे-तपाये विचार ही दे देते है, जो उसके लिखने से ही अभिव्यक्त हो जाते है। सम्मान से जियो और लोगों को सम्मान के साथ जीने दो, स्वतंत्रता, समानता और बधुत्व, मानवता का सबसे बड़ा और जहीन धर्म है, मुझे पूरी उम्मीद है कि मैं अपने वर्तमान और भविष्य में भी इन चंद उसूलों के जीवन जी सकूंगा और मानवता के इस धर्म से कभी मुंह नहीं मोड़ पाऊगा।

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