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लड़कियों के साइकिल चलाने की राह में समाजिक रुकावटें और उम्मीदें

सायरा बानो की साइकिल से लेकर बिहार की बेटियों तक—साइकिल सिर्फ एक साधन नहीं, आज़ादी की प्रतीक है। फिर क्यों आज भी अधिकांश लड़कियां साइकिल चलाने से डरती हैं?

दो दिन पहले 3 जून को विश्व साइकिल दिवस मनाया गया और मेरे जेहन में “मैं चली मैं चली, देखो प्यार की गली…” गीत गूंज रहा था। सायरा बानो जब फ़िल्म पड़ोसन में ये गीत गाती हुई साइकिल पर सवार होकर निकलती हैं, तो एक आत्मविश्वास, एक आज़ादी और एक उन्मुक्तता का अहसास होता है।

हिंदी सिनेमा ने अक्सर लड़कियों के साइकिल चलाने को आज़ादी, चंचलता और प्रेम के प्रतीक के रूप में चित्रित किया है। जो जीता वही सिकंदर में स्कूल ड्रेस में लड़कियों की साइकल रेस हो या तनु वेड्स मनु में कंगना रनौत का साइकिल से बेफिक्री से घूमना—इन दृश्यों में हमें एक रोमांच, आत्मनिर्भरता और सहजता दिखती है।

पर क्या यह सिनेमाई चित्रण भारतीय समाज की हकीकत को दिखाता है? या फिर ये फिल्में उस संभावित आज़ादी का सपना दिखा रही हैं, जो आज भी कई लड़कियों और महिलाओं के लिए साइकिल के पैडल जितनी ही दूर है?

साइकिल: सिर्फ दो पहिए नहीं, एक सपना

एक छोटी बच्ची जब पहली बार साइकिल चलाना सीखती है, तो उसका चेहरा आत्मविश्वास और उमंग से चमकता है। उसे लगता है कि वो दुनिया जीत सकती है। पर जैसे-जैसे वो बड़ी होती है, समाज उसकी रफ़्तार पर ब्रेक लगाना शुरू कर देता है।

गांवों में लड़कियों के लिए यह आम बात है—“अब बड़ी हो गई है, इतनी दूर साइकिल से क्यों जाएगी?”, “लोग क्या कहेंगे?”, “रास्ते सुरक्षित नहीं हैं”, “लड़की होकर साइकिल?”, “कपड़े ठीक नहीं लगते साइकिल पर”।

इन सवालों के पीछे सिर्फ सुरक्षा की चिंता नहीं, बल्कि एक गहरी पितृसत्तात्मक सोच है जो महिलाओं की स्वतंत्रता को सीमित करना चाहती है।

नैतिक दबाव और सामाजिक टोका-टाकी

भारतीय समाज में लड़कियों के साइकिल चलाने को लेकर अजीब नैतिकता का जाल बुना गया है। कई बार यह कहा जाता है कि साइकिल चलाने से ‘चरित्र’ पर सवाल उठते हैं। अगर कोई लड़की साइकिल से स्कूल या ट्यूशन जाती है, तो मोहल्ले की निगाहें उसके पीछे लग जाती हैं—“इतनी अकेले क्यों घूमती है?”, “हर दिन लड़कों के साथ दिखती है”, “बहुत तेज़ हो गई है”।

यह ‘तेज़’ शब्द भारतीय समाज में अक्सर उन लड़कियों के लिए इस्तेमाल होता है, जो अपने फैसले खुद लेती हैं। और साइकिल चलाना—यह तो पहला कदम है अपनी राह खुद चुनने की ओर।

 


नारी शक्ति के आईने में सिनेमा


शरीर और शर्म: साइकिल पर एक और बंदिश

लड़कियों को साइकिल चलाने से यह कहकर भी रोका जाता है कि इससे उनके शरीर की “हरकतें” स्पष्ट दिखती हैं। समाज का एक वर्ग मानता है कि साइकिल चलाते समय शरीर के कुछ अंग ज़्यादा हिलते हैं, जो “अशोभनीय” है। यह सोच दरअसल महिला शरीर को वस्तु की तरह देखने की मानसिकता का हिस्सा है।

कपड़े, चाल-ढाल, नज़र—हर चीज़ पर समाज का पहरा है। ऐसे में साइकिल न केवल एक साधन बनता है, बल्कि एक विरोध का रूप भी ले लेता है।

 

बिहार की साइकिल क्रांति: एक बदलाव की शुरुआत

 

2006 में बिहार सरकार ने मुख्यमंत्री बालिका साइकिल योजना शुरू की। नौवीं कक्षा में दाखिला लेने वाली सभी लड़कियों को सरकार ने साइकिल खरीदने के लिए पैसे देना शुरू किया। इस योजना ने स्कूलों में लड़कियों की उपस्थिति को क्रांतिकारी तरीके से बढ़ाया।

वे गांवों से शहरों तक, खेतों से स्कूलों तक, पहली बार अपनी रफ़्तार खुद तय कर रही थीं। यह सिर्फ एक योजना नहीं थी—यह अभिभावकों के डर, पड़ोसियों की बातें और लड़कियों की चुप्पी को चुनौती देने वाला कदम था।

साइकिल उनके लिए स्कूल पहुँचने का साधन नहीं, बल्कि अपने भविष्य तक पहुँचने की पहली सीढ़ी बन गई।

फिर भी क्यों थम जाती है रफ़्तार?

इस सकारात्मक पहल के बावजूद, आज भी बहुत सी महिलाएं साइकिल नहीं चलातीं। कारण अनेक हैं—

संकोच और आत्मविश्वास की कमी: समाज ने लड़कियों को बचपन से ही ‘सावधानी’ और ‘शालीनता’ सिखाई है, पर साइकिल चलाना एक बेफिक्री मांगता है। सुरक्षा का संकट: रास्तों पर छेड़छाड़, पीछा करना, भद्दी टिप्पणियाँ—ये सब एक लड़की की हिम्मत को तोड़ने के लिए काफी हैं।

बुनियादी सुविधाओं की कमी: ग्रामीण इलाकों में सड़कों की हालत, साइकिल की उपलब्धता, मरम्मत की दुकानें—इन सबका अभाव भी एक बड़ी बाधा है।

शादी और उम्र की बंदिश: कई महिलाएं शादी के बाद साइकिल नहीं चलातीं, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह ‘उम्र के हिसाब से’ ठीक नहीं, या पति को पसंद नहीं आएगा।

शहरों में ट्रैफिक, भीड़, और पुरुष वर्चस्व वाले सड़क के माहौल में महिलाएं अक्सर डर महसूस करती हैं। पब्लिक ट्रांसपोर्ट या कैब्स को सुरक्षित मान लिया जाता है, पर साइकिल को नहीं।

हालांकि कुछ शहरों ने साइकिल शेयरिंग सिस्टम और साइकिल ट्रैक शुरू किए हैं, फिर भी महिलाओं की भागीदारी कम है। क्योंकि डर अब भी कायम है—और समाज की सोच अब भी वही पुरानी।

साइकिल: एक क्रांतिकारी प्रतीक

साइकिल चलाना केवल एक भौतिक गतिविधि नहीं है, यह एक विचार है—स्वतंत्रता, आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास का। जब कोई लड़की साइकिल चलाती है, तो वह अनजाने में कहती है:

“मुझे किसी की सवारी नहीं चाहिए, मैं खुद चलूंगी।”

“मैं अपने रास्ते खुद बनाऊंगी।”

“मैं तेरी दी गई सीमाओं को नहीं मानती।”

रास्ता आगे का: बदलाव की ज़रूरत

अब ज़रूरत है कि इस विचार को समर्थन दिया जाए। परिवारों को समझाना होगा कि साइकिल चलाने वाली लड़की तेज़ नहीं, साहसी होती है। स्कूलों और कॉलेजों को ज़िम्मेदारी लेनी होगी कि वे लड़कियों को सुरक्षित माहौल और साइकल स्टैंड जैसी सुविधाएं दें।

सरकार को ऐसी योजनाएं और बढ़ानी होंगी जो किशोरियों और युवतियों को साइकिल चलाने के लिए प्रेरित करें। सिनेमा और सोशल मीडिया को साइकिल चलाती लड़कियों को सामान्य बनाना होगा, न कि सिर्फ रोमांस का प्रतीक।

सायरा बानो की मुस्कुराती हुई साइकिल की वह छवि एक आदर्श हो सकती है। पर आज की सायरा को समाज, डर, और नैतिकता की सड़कों पर बहुत सावधानी से चलना पड़ता है। फिर भी, हर वह लड़की जो साइकिल चलाती है—वो सिर्फ पैडल नहीं मारती, वो हर दबाव, हर डर, हर रुकावट को पीछे छोड़ती है।

क्योंकि साइकिल सिर्फ दो पहिए नहीं, एक सपना है—और सपना कोई भी देख सकता है, पूरा कर सकता है।

 

 


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Pratyush Prashant

किसी भी व्यक्ति का परिचय शब्दों में ढले, समय के साथ संघर्षों से तपे-तपाये विचार ही दे देते है, जो उसके लिखने से ही अभिव्यक्त हो जाते है। सम्मान से जियो और लोगों को सम्मान के साथ जीने दो, स्वतंत्रता, समानता और बधुत्व, मानवता का सबसे बड़ा और जहीन धर्म है, मुझे पूरी उम्मीद है कि मैं अपने वर्तमान और भविष्य में भी इन चंद उसूलों के जीवन जी सकूंगा और मानवता के इस धर्म से कभी मुंह नहीं मोड़ पाऊगा।

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