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नारी शक्ति के आईने में सिनेमा

हिंदी सिनेमा की 10 प्रेरक कहानियां जो महिलाओं की आत्मनिर्भरता, नेतृत्व और आत्म-सम्मान को पर्दे पर जीवंत करती हैं।

भारतीय सिनेमा न केवल मनोरंजन का माध्यम है, बल्कि यह सामाजिक बदलाव, विमर्श और प्रेरणा का भी स्रोत है। बीते दशकों में हिंदी सिनेमा में महिलाओं की छवि और उनकी भूमिकाओं में उल्लेखनीय परिवर्तन देखने को मिला है। जहाँ एक ओर पुराने दौर की फिल्मों में महिला पात्रों को प्रायः त्याग, सहनशीलता और पारिवारिक मर्यादाओं के प्रतीक के रूप में दिखाया गया, वहीं नई पीढ़ी की फिल्मों में वे अपने फैसले खुद लेने वाली, आत्मनिर्भर और मुखर नजर आती हैं।

नारी शक्ति को चित्रित करती कई देसी फिल्में हैं जिन्होंने न केवल सामाजिक ढांचे को चुनौती दी है, बल्कि दर्शकों को यह सोचने पर मजबूर किया है कि एक महिला कितनी सक्षम, सशक्त और निर्णायक हो सकती है। प्रस्तुत लेख में हम 10 ऐसी फिल्मों का विश्लेषण करेंगे जो नारी सशक्तिकरण के विविध पक्षों को गहराई से उजागर करती हैं।

क्वीन (2014): आत्म-खोज और आत्मनिर्भरता की अनोखी उड़ान

विकास बहल द्वारा निर्देशित क्वीन सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि हर उस लड़की की कहानी है जो अपनी पहचान की तलाश में है। यह कहानी है रानी मेहरा की — एक साधारण, घरेलू, दिल से दिल्लीवाली लड़की की, जिसकी दुनिया उसकी मंगनी और परिवार तक सिमटी हुई थी। लेकिन जब उसका मंगेतर शादी से ठीक पहले उसे छोड़ देता है, तो वह टूटने के बजाय एक ऐसा निर्णय लेती है, जो उसकी ज़िंदगी बदल देता है — वह अकेले हनीमून पर निकल पड़ती है।

पेरिस और एम्स्टर्डम की गलियों में भटकती रानी न केवल दुनिया को देखती है, बल्कि खुद को भी जानने लगती है। नए दोस्त, नई संस्कृतियाँ और आत्मचिंतन — यह यात्रा रानी को सिखाती है कि स्वतंत्रता का स्वाद सिर्फ बाहर की दुनिया में नहीं, बल्कि भीतर की आवाज़ सुनने में भी है।

क्वीन यह बताती है कि आत्मनिर्भरता, आत्मबोध और खुद की पहचान पाना किसी बड़े विद्रोह या नारेबाज़ी से नहीं, बल्कि खुद को समझने और स्वीकारने की प्रक्रिया से भी संभव है। रानी की यात्रा यह स्पष्ट करती है कि हर महिला को अपने फैसले खुद लेने का अधिकार है — चाहे वो फैसले समाज की उम्मीदों से मेल खाते हों या नहीं।

पिंक (2016): “ना का मतलब ना होता है” — एक सामाजिक घोषणापत्र

शूजित सरकार द्वारा निर्देशित पिंक आधुनिक भारत में महिलाओं की स्वतंत्रता, सुरक्षा और सहमति के अधिकार पर एक क्रांतिकारी हस्तक्षेप है। यह सिर्फ एक कोर्टरूम ड्रामा नहीं, बल्कि समाज में गहराई से जड़े पूर्वग्रहों और लिंग आधारित भेदभाव के खिलाफ एक ज़ोरदार आवाज़ है।

कहानी तीन युवा कामकाजी लड़कियों की है — मीनल, फलक और एंड्रिया — जो दिल्ली जैसे महानगर में अपने अधिकारों और अस्तित्व के लिए संघर्ष करती हैं। जब एक हाई-प्रोफाइल लड़के पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगता है, तो लड़कियों को अपराधी की तरह देखा जाता है, उनके कपड़ों, रहन-सहन और चरित्र पर सवाल उठते हैं। इसी पृष्ठभूमि में वकील दीपक सहगल (अमिताभ बच्चन) का एक संवाद इतिहास बन जाता है —
“ना का मतलब ना होता है। ये बहुत सिंपल है।”

पिंक साफ तौर पर कहती है कि किसी महिला की सहमति के बिना कोई भी शारीरिक या मानसिक संपर्क अमान्य है — चाहे वो आपकी गर्लफ्रेंड हो, सेक्स वर्कर हो या कोई अपरिचित।
यह फिल्म उस सामाजिक मानसिकता को चुनौती देती है जो महिलाओं की आज़ादी को उनके “चरित्र” के चश्मे से देखती है। यह एक स्पष्ट कानूनी और नैतिक घोषणा है कि महिलाओं के साथ सम्मानजनक व्यवहार किसी भी शर्त या पूर्वधारणा से परे होना चाहिए।

 

दंगल (2016): बेटियाँ भी बना सकती हैं इतिहास

“म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के?” — यह संवाद न केवल फिल्म दंगल की आत्मा है, बल्कि एक सामाजिक क्रांति की पुकार भी।

नीतेश तिवारी द्वारा निर्देशित यह फिल्म हरियाणा के पहलवान महावीर सिंह फोगाट और उनकी बेटियों गीता और बबीता की असली कहानी पर आधारित है। एक ऐसे राज्य में, जहाँ बेटियों को अक्सर बोझ समझा जाता है, वहाँ महावीर फोगाट ने समाज की परवाह किए बिना अपनी बेटियों को कुश्ती की दुनिया में उतारा — एक ऐसा क्षेत्र जिसे परंपरागत रूप से पुरुषों का क्षेत्र माना जाता है।

दंगल यह स्पष्ट करता है कि यदि परिवार, विशेषकर पिता, बेटियों पर विश्वास करें, उन्हें अवसर दें, अनुशासन और समर्थन प्रदान करें — तो बेटियाँ सिर्फ घर नहीं, पूरी दुनिया जीत सकती हैं।
गीता-बबीता की जीत केवल पदकों की नहीं, बल्कि एक मानसिकता के बदलाव की जीत है। यह फिल्म दिखाती है कि लड़कियाँ मेहनत, जुनून और प्रतिभा से किसी भी क्षेत्र में इतिहास रच सकती हैं।

तुम्हारी सुलु (2017): घरेलू सपनों की उड़ान

“मैं कर सकती है!” — सुलोचना उर्फ ‘सुलु’ की यह आत्मविश्वास से भरी आवाज़ सिर्फ एक किरदार का नहीं, बल्कि लाखों घरेलू महिलाओं के भीतर छुपी ऊर्जा और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति है।

सुरेश त्रिवेणी द्वारा निर्देशित यह फिल्म एक मध्यमवर्गीय गृहिणी सुलोचना दुबे की कहानी है, जो मुंबई की रोज़मर्रा की ज़िंदगी जीती है — पति, बेटा, घर के काम और समाज की सीमाओं में बंधी हुई। लेकिन उसकी ज़िंदगी तब करवट लेती है जब वह एक रेडियो स्टेशन में लेट नाइट शो की आरजे बनने का मौका पाती है।

तुम्हारी सुलु यह दिखाती है कि सपने उम्र, शिक्षा या पारिवारिक भूमिका से बंधे नहीं होते। एक महिला की पहचान सिर्फ “मां”, “पत्नी” या “बहू” नहीं होती — वह एक आत्मा भी है, जिसकी अपनी इच्छाएं, रचनात्मकता और क्षमता होती है।
सुलु की कहानी प्रेरणा देती है कि जब एक औरत को परिवार का साथ और खुद पर भरोसा मिलता है, तो वह अपनी दुनिया को नए मायनों में जी सकती है।

गंगूबाई काठियावाड़ी (2022): वंचितों की नेत्री, आवाज़ की रानी

संजय लीला भंसाली द्वारा निर्देशित यह फिल्म केवल एक महिला की जीवनी नहीं, बल्कि एक आंदोलन है — उस आवाज़ की गूंज, जिसे अक्सर समाज अनदेखा कर देता है। गंगूबाई काठियावाड़ी की कहानी हमें एक ऐसे सफर पर ले जाती है, जहाँ एक लड़की को धोखा देकर वेश्यालय में बेच दिया जाता है, लेकिन वही लड़की आगे चलकर कमाठीपुरा की सबसे प्रभावशाली नेता बन जाती है।

गंगूबाई की कहानी बताती है कि नेतृत्व, संघर्ष और आत्मसम्मान का अधिकार हर महिला को है — चाहे उसका अतीत कुछ भी रहा हो।
वह यौनकर्मियों की अधिकारवादी नेता बनती हैं, प्रधानमंत्री नेहरू से मिलती हैं, और समाज में हाशिए पर खड़ी महिलाओं के लिए आवाज़ उठाती हैं। यह फिल्म महिला नेतृत्व की एक जटिल लेकिन ज़रूरी छवि को सामने लाती है।

छपाक (2020): पुनर्निर्माण की शक्ति और साहस की आवाज़

मेघना गुलज़ार द्वारा निर्देशित छपाक सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि एक आंदोलन है — उस चेहरे के लिए जो समाज ने देखने से मना कर दिया, और उस हिम्मत के लिए जो किसी ने सोची भी नहीं थी। यह फिल्म लक्ष्मी अग्रवाल की असली कहानी पर आधारित है, जिन्हें एकतरफा प्रेम में पागल युवक ने तेज़ाब से झुलसा दिया था।

फिल्म की नायिका मलती इस भयावह हमले से सिर्फ शारीरिक रूप से नहीं, बल्कि मानसिक और सामाजिक स्तर पर भी जूझती है। लेकिन हार मानने की बजाय वह अपनी पहचान, गरिमा और अधिकारों के लिए लड़ने निकल पड़ती है — कानून, समाज और व्यवस्था से।

छपाक यह दिखाती है कि असली सुंदरता चेहरे में नहीं, बल्कि साहस, आत्मसम्मान और इंसाफ के लिए लड़ने की हिम्मत में होती है।
मलती की लड़ाई उस हर लड़की की लड़ाई बन जाती है जिसे समाज “पीड़िता” कहकर सीमित कर देता है। वह पीड़िता से योद्धा बनती है — एक ऐसी महिला जो न केवल अपने जीवन का पुनर्निर्माण करती है, बल्कि एसिड अटैक के खिलाफ कानूनी लड़ाई को भी दिशा देती है।

शेरनी (2021): सिस्टम के भीतर की विद्रोही

“एक अच्छी अफसर वही होती है जो फील्ड में अपना रास्ता खुद बनाए।”
अमित मसुरकर निर्देशित शेरनी एक लो-टोन लेकिन गहरे प्रभाव वाली फिल्म है, जो नौकरशाही, राजनीति, पितृसत्ता और पर्यावरण संरक्षण के जटिल घालमेल को एक महिला अफसर की नज़र से प्रस्तुत करती है।

फिल्म की नायिका विद्या विन्सेंट, एक सुलझी, समर्पित और संवेदनशील फॉरेस्ट ऑफिसर हैं। वह एक आदमखोर बाघिन के मामले की निगरानी कर रही हैं, लेकिन असली लड़ाई उसके जंगल में नहीं, बल्कि सिस्टम के भीतर है — जहाँ राजनीतिक हस्तक्षेप, लोकल पॉवर स्ट्रक्चर और लैंगिक भेदभाव उसकी राह में सबसे बड़ी रुकावट हैं।

शेरनी यह स्पष्ट करती है कि नेतृत्व सिर्फ आक्रामकता या आदेश देने की कला नहीं है, बल्कि धैर्य, संवेदनशीलता और दूरदृष्टि का मेल है।
विद्या न शोर मचाती है, न क्रांतिकारी भाषण देती है — लेकिन अपने काम, दृष्टिकोण और नैतिक साहस से वह सिस्टम के भीतर एक शांत विद्रोह खड़ा करती है।

थप्पड़ (2020): चुप्पी का अंत, आत्मसम्मान की शुरुआत

“बस एक थप्पड़… पर नहीं मार सकता!”
अनुभव सिन्हा द्वारा निर्देशित थप्पड़ घरेलू हिंसा पर बनी फिल्म नहीं है — यह सहमति, सम्मान और स्वीकृति के सवालों पर बनी एक गूढ़ सामाजिक टिप्पणी है।

फिल्म की नायिका अमृता, एक शिक्षित, सुलझी, गृहिणी है, जो अपने पति और परिवार के लिए पूरी तरह समर्पित है। लेकिन एक दिन, एक सामाजिक पार्टी में उसका पति उसे सबके सामने थप्पड़ मारता है — और यहीं से कहानी एक नई दिशा लेती है।

थप्पड़ यह बताती है कि हिंसा सिर्फ शरीर पर नहीं होती — वह भावनाओं, गरिमा और आत्म-सम्मान पर भी असर डालती है।
अमृता की चुप्पी जब टूटी, तो वह न सिर्फ अपने लिए, बल्कि उन अनगिनत स्त्रियों के लिए आवाज़ बनी, जो अक्सर “इतना तो चलता है” कहकर सह जाती हैं।

यह फिल्म दिखाती है कि स्त्री की गरिमा रिश्तों की मजबूरी से ऊपर है, और वह अगर चाहे, तो संविधान और समाज दोनों से अपने हक की मांग कर सकती है

मीरा (1992 – श्याम बेनेगल): भक्ति के रूप में विद्रोह, प्रेम के रूप में मुक्ति

श्याम बेनेगल निर्देशित यह टेलीफिल्म मीरा बाई के जीवन पर आधारित है — एक ऐसी स्त्री जो भक्ति को केवल पूजा नहीं, बल्कि आत्म-अभिव्यक्ति और सामाजिक विद्रोह का माध्यम बनाती है। राजघराने की बहू होने के बावजूद मीरा बाई ने सांसारिक बंधनों को अस्वीकार कर, कृष्ण को अपना पति, प्रेम और ईश्वर माना — और यही बना उनके जीवन का असाधारण नैतिक-सामाजिक घोषणापत्र।

मीरा का संन्यास कोई पलायन नहीं था, वह स्त्री की उस चेतना का प्रतीक था जो कहती है कि मेरे शरीर, मन और आत्मा पर मेरा अधिकार है — समाज या कुल के नियमों का नहीं।

फिल्म का सामाजिक-आध्यात्मिक महत्व:

  • मीरा बाई की भक्ति स्त्री के लिए एक नया मार्ग खोलती है — जहाँ ईश्वर से सीधा संवाद संभव है, बिना किसी मध्यस्थ या पुरुष संरक्षक के।

  • यह फिल्म उस समय की स्त्रियों के लिए एक अदृश्य लेकिन शक्तिशाली क्रांति की कथा है — जहाँ मीरा “पतिव्रता” नहीं, बल्कि “आत्मव्रता” बनती हैं।

आरती (1962): प्रोफेशन बनाम पारिवारिक मर्यादा — एक आधुनिक नारी का संघर्ष

शंकर श्रीवास्तव निर्देशित आरती उस दौर की एक बहादुर महिला की कहानी है, जो डॉक्टर बनने के अपने सपने और पारिवारिक अपेक्षाओं के बीच संतुलन स्थापित करने की जद्दोजहद करती है। फिल्म में आरती का किरदार इस बात का सशक्त उदाहरण है कि महिलाओं को अपने पेशेवर जीवन और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच तालमेल बिठाना कितना चुनौतीपूर्ण होता है।

आरती यह दिखाती है कि एक महिला केवल परिवार की रखवाली करने वाली ही नहीं, बल्कि अपने करियर में भी सफलता पा सकती है।
यह फिल्म यह संदेश देती है कि व्यावसायिक आकांक्षाएं और पारिवारिक मर्यादाएं परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि साथ-साथ निभाई जा सकती हैं।

  • आरती अपने फैसलों में आत्मनिर्भर है, और अपने अधिकारों के प्रति सजग भी।

  • वह परंपरागत सामाजिक ढांचे में अपने कदम जमाने की कोशिश करती है, लेकिन कभी अपने सपनों का त्याग नहीं करती।

सिनेमा केवल परदे पर चलने वाली कहानी नहीं है, यह समाज का आईना भी है और उसकी दिशा भी। जब भारतीय फिल्मों में महिलाओं की भूमिकाएं सशक्त, विचारशील और निर्णायक बनती हैं, तो वे समाज में नई सोच और संवेदना का संचार करती हैं।

इन 10 देसी फिल्मों की यात्रा से यह स्पष्ट होता है कि नारी शक्ति कोई नारा नहीं, बल्कि एक जीवंत यथार्थ है जिसे यदि अवसर और मंच मिले, तो वह असंभव को संभव कर सकती है। हिंदी सिनेमा ने धीरे-धीरे सही, लेकिन सशक्त कदमों से इस यथार्थ को दर्शकों के दिलों में जगह दिलाई है।

Binay Shanker Lal Das

लेखक वनस्पति विज्ञान के प्राध्यापक रह चुके है। संप्रति होम्योपैथी चिकित्सा-पद्धति के जरिए लोगों की सेवा। नई दिल्ली और मुबंई निवास

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