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“यौन हिंसा और हमारी चुप्पी: जब समाज खुद अपराध का हिस्सा बन जाता है”

"कठुआ से दामिनी तक – क्यों नहीं थम रही हिंसा की लहर? इंटरनेट, मीडिया और समाज की भूमिका पर गहन विश्लेषण"

हमारे दौर में हिंसा एक सामान्य परंतु सबसे खतरनाक शब्द बन चुकी है। यह केवल हाल की घटनाओं तक सीमित नहीं, बल्कि वर्षों से हमारे समाज की रग-रग में समाई हुई है। एक घटना आती है, मीडिया उसे कुछ दिनों तक चलाता है और फिर एक नई सनसनी पुराने दर्द को दबा देती है। हम भूलने के आदी हो गए हैं — और यही हमारी सबसे बड़ी समस्या है।

दामिनी हो या कठुआ, बरेली की बहनें हों या रेयान स्कूल का बच्चा — एक पैटर्न है जो दोहराया जाता है। पहले मीडिया चीखता है, फिर जनता गुस्से में सड़कों पर उतरती है, और अंततः सब कुछ सामान्य हो जाता है। कठुआ जैसे मामलों में मीडिया की दिलचस्पी इसलिए भी बढ़ती है क्योंकि इसमें धर्म, राजनीति और संवेदनशील क्षेत्र जैसे तत्व शामिल होते हैं। लेकिन असल मुद्दा यौन हिंसा की जड़ में है, जिसे हम अनदेखा कर रहे हैं।

 

हिंसा का यह फैलाव आकस्मिक नहीं है

आज सनसनी जीवन का हिस्सा बन गई है। मीडिया की रिपोर्टिंग और हमारे जीवन का असंतुलन एक जैसे हो गए हैं। सुरक्षित रह पाना आज एक उपलब्धि है। अधैर्य, असंवेदनशीलता और निष्क्रियता हिंसा के रूप बन चुके हैं — चाहे वह हत्या हो, बलात्कार, या भ्रष्टाचार।

यौन हिंसा के बढ़ते मामलों में इंटरनेट और स्मार्टफोन का योगदान नकारा नहीं जा सकता। किशोरों को आसानी से अश्लील सामग्री तक पहुंच मिल रही है, बिना किसी गाइडेंस या समझ के। जब यौनिकता पर समाज में बातचीत वर्जित हो और इंटरनेट पर अश्लीलता सहज उपलब्ध हो, तो युवा दिशाहीन हो जाते हैं। यह उनकी मानसिकता को प्रभावित करता है और असामान्य सोच को जन्म देता है।

हमारे समाज में किशोरों से यौनिकता पर बात करना वर्जित माना जाता है। यही कारण है कि उन्हें मार्गदर्शन नहीं मिलता और वे इंटरनेट या साथियों से गलत जानकारी प्राप्त करते हैं। परिणामतः वे यौन कुंठा से ग्रस्त हो जाते हैं और कई बार इसे गलत तरीके से व्यक्त करते हैं।

यौन शोषण केवल महिलाओं का नहीं मुद्दा है

अक्सर चर्चा केवल लड़कियों की होती है, लेकिन लड़के भी यौन शोषण के शिकार होते हैं। गाँव-शहर के नुक्कड़ हों या स्कूल-कॉलेज, यौन शोषण हर जगह फैला है। पहले यह छुपा रहता था, अब उजागर हो रहा है — लेकिन इसके समाधान पर कोई ठोस कार्य नहीं हो रहा।

सरकार इंटरनेट उपयोग, पोर्नोग्राफी पर नियंत्रण और यौन शिक्षा को सशक्त बना सकती है। लेकिन वह केवल सतही समाधान होगा। असल बदलाव तब आएगा जब समाज स्वयं जिम्मेदारी लेगा — संवाद बढ़ाएगा, जागरूकता फैलाएगा, और मानसिकता बदलेगा।

 


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सड़कों पर उतरें, लेकिन घर में भी बात करें

सिर्फ आंदोलन करने से यौन हिंसा नहीं रुकेगी। यह तब रुकेगी जब समाज अपने भीतर झांकेगा। हमें अधीरता और सनसनी के पीछे भागने की प्रवृत्ति को रोकना होगा। हमें अपने बच्चों से बात करनी होगी, उन्हें समझाना होगा और सुरक्षित माहौल देना होगा।

अगर हम चाहते हैं कि हिंसा का यह सिलसिला रुके, तो हमें भीतर से बदलना होगा। हिंसा केवल हथियार की नहीं होती — उदासीनता, अधैर्य, लालच और झूठ भी हिंसा के ही रूप हैं। इन्हें समझना और उनसे लड़ना ही सच्चा सामाजिक बदलाव होगा।


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Rajiv Ranjan

जीवन के चौथे दशक में। कुछ पढ़ा-लिखा और घुमा-फिरा। उम्र के अलग-अलग पड़ावों पर शहर बदलते रहे और अनुभव भी । भाषा-बोली और मन-मिजाज भी । इन सबने रचा है मुझे । फिलहाल, शिक्षक की भूमिका में। भाषा,समाज और संस्कृति में दिलचस्पी । समाज, पर्यावरण और संस्कृति के रिश्तों को लेकर ऊहापोह की आदत और छिटपुट लेखन । ब्लॉग लेखन ( बाकी पहचान लेखनी की जुबान से... https://samaysamvad.blogspot.in/

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