देश के विकास में बाधक एनीमिया: खामोश संकट की सच्चाई
आंकड़ों के आईने में एनीमिया की वास्तविकता, उसका सामाजिक-आर्थिक प्रभाव और नीति बदलाव की ज़रूरत।

जब भी भारत की विकास यात्रा की चर्चा होती है, तो आमतौर पर इसमें आर्थिक वृद्धि, डिजिटल इंडिया, बुनियादी ढांचे का विस्तार और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर देश की बढ़ती हैसियत जैसे पहलुओं को शामिल किया जाता है।
इन तमाम उपलब्धियों की चकाचौंध के पीछे एक ऐसा संकट छिपा है, जो न तो अखबारों की हेडलाइन बनता है और न ही राजनीतिक भाषणों का हिस्सा—यह है एनीमिया यानी शरीर में खून की कमी।
साधारण से लगने वाले इस शब्द का प्रभाव असाधारण रूप से गहरा है। यह केवल एक चिकित्सकीय स्थिति नहीं, बल्कि भारत की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का आईना है, जिसमें पोषण की कमी, स्वास्थ्य सुविधाओं की असमानता और जागरूकता का अभाव स्पष्ट झलकता है।
थकान, कमजोरी और एकाग्रता की कमी से जूझ रही है भारत की बड़ी आबादी
ग्लोबल बर्डन ऑफ डिज़ीज (GBD) रिपोर्ट्स के अनुसार, भारत उन कुछ गिने-चुने देशों में शामिल है जहां एनीमिया की दर सबसे अधिक है। यहां महिलाएं और बच्चे सबसे अधिक प्रभावित हैं, और इस स्थिति का सीधा संबंध देश की उत्पादकता से है। खासकर ऐसे समय में जब भारत खुद को वैश्विक आर्थिक शक्ति के रूप में स्थापित करने की कोशिश कर रहा है, तब यह तथ्य बेहद चिंताजनक है कि उसकी आधी से ज्यादा आबादी थकान, कमजोरी और ध्यान की कमी जैसी समस्याओं से जूझ रही है।
भारत जैसे देश में, जहां अब भी 50 प्रतिशत से अधिक काम पारंपरिक, शारीरिक श्रम पर आधारित है, वहां श्रमिकों की स्वास्थ्य स्थिति का स्तर अगर गिरा हुआ हो, तो विकास का सपना अधूरा ही रह जाएगा। वर्ष 2005 में GBD ने भारत को एनीमिया से सर्वाधिक प्रभावित देशों में रखा था। 2015 तक इसमें कुछ गिरावट जरूर आई, लेकिन अन्य BRICS देशों से तुलना करें तो स्थिति अब भी चिंताजनक बनी हुई है।
भारत में आज भी रूस की तुलना में दोगुने और चीन से तिगुने एनीमिया के मामले दर्ज हैं। यह केवल संख्या नहीं है, बल्कि हर एक मामला उस व्यक्ति की कार्यक्षमता को प्रभावित करता है, जो समाज और अर्थव्यवस्था के किसी न किसी स्तर पर योगदान देने में असमर्थ हो जाता है।
एनीमिया से पीड़ित व्यक्ति हमेशा थका-थका महसूस करता है। उसकी त्वचा पीली, आंखें म्लान और हृदय की गति असामान्य हो जाती है। उसे सांस लेने में तकलीफ होती है और काम में ध्यान केंद्रित करना मुश्किल हो जाता है। ये लक्षण न केवल व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करते हैं, बल्कि समष्टिगत उत्पादकता पर भी गंभीर असर डालते हैं।
NFHS-4 के आंकड़े इस भयावह स्थिति की पुष्टि करते हैं। देश में लगभग 79 प्रतिशत बच्चे, 55 प्रतिशत महिलाएं और 24 प्रतिशत पुरुष एनीमिया से प्रभावित हैं। ये वे लोग हैं जो या तो काम करने की उम्र में हैं या फिर भविष्य के श्रमिक बनने की राह पर हैं। ऐसे में यदि उनकी बौद्धिक और शारीरिक क्षमता शुरू से ही सीमित हो, तो वे देश को क्या दे पाएंगे?
आने वाली पीढ़ी भी हो रही है प्रभावित
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी दी है कि आयरन की कमी से होने वाला एनीमिया कार्यक्षमता को घटा देता है। यही वजह है कि वर्ल्ड बैंक ने 2003 में जारी अपनी फूड पॉलिसी रिपोर्ट में कहा था कि भारत को हर साल अपने सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 0.9 प्रतिशत नुकसान सिर्फ एनीमिया की वजह से होता है। इस आधार पर 2016 में देश को 1.35 लाख करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ा।
सबसे अधिक चिंताजनक पहलू यह है कि एनीमिया की मार आनेवाली पीढ़ियों पर भी पड़ती है। एक दशक पहले गर्भवती महिलाओं में एनीमिया की दर 57 प्रतिशत थी, जो अब घटकर 45 प्रतिशत हो गई है। हालांकि इसमें कमी आई है, फिर भी यह आंकड़ा वैश्विक औसत से कहीं अधिक है।
गर्भावस्था में खून की कमी का असर मां के साथ-साथ भ्रूण पर भी पड़ता है। इससे गर्भस्थ शिशु की मृत्यु की संभावना बढ़ जाती है, या वह समय से पहले जन्म लेता है। ऐसे बच्चों का वजन सामान्य से कम होता है और उनमें संज्ञानात्मक विकास की समस्याएं देखी जाती हैं। उनकी भाषा कौशल, मांसपेशियों का संचालन और मानसिक संतुलन प्रभावित होता है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, इन बच्चों की बौद्धिक क्षमता में 5 से 10 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है और भविष्य में आयरन सप्लीमेंट देने पर भी इस कमी की भरपाई संभव नहीं होती।
गंभीर सरकारी प्रयास की है जरूरत
सरकार की ओर से एनीमिया के समाधान के लिए प्रयास जरूर किए जा रहे हैं। 1970 में शुरू हुआ नेशनल न्यूट्रिशनल एनीमिया प्रोफिलैक्सिस प्रोग्राम इसका उदाहरण है। इसके अतिरिक्त, किशोरों को स्कूलों में आयरन-फोलिक एसिड की गोलियां दी जाती हैं। लेकिन इन योजनाओं का प्रभाव सीमित ही रहा है।
हर साल लगभग 3 करोड़ महिलाएं गर्भवती होती हैं, लेकिन इनमें से केवल 23.6 प्रतिशत महिलाएं ही नियमित रूप से आयरन की गोलियों का सेवन करती हैं। कारण स्पष्ट हैं—एक तो पर्याप्त जानकारी का अभाव, दूसरा साइड इफेक्ट्स का डर। कई महिलाओं को दवा से डायरिया, उल्टी और सिरदर्द जैसी समस्याएं होती हैं, जिससे वे गोलियां लेना बंद कर देती हैं।
इस समस्या की जड़ में केवल दवाओं की उपलब्धता या स्वास्थ्य सेवाएं नहीं हैं, बल्कि इससे भी गहरी समस्या है—भोजन और पोषण की असमानता। पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट्स भी मानते हैं कि एनीमिया कोई रोग नहीं, बल्कि पोषण की कमी का परिणाम है। जागरूकता के अभाव में महिलाओं को यह तक नहीं पता होता कि उनके शरीर को कौन-से पोषक तत्वों की आवश्यकता है।
संतुलित आहार की अनुपलब्धता और गरीबी इस स्थिति को और जटिल बनाते हैं। सरकार द्वारा पोषण स्तर सुधारने के लिए जनवितरण प्रणाली और मनरेगा जैसी योजनाएं चलाई जा रही हैं, लेकिन इनमें भी ढेर सारी चुनौतियां हैं। उदाहरण के लिए, सरकार द्वारा आवंटित अनाज का बड़ा हिस्सा लाभार्थियों तक पहुंचता ही नहीं। ऐसे में कई गरीब परिवार संतुलित भोजन लेना चाहें भी तो नहीं ले पाते।
एनिमिया पर हर किसी को बात करनी होगी
भारत यदि वास्तव में एनीमिया से लड़ना चाहता है, तो उसे ब्राज़ील, पेरू, वियतनाम और घाना जैसे देशों से सीख लेनी चाहिए। ब्राज़ील ने 2001 में ‘जीरो हंगर’ योजना शुरू की थी, जिसमें पोषक आहार के वितरण के साथ-साथ किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारने पर भी जोर दिया गया। इसका असर यह हुआ कि कुपोषण की दर में आश्चर्यजनक कमी देखी गई।
भारत को भी ऐसी रणनीति अपनानी होगी, जिसमें केवल गोलियों के सहारे नहीं, बल्कि समग्र पोषण, गरीबी उन्मूलन, सामाजिक जागरूकता और खाद्य सुरक्षा को एकीकृत करके इस समस्या का समाधान निकाला जाए।
यदि हम चाहते हैं कि भारत एक मजबूत, स्वस्थ और आत्मनिर्भर राष्ट्र बने, तो एनीमिया जैसी मौन समस्याओं पर मुखर होकर बात करनी होगी। यह सिर्फ स्वास्थ्य मंत्रालय का विषय नहीं है, बल्कि यह शिक्षा, महिला सशक्तिकरण, खाद्य आपूर्ति और सामाजिक न्याय से जुड़ा व्यापक मुद्दा है।
देश तब ही प्रगति कर सकता है जब उसका नागरिक, खासकर उसकी महिलाएं और बच्चे, स्वस्थ और सक्षम हों। अन्यथा विकास की हर कोशिश उस नींव पर टिकी रहेगी, जो भीतर ही भीतर खोखली होती जा रही है।
एनीमिया पर चुप्पी अब और नहीं चल सकती। अब वक्त है इसे एक राष्ट्रीय आपदा की तरह देखने और उसके अनुसार प्रतिक्रिया देने का।

16 वर्षों से लेखन एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय. देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लेखन का अनुभव; लाडली मीडिया अवॉर्ड, NFI फेलोशिप, REACH मीडिया फेलोशिप सहित कई अन्य सम्मान प्राप्त; अरिहंत, रत्ना सागर, पुस्तक महल आदि कई महत्वपूर्ण प्रकाशन संस्थानों सहित आठ वर्षों तक प्रभात खबर अखबार में बतौर सीनियर कॉपी राइटर कार्य अनुभव प्राप्त करने के बाद वर्तमान में फ्रीलांसर कार्यरत.