परिवार में लैंगिक असमानता के बीज बोना क्यों खतरनाक है
लैंगिक असमानता की जड़ें: परिवार से शुरू होती है भेदभाव की पहली पाठशाला | विचार लेख

पिछले दिनों डीटीसी की बस संख्या 615 में जेएनयू से जनपथ बाजार जाते समय मैंने ईयरफोन नहीं लगाए और दो महिलाओं की बातचीत सुनने लगा। उनकी बातें यह स्पष्ट कर रही थीं कि
जीवन की पहली पाठशाला—परिवार—ही लैंगिक असमानता के बीज बोता है, जो आगे चलकर सामाजिक जीवन में गहराई से असर डालता है।
पहली महिला दुखी और व्यथित थी कि बेटे के जन्म के बाद से परिवार के बड़े-बुजुर्गों का व्यवहार उसकी बड़ी बेटी के प्रति बदल गया है। यह बदलाव उसके मन में एक गहरी टीस पैदा कर रहा था। दूसरी महिला ने सहमति जताई और अपने अनुभव साझा करते हुए कहा, “यह तो अक्सर होता है।
हमारे हाथ में बस इतना है कि हम अपने बच्चों के बीच यह भेदभाव न आने दें। ससुराल में बुजुर्गों को कुछ कहना मुश्किल होता है, लेकिन हम अपने बच्चों को यह सिखा सकते हैं कि लड़का और लड़की बराबर होते हैं।”
उनकी बातचीत ने मुझे न सिर्फ समाजीकरण और लैंगिक समानता पर सोचने पर मजबूर किया, बल्कि उन सभी चीज़ों की सूची भी तैयार कर दी, जो मैंने जीवन की पहली पाठशाला—परिवार—से सीखी थीं, लेकिन जो बाद में खोखली साबित हुईं।
मैं यह समझने की कोशिश कर रहा था कि इन महिलाओं की बातें सामाजिक व्यवहार और असमानताओं के व्यापक संदर्भ में किस तरह फिट बैठती हैं। जनपथ पहुंचते-पहुंचते मैं इस निष्कर्ष पर था:
असल में, हम लड़कियों, महिलाओं या इतरलिंगों के प्रति असंवेदनशील पैदा नहीं होते, बल्कि हमें ऐसा बनाया जाता है। यह असंवेदनशीलता हमें बचपन में परिवार और आसपास के वातावरण से मिलती है।
परिवार: सामाजिक निर्माण की पहली प्रयोगशाला
जीवन की पहली पाठशाला से प्राप्त प्राइमरी सोशलाइजेशन के ज़रिए हम समाज के सदस्य के रूप में व्यवहार करना सीखते हैं। जैसे-जैसे हम माध्यमिक सामाजिकरण से गुजरते हैं और विभिन्न अनुभवों के माध्यम से सोचने-समझने की क्षमता विकसित करते हैं, हम सेल्फ सोशलाइजेशन की दिशा में बढ़ते हैं। यह प्रक्रिया हमें यह समझने की दिशा में ले जाती है कि एक बेहतर इंसान और नागरिक बनने के लिए हमें कितनी चीज़ें जाननी और समझनी चाहिए।
सोशलाइजेशन की यही असंवेदनशीलता मुझे तब भी देखने को मिली जब मैंने सोशल मीडिया या फेसबुक पर महिलाओं के अधिकारों से जुड़े मुद्दों पर लिखा और प्रतिक्रिया स्वरूप कई बार घृणित और प्रतिगामी टिप्पणियां मिलीं।
यह केवल संगठित ट्रोलिंग का मामला नहीं, बल्कि इस बात का प्रमाण है कि समाजीकरण किस तरह सोच को आकार देता है और यह दर्शाता है कि लैंगिक समानता की लड़ाई में हम वास्तव में कहां खड़े हैं।
प्राइमरी सोशलाइजेशन में यह समझाना जरूरी है कि लड़का और लड़की के बीच केवल जैविक अंतर होता है, लेकिन सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक निर्धारण इस भिन्नता को ‘जेंडर’ में तब्दील कर देते हैं—और यह धारणा बना दी जाती है कि पुरुष श्रेष्ठ और स्त्री हीन है।
नारीवादी दृष्टिकोण: जेंडर सामाजिक संरचना है
नारीवादी दृष्टिकोण यह स्थापित करता है कि जेंडर कोई जैविक नहीं, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक रचना है। यह स्त्रीत्व और पुरुषत्व की विशेषताओं को तय करने वाले सामाजिक नियमों और संरचनाओं से निर्मित होता है।
महिलाओं को कमज़ोर समझने का कारण उनकी शारीरिक ताकत की कमी नहीं है। मौजूदा असमानता उनकी जैविक सीमाओं से नहीं, बल्कि समाज द्वारा उन पर थोपे गए सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों व संस्थानों से उपजी है। पुरुषत्व को बलशाली होने से जोड़ा जाता है, जबकि स्त्रीत्व को कमज़ोरी से।
कई रिपोर्टें और सामाजिक व्यवहार दिखाते हैं कि दुनियाभर के बच्चों के मन में दस वर्ष की उम्र से पहले ही लैंगिक भेद भर दिया जाता है। उन्हें सिखा दिया जाता है कि लड़का कैसे होता है और लड़की कैसे।
लैंगिक समानता स्थापित करने के लिए उस प्रक्रिया को ही बदलना होगा जो शारीरिक अंतर को सामाजिक विभाजन में बदल देती है। इस प्रक्रिया में परिवार और समाज की भूमिका महत्वपूर्ण है, लेकिन शैक्षणिक संस्थानों की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता।
आज सबसे ज़रूरी यह है कि जीवन की पहली पाठशाला—परिवार—प्राथमिक समाजीकरण को लोकतांत्रिक और मानवीय बनाए। क्योंकि हमारा बचपन ही हमें असंवेदनशील और अलोकतांत्रिक बना रहा है, जो न तो एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए उपयुक्त है और न ही समग्र मानवीय विकास के लिए।
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किसी भी व्यक्ति का परिचय शब्दों में ढले, समय के साथ संघर्षों से तपे-तपाये विचार ही दे देते है, जो उसके लिखने से ही अभिव्यक्त हो जाते है। सम्मान से जियो और लोगों को सम्मान के साथ जीने दो, स्वतंत्रता, समानता और बधुत्व, मानवता का सबसे बड़ा और जहीन धर्म है, मुझे पूरी उम्मीद है कि मैं अपने वर्तमान और भविष्य में भी इन चंद उसूलों के जीवन जी सकूंगा और मानवता के इस धर्म से कभी मुंह नहीं मोड़ पाऊगा।