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अजायब महतो: वीर कुंवर सिंह के प्रेरणास्त्रोत और 1857 की क्रांति के नायक

बीते दिनों महान स्वतंत्रता सेनानी वीर कुंवर सिंह जी की जयंती थी। 80 वर्ष की उम्र में भी अंग्रेजों से लोहा लेकर उन्होंने इतिहास रच दिया, इसीलिए उन्हें ‘वीर’ कहा जाता है।

आज हम उस व्यक्ति की बात करेंगे, जिन्होंने कुंवर सिंह को अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया — अजायब महतो। इतिहासकारों के अलावा आम जनता ने भी इस प्रेरणास्त्रोत को भुला दिया है।

इस लेख में हम अजायब महतो के योगदानों को उजागर करने का प्रयास करेंगे।

जब पिता ने किया कुवंर सिंह को कैद

वीर कुँवर सिंह जी के पिता साहबजादा सिंह ने जमींदारी के हिस्से का चारो बेटों में बंटवारा कर दिया। बड़े पुत्र होने के कारण रियासत के उत्तराधिकारी होने का सपना देख रहे कुंवर सिंह को इससे काफी निराशा हुई और वे अपने पिता से दूर पूर्वजों के द्वारा बसाए गए जितौरा के जंगल में रहने लगे थे।

अपने व्यक्तिगत जीवनयापन हेतु खर्च के लिए वे हमेशा अपने पिता पर दबाव डाला करते थे। मांग के अनुकूल रुपये नहीं मिलने पर विद्रोह भी कर बैठते। इस कारण साहबजादा सिंह उनसे काफी परेशान रहते थे।

एक बार जब रियासत का सिपाही किसानों से वसूले गए रुपये खजाने में जमा करने जा रहा था, तो कुंवर सिंह ने उससे सारे रुपये छीन लिए। इस पर साहबजादा सिंह बहुत नाराज हो गए और कुंवर सिंह पर राज्य में उपद्रव और लूटपाट का आरोप मढ़कर उन्हें आरा हाजत में कैद कर दिया।

साथ ही यह घोषणा भी कर दी कि जो कोई कुंवर सिंह की जमानत करवाएगा, वह मेरा सबसे बड़ा दुश्मन होगा। साहबजादा सिंह की इस घटना खौफज़दा होकर किसी ने भी कुंवर सिंह की जमानत नहीं ली। कुंवर सिंह कई दिनों तक आरा हाजत में कैद रहे।

अजायब महतो कुंवर सिंह को युवराज कहते थे

आरा शहर से चंद किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित एक गांव है। गुंड्डी सरैया। उन दिनों यह गांव जगदीशपुर रियासत के अधीन था। सरैया गांव के तत्कालीन चौधरी थे कुशवाहा जाति के अजायब महतो। अजायब महतो की गिनती इलाके के दबंग लोगों में होती थी। आसपास के लोगों पर उनका खासा दबदबा था।

उन्हें कुंवर सिंह पर तरस आ गयी और उन्होंने साहबजादा सिंह के घोषणा की परवाह किए बिना कुंवर सिंह की जमानत के लिए अर्जी दायर कर दी। इस कार्य में उन्हें नील मालिक नीलोवर साहब का भी सहयोग मिला। उस समय 80 हजार रुपये की जमानत पर कुंवर सिंह को जमानत मिली थी।

जब इसकी जानकारी साहबजादा सिंह को मिली तो वे क्रोध से आगबबूला हो गए और अजायब महतो को गिरफ्तार करने का हुक्म जारी कर दिया। जगदीशपुर रियासत के लगभग एक दर्जन सिपाही जब अजायब महतो को गिरफ्तार करने उनके घर पहुंचे, तब कुंवर सिंह भी वहां मौजूद थे।

अजायब महतो और कुंवर सिंह ने ग्रामीणों के सहयोग से उन सिपाहियों को बंदी बना लिया। कुंवरसिंह की इच्छा बंदी सिपाहियों को जान से मार डालने की थी लेकिन अजायब महतो ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया।

इस घटना के बाद अजायब महतो और कुंवर सिंह के सम्बन्ध काफी प्रगाढ़ हो गए। अजायब महतो उम्र में कुंवर सिंह से लगभग 20 वर्ष साल बड़े थे। इसलिए कुंवर सिंह उन्हें दादा और अजायब महतो उन्हें युवराज कहते थे।

आर्थिक तंगी से जूझ रही थी कुंवर सिंह कि रियासत

अपने बेटों के बीच मनमुटाव और मुकदमेबाजी के चलते साहबजादा सिंह आर्थिक कठिनाइयों से घिर गए थे। अपने जीवनकाल के अंतिम दिनों में साहबजादा सिंह ने कुंवर सिंह को माफ कर दिया। कुंवर सिंह के प्रति साहबजादा सिंह के रूख को परिवर्तित करने में भी अजायब महतो की महत्वपूर्ण भूमिका रही।

साहबजादा सिंह की मृत्यु के बाद कुंवर सिंह ने जब सन 1826 में जगदीशपुर की गद्दी संभाली, तब रियासत पर कर्ज का भारी बोझ था। उस समय उनकी रियासत की वार्षिक आय तीन लाख रूपये की थी जबकि वे ईस्ट इंडिया कंपनी को एक लाख अठारह हजार रूपये का वार्षिक कर देते थे।

फिर भी कुंवर सिंह ने एहसानस्वरूप अजायब महतो को आठ गांवों की जमींदारी सौंप दी और उनके पैतृक भवन को राजसी भवन में तब्दील कर दिया। कंपनी को दिए जाने वाले कर का बोझ धीरे-धीरे बढ़ता ही गया।

कुंवर सिंह के पास एकमात्र विकल्प यही था कि वे किसी प्रकार अपनी कर्जदारी से मुक्त हों या फिर जमींदारी अंग्रेजों के हाथ सौंप दें। कर्ज से मुक्ति के लिए उन्होंने अंग्रेजों से ऋण की माफी हेतु निवेदन किया लेकिन अंग्रेजों ने उनकी नहीं सुनी। तब उन्होंने बनारस के महाजनों से भी कर्ज लिया। दुर्भाग्यवश उनके सारे प्रयास निष्फल होते गए।

संयोगवश उन्हीं दिनों अंग्रेजी हुकूमत की दमनकारी नीति के विरोध में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विद्रोह होने लगे। नील की खेती के लिए जबर्दस्ती जमीन हड़पने की नीति, अंग्रेजों के साथ-साथ स्थानीय जमींदारों के जुल्म आदि अनेक कारण मौजूद थे, जिससे किसानों और आमलोगों में असंतोष बढ़ता जा रहा था। कुंवर सिंह के समक्ष दो विकल्प थे। या तो वे देश की आम भावनाओं के साथ जुड़ें या फिर अंग्रेजों का साथ दें।

जब अजायब महतों ने कुंवर सिंह को 1857 के बगावत के लिए झकझोरा


कुंवर सिंह कई दिनों तक असमंजस की स्थिति में रहे। आखिरकार उन्होंने अपने विश्वस्त अजायब महतो, अनुज अमर सिंह, हरिकिशन सिंह रिंकुभंजन सिंह और रणदलन सिंह आदि के साथ बैठकर इस मुद्दे पर मंत्रणा की।

बैठक में अमर सिंह, हरि किशन सिंह और अन्य विद्रोह के खिलाफ थे जबकि अजायब महतो विद्रोह के हिमायती थे। जब कई घंटों की मंत्रणा के बाद भी कुंवर सिंह किसी निर्णय पर नहीं पहुंच सके तो अजायब महतो का गुस्सा भड़क उठा। उन्होंने गरज कर कहा – “युवराज! लगता है कि आप अंग्रेजों से बुरी तरह डर गए हैं। प्रजा के दुखों का आपको जरा-सा भी भान नहीं है। कब तक हमलोग अंग्रेजों के कोड़े खाते रहेंगे? अगर आपको इतना ही भय सता रहा है तो 90 वर्ष की इस उम्र में मैं ही युद्ध में चलता हूं।”

अजायब महतो की इस फटकार पर कुंवर सिंह में “जोश का संचार हुआ और वे बोल पड़े- “नहीं दादा। आपको युद्ध में नहीं जाना पड़ेगा। मैं स्वंय युद्ध में उतरूंगा। दुनिया इस बुढ़ापे की ताकत देखेगी।”
तत्पश्चात् कुंवर सिंह की पहल पर सोनपुर मेले में विद्रोहियों की एक बैठक आयोजित की गई जिसका नेतृत्व दिल्ली के बादशाह के दूत हसन अली ने किया था। उस बैठक में कुंवर सिंह भी अजायब महतो के साथ शामिल थे।


सोनपुर मेले में हुई बैठक की भनक अंग्रेजों को भी लग गई थी। शाहाबाद के तत्कालीन प्रभारी मजिस्ट्रेट एलफिस्टन जैक्शन ने बंगाल सरकार को 23 जनवरी, 1846 को लिखे पत्र में कहा था- – “मुझे इस तरह की स्पष्ट सूचनाएं प्राप्त हैं जिसमें पटना के षड्यंत्रकारियों के साथ कुंवर सिंह की सांठ गांठ होने का संदेह है। उनके मोहर लगे हुए कुछ पत्र मिले हैं, जिनसे उनका अपराध सिद्ध होता है, लेकिन कुंवर सिंह आरा और शाहाबाद के अन्य नगरों में अत्यंत लोकप्रिय हैं। इसलिए उन्हें गिरफ्तार करने से विद्रोह फैलने की संभावना है।” उस पत्र में अजायब महतो की चर्चा करते हुए लिखा गया था कि वह कुंवर सिंह के सबसे विश्वस्त हैं।

इसलिए कुंवर सिंह के खिलाफ किसी कार्रवाई के पहले अजायब महतो को गिरफ्त में लेना आवश्यक है। बंगाल सरकार की अनुमति के बाद पश्चात् एलफिस्टन ने अजायब महतो को मिलने का बुलावा भेजा। परन्तु अस्वस्थता और वृद्धावस्था का बहाना बनाकर वे नहीं मिले। तब अंग्रेजों ने अजायब महतो की गिरफ्तारी के लिए उनके गांव सरैया में भी छापेमारी की, लेकिन उन्हें गिरफ्तार नहीं कर सके।

इस घटना के बाद कुंवर सिंह ने संभावित खतरे को ध्यान में रखकर चुप्पी साध ली और अजायब महतो को तीर्थाटन के बहाने पश्चिम भारत घूमने के लिए भेज दिया। अजायब महतो महीनों पश्चिम भारत में निरुद्देश्य घूमते रहे। इससे अंग्रेज सरकार का ध्यान कुंवर सिंह और अजायब महतो की तरफ से हट गया। लेकिन कुंवर सिंह ने गोपनीय ढंग से विद्रोहियों से संवाद कायम रखा।

सैनिक विद्रोह के बाद बिहार में भी विद्रोहाग्नि फूट पड़

10 मई, 1857 को मेरठ में हुए सैनिक विद्रोह के बाद बिहार में भी विद्रोहाग्नि फूट पड़ी। अंग्रेजी सरकार का विश्वास देशी सिपाहियों से उठ गया। उन्हें निःशस्त्र करने का निर्णय हुआ। इसी दरम्यान कुंवर सिंह के प्रतिनिधि के तौर पर हरिकिशन सिंह और रणदलन सिंह ने दानापुर छावनी के देशी पलटन के जवानों से खुफिया बातें की। तब जाकर 25 जुलाई, 1857 को दानापुर के जवानों ने खुला विद्रोह कर दिया।

मुक्ति वाहिनी जगदीशपुर की ओर चल पड़ी और वहां पहुंचकर उसने कुंवर सिंह को अपना नेता कबूल कर लिया। यह संग्राम लगभग नौ महीनों तक चलता रहा। तब तक अजायब महतों 95 वर्ष के हो चुके थे। लेकिन इस अवस्था में भी वे कुंवर सिंह को अंग्रेजों के खिलाफ प्रेरित करते रहे। 23 अप्रैल, 1858 को जगदीशपुर में हुए ऐतिहासिक युद्ध में घायल होने के बाद 26 अप्रैल, 1858 को कुंवर सिंह का स्वर्गवास हो गया।

कुंवर सिंह की मृत्यु के बाद भारत के अन्य क्षेत्रों में स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम बिखर गया, मगर बिहार में वह उनके अनुज अमर सिंह के नेतृत्व में दिसंबर 1859 तक चलता रहा और उसमें प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से अजायब महतो की मुख्य भूमिका रही। कहते हैं कि अजायव महतो का निर्धन अमर सिंह के बाद हुआ और वे लगभग 104 वर्षों तक जीवित रहे।

संदर्भ

संजय कुमार, 1857 जनक्रांति के बिहारी नायक,विशाल पब्लिकेशन, 2008 

Pratyush Prashant

किसी भी व्यक्ति का परिचय शब्दों में ढले, समय के साथ संघर्षों से तपे-तपाये विचार ही दे देते है, जो उसके लिखने से ही अभिव्यक्त हो जाते है। सम्मान से जियो और लोगों को सम्मान के साथ जीने दो, स्वतंत्रता, समानता और बधुत्व, मानवता का सबसे बड़ा और जहीन धर्म है, मुझे पूरी उम्मीद है कि मैं अपने वर्तमान और भविष्य में भी इन चंद उसूलों के जीवन जी सकूंगा और मानवता के इस धर्म से कभी मुंह नहीं मोड़ पाऊगा।

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