एक मठ में एक बिल्ली न जाने कहां से चली आई और वहीं रहने लगी। धीरे-धीरे वह मठ में रहने वाले संन्यासियों और उनके गुरुओं के साथ काफी घुल-मिल गई। सब कुछ ठीक ठाल चलता रहा।
कुछ दिनों के बाद मठ में रहने वाले सभी लोगों ने महसूस किया कि संध्याकालीन ध्यान के दौरान वह बिल्ली संन्यासियों के बीच बहुत कुछ उछल-कूद मचाती थी, जिससे संन्यासियों का ध्यान लगाने में व्यावधान होता था।
इसलिए गुरू ने आज्ञा दी कि संध्याकालीन ध्यान के दौरान उस बिल्ली को बांध दिया जाए। गुरू के आज्ञा मान मठ में पालन किया गया और संध्याकालीन ध्यान के दौरान बिल्ली को बांधा जाने लगा।
ध्यान बिना व्यवधान लगाया जाने लगा। यही सिलसिला कई साल चलता रहा। वृद्ध होने पर गुरु का देहांत हो गया, लेकिन उसकी मृत्यु के बाद भी संध्याकालीन ध्यान के दौरान बिल्ली को बांधने का बदस्तूर चालू रहा।
कुछ साल के बाद वह बिल्ली भी मर गई। तब मुख्य मठाधिकारी के आदेश पर बाहर से एक और बिल्ली लाई गई और उसे संध्याकालीन ध्यान के दौरान बांधा जाने लगा।
कुछ सौ साल बाद उस मठ के सबसे विद्धान माने जाने वाले मठ ने एक किताब लिख दी, जिसका शीर्षक था- संध्याकालीन ध्यान के दौरान बिल्ली को बांधे जाने का महत्व।” (जातक कथा)