Tuesday, November 12
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Biography

ख्याल शैली की हस्ताक्षर, गंगूबाई हंगल

भारत के प्रसिद्ध गायन शैली ख्याल की प्रतिनिधी गायिका थी गंगूबाई हंगल, जिनका संबंध किराना घराने से भी था। किसान पिता और कर्नाटक शैली की शास्त्रीय गायिका मां अंबाबाई के घर घारवाड़ शहर में देवदासी परिवार में हुआ था। बचपन के दिनों को याद करके बताती है, उस जमान में जातिवाद बहुत प्रबल था। मुझे याद है बचपन में किस प्रकार मुझे अपमानित होना पड़ा था, जब मैं एक ब्राह्मण पड़ोसी के बगीचे से आम तोड़ती हुई पकड़ी गई थी। उससे आपत्ति इससे नहीं थी कि मैने उनके बाग से आम तोड़े, बल्कि उन्हें आपत्ति थी कि क्षुद्र जाति की एक लड़की ने उनके बगीचे में घुसने का दुस्साहस कैसे किया? आज वही लोग मुझे अपने घर दावत पर बुलाते हैं।

बचपन से ही था संगीत से लगाव

बचपन में  ग्रामोफोन सुनने के लिए सड़क पर दौड़ पड़ती और उस आवाज़ को नकल करने की कोशिश करती थी। संगीत में गंगू की रूचि देखकर मां-पिता ने संगीत क्षेत्र के एच. कृष्णाचार्य जैसे दिग्गज और किराना उस्ताद सवाई गंधर्व से सर्वश्रेष्ठ हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सीखे। गंगू बताती है कि – मेरे गुरुजी बताते थे कि- जिस तरह एक कंजूस अपने पैसों के साथ व्यवहार करता है। उसी तरह सूर का इस्तेमाल करों...ताकि श्रोता राग की हर बारीकी के महत्व को समझ सके। उन्होंने पंडित भीमसेन जोशी के साथ संगीत की शिक्षा ली।

तंगहाली में बीते कई दिन

प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद 1929 में मात्र 16 वर्ष के आयु में देवदासी परंपरा के अनुसार अपने यजमान गुरुराव कौलगी के साथ बंधन में बंध गई। पर चार वर्ष बाद ही गुरुराव की मौत हो गई और वे अपने पीछे गंगूबाई के साथ दो बेटे और एक बेटी को छोड़ गए। गंगू को कई दिनों तक जेवर-बर्तन बेचकर अपने बच्चों का पालन-पोषण करना पड़ा।

संगीत कैरियर और सम्मान

1945 तक गंगूबाई ने ख्याल, भजन और ठुमरियों पर आधारित आयोजनों में अपनी धाक जमा ली थी, कई सार्वजनिक प्रस्तुतियां देकर। वह आल इंडिया रेडियों में प्रसिद्ध आवाज़ बनकर उभरी। 1945 के बाद उन्होंने उप-शास्त्रीय शैली में गाना बंद कर दिया और केवल शुद्ध शास्त्रीय शैली में रागों को गाना जारी रखा।

गंगूबाई हंगल को कर्नाटक राज्य और भारत सरकार से कई सम्मन और पुरस्कार मिले। कर्नाटक संगीत नृत्य अकादमी पुरस्कार, पद्म भूषण, संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार, संगीत नाटक अकादेमी की सदस्यता, दीनानाथ प्रतिष्ठान, मणिक रत्न पुरस्कार तथा पद्म विभूषण से सम्मानित हुई। कई वर्षों तक कर्नाटक विश्वविद्यायक में संगीत की प्राचार्या रहीं। 2006 में उन्होंने अपने संगीत के सफर की 75वीं वर्षगांठ बनाते हुए अपनी अंतिम सार्वजनिक प्रस्तुति दी थी। जिसके तीन वर्ष बाद प्रसिद्ध ख्याल शैली की ध्वनि हमेशा के लिए खामोश हो गई।

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