भारत के स्वाधीनता संग्राम में शामिल महिलाओं का विद्रोह केवल औपनिवेशिक सत्ता से मुक्त हो जाना भर नहीं था.महिलाएं भारतीय समाज में अपने विरुद्ध पूर्वाग्रह-युक्त रूढ़िवादी मान्यताओं के खिलाफ भी संघर्ष कर रही थी।
जन्मजात विद्रोहिणी चंद्रप्रभा सदियों से चली आ रही परंपराओं को चुनौति देते हुए महिलाओं के लिए स्वतंत्रता और गरिमापूर्ण जगह बनाने के लिए, उस दौर में कोशिश कर रही थी, जब महिलाओं के चारदिवारी से बाहर निकलने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। असम में पर्दा प्रथा के विरुद्ध चंद्रप्रभा का संघर्ष इतिहास में विशिष्ट स्थान बना देता है और पूरा असम उनको सैकयानी बैदेव के नाम से याद करता है।
लड़कियों को शिक्षित करने के लिए 13 साल के उम्र में ही छप्पर के नीचे स्कूल की स्थापना की। स्वयं स्कूल में जो सिखती वहीं स्कूल की हम उम्र लड़कियों को भी सीखाती।सत्रह साल के उम्र में अफ़ीम प्रतिबंध के लिए संघर्ष किया और जाति लिंग या धर्म के आधार पर भेदभाव की परवाह न करते हुए उन्होंने हाजो हयग्रीव माधव मंदिर खोला।
बिना घबराए लड़कों के स्कूल में प्रवेश लिया
चंद्रप्रभा असम के कामरूप ज़िले के छोटे से गांव के मुखिया/ मौजादार रतीराम मजुमदार के घर 16 मार्च 1901 को पैदा हुई। पढ़ाई-लिखाई के लिए जिस स्कूल में पिता ने दाखिला करवाया वह घर से काफी दूर था। तमाम आलोचना को झेलते-सहते चंद्रप्रभा अपनी बहन रजनीप्रभा के साथ बेखौफ स्कूल जाती और लड़कों के स्कूल मॆं पढ़ने से जरा भी नहीं घबराई। इसी मानसिक शक्ति ने बहन रजनीप्रभा को पहली महिला चिकित्सक(डाक्टर) बनने का सम्मान दिलवाया और चंद्रप्रभा को प्रबल इच्छाशक्ति का स्वामनी।पढ़ाई पूरी करने के बाद चंद्रप्रभा ने स्वयं को अध्यापन कार्य से जोड़ लिया। जिसकी यात्रा कतई सहज़ नहीं थी। मिशनरी आधयपकों के भेदभावपूर्ण व्यवहार के विरुद्ध आवाज़ उठानी पड़ी। कुछ वर्षों के बाद उन्होंने स्वयं तेजपुर में एक प्राथमिक विद्यालय की नींव रखी। दोनों बहन का मानना था कि –
प्रत्येक मानव को चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, समस्त उपलब्ध सुविधाओं के उपभोग का समान अधिकार है। स्तियों को पुरुषों से पीछे नहीं अपने विकास के आगे आना चाहिए।
स्वतंत्रता आंदोलन और सामाजिक सुधार कार्यक्रमों से जुड़ाव
महिलाओं को प्रतिवाद शब्द तक का पता नहीं था। इसी सामाजिक माहौल के कारण जब चंद्रप्रभा का विवाह जाने-माने उपन्यासकार दंडीनाथ कलिता से हुआ, तब ससुराल के मानसिक अत्याचार के कारण अपने एक साल के बेटे के साथ पति से अलग हो गईं।
अपने जीवन की व्यक्तिगत समस्याओं के बाद भी चंद्रप्रभा ने स्वतंत्रता आंदोलन और सामाजिक सुधार कार्यक्रमों से स्वयं को विलग नहीं किया। समाज सुधारक के रूप में उन्होंने अफीम-निषेध आंदोलन में गहरी दिलचस्पी ली। चंद्रप्रभा महिलाओं को पुरुषवादी चंगुल से मुक्त करके आत्मनिर्भर करना चाहती थी। अपने पिता या पति का उपनाम रखने से उन्होंने इंकार कर दिया और एक नया उपनाम “सैकियानी” मान लिया और वह “सैंकियानी बेडेव” के नाम से जानी जाने लगीं।
महात्मा गॉंधी के नेतृत्व में चंद्रप्रभा स्वदेशी आंदोलन से जुड़ीं, तब चंद्रप्रभा असमिया महिलाओं का नेतृत्व संभालने वाली नेत्री के रूप में पहचानी जाने लगीं। महात्मा गॉंधी के प्रभाव से उन्होंने अपना जीवन असमिया महिलाओं के स्तर के उत्थान एवं प्रगतिशील असमिया समाज के निर्माण के प्रति समर्पित कर दिया। इसके लिए उन्होंने स्कूल की प्रधानाध्यापिका के पद से त्यागपत्र देकर “महिला मोर्चा” गठन किया। विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार, खादी का अंगीकार के लिए असमिया समाज को प्रोत्साहित किया। इसके लिए उनकी गिरफ्तारी भी हुई।
असम साहित्य सभा के अधिवेशन में एक बार उनको आमंत्रित किया गया। उन्होंने वहां देखा कि महिलाओं को पर्दे के पीछे बैठाया गया है। महिलाओं के साथ इस तिरस्कार का विरोध किया और बैठक से उठकर चली गईं, उन्होंने महिला प्रतिनिधियों को इस सभा का बहिष्कार करने के लिए कहा। बाद में 1926 में उन्होंने “महिला समिति” बनाई।
असम के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक जीवन में महिलाओं को समान स्तर दिलाने के संघर्ष में चंद्रप्रभा का नाम अग्रीम कतार में है, जिसके लिए उन्हें शक्तिशाली रूढ़िवादी तत्वों का सामना करना पड़ा।
गुवाहाटी के मंदिर में दलितों को प्रवेश दिलाने का उनका आंदोलन असम की सामाजिक व्यवस्था में बदलाव का मील का पत्थर है, जिसके लिए असम समाज उनको कभी नहीं भूल सकता है। 1972 में उनकी मृत्यु के बाद आज भी असम की महिलाओं के लिए वह प्रेरणा स्त्रोत के रूप में मौजूद हैं।